कलम की ताकत से आज भी घबराते हैं तानाशाह…

अन्तर्द्वन्द

एक अकेले रवीश की आवाज दबाने के लिए क्या-क्या जुगत न लगाए गए! चैनल पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश हुई, प्रमोटर तोड़ने की कोशिश हुई, छापा वापा हुआ, अफवाहें फैलीं और एक उद्योगपति की रखैल बनी यह तानाशाही आखिरकार जीत गई। यह अंत नहीं है, क्लाइमेक्स तो अब भी बाकी है।

रवीश कुमार के इस्तीफे से कुछ लोग नाच रहे हैं। कुछ उनकी आलोचना भी करते रहते हैं। वे इतने भी खुदा नहीं हैं, वे अकेले पत्रकार नहीं हैं, उनके जैसे बहुत सारे हैं, ये सब बातें सही हैं। लेकिन उनके साथ पत्रकारिता जगत में उभरे लोगों ने जब घुंघरू बांध लिया, जब पूरा नोएडा मीडिया लश्कर-ए-मीडिया में बदल गया, जब पूरा मीडिया विपक्ष और जनता का शिकार करने निकल गया, तब रवीश कुमार तन कर खड़े रहे।

जब आलोचना की सारी आवाजें घोंट दी गईं, तब रवीश कुमार खड़े रहे। जब जनता की तरफ से जुल्म को जुल्म कहने वाले कम लोग रह गए, तब रवीश हांक लगाते रहे और यह दिखाया कि कलम की ताकत से आज भी तानाशाह घबराते हैं।

जब हम छात्र थे तब उनसे सीख रहे थे। जब हम पेशे में आ गए तब भी उनसे सीखते रहे। सरकार बदली, रवीश कुमार नहीं बदले। लोग बदले, रवीश नहीं बदले। उनसे मुलाकातें हुईं, कई बार इंटरव्यू किए, हर बार ऐसा लगा कि रवीश हमें इंटरव्यू नहीं दे रहे हैं, बल्कि सिखा रहे हैं।

ज्यादा कुछ नहीं कहना। बस इतना कहना है कि कभी ठहर कर सोचिए कि आखिर क्या वजह है कि भारत जैसे विशाल देश में एक पत्रकार इतने वर्षों से निशाने पर है? क्योंकि राजा को आलोचना और सवाल पसंद नहीं हैं। कभी सोचिएगा कि क्या हम 140 करोड़ लोगों की कौम मुर्दा हो चुकी है?

नाचो मत, शर्म करो।