हरियाली तीज: प्राचीन परम्पराओं का धीरे-धीरे समाप्त होते जाना चिन्तनीय है

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ब्रज लोक संस्कृति मर्मज्ञ पद्मश्री मोहन स्वरूप भाटिया ने हरियाली तीज पर कई गाँवों का सर्वेक्षण करके पाया कि अब से एक वर्ष तक पूर्व तक गाँवों में हरियाली तीज का हर्षोल्‍लास छाया रहता था किन्तु अब न तो सुनीं गईं ये मनुहार –

हरियल – हरियल अम्मा मेरी मैं करूँ जी,
ए जी कोई आईं हरियाली तीज,
झूला तौ डराइ दै हरियल बाग में जी।

एक समय था जब कि अमराइयाँ थी, कदम्बखंडियाँ थीं, हरियल बाग थे, चम्मा बाग थे, नौलखा बाग थे जिनमें झूले पड़ जाते थे और हरियाली तीज के गीत गूँज उठते थे –

गोरी धँन कौ बीजना हरियाली तीजें आईं जी।

अब से 50 वर्ष पूर्व तक सदर बाजार में मथुरा के प्रतिष्‍ठ‍ित सेठ परिवार द्वारा स्थापित जमुना बाग में हरियाली तीज पर मेला लगता था, पेड़ों पर झूले पड़ जाते थे और मथुरा नगर यहाँ उमड़ पड़ता था। पिछले कई दषकों से अब मेला नहीं लग रहा है। वर्तमान में स्थिति यह है कि कुछ गाँवों में झूला झूलने तक हरियाली तीज तो मनीं किन्तु ये गीत सुनने को नहीं मिले –

तीजन चरचा ए री चन्दना चलि रही जी,
ए जी कोई गलियनु परौ है चबाब सिर बदनामी
ए जी चन्दना चैं लई जी ?

ब्रज में कभी हरियाली तीज पर ‘तीज खेलने’ की परम्परा थी जो बहुत रोचक और मार्मिक थी। इस परम्परा से आज की पीढ़ी तो पूर्णत: अनभिज्ञ है ही किन्तु 50 वर्ष पूर्व की महिलाओं को भी इसकी जानकारी नहीं है। अब से लगभग 64 वर्ष पूर्व गाँवों में जाकर ब्रज की लोकगीत संकलन यात्रा में मुझे ‘हरियाली तीज’ के पर्व पर ‘तीज खेलने’ की जानकारी प्राप्त हुई थी।

‘तीज खेलने’ की परम्परा में चार स्त्रियाँ किसी पोखर के किनारे एक कपड़े के चारों सिरे पकड़ कर खड़ी हो जाती थीं और शेष स्त्रियाँ चारों ओर खड़ी होकर कपड़े पर जौ डालती जाती थीं। एक स्त्री कपड़े के नीचे बैठकर गीत गाते हुए खड़ी हुई स्त्रियों से उनके पति का नाम पूछती थी। ये स्त्रियाँ पति का नाम बताने में लजाती थीं किन्तु तीज खेलने आई हैं तो नाम तो बताना ही पड़ेगा और तब उसके द्वारा नाम बताते ही वातावरण हँसी से खिलखिला उठता था जब ससुर का नाम पूछा जाता था। तब कोई स्त्री घूँघट डालकर नाम बताती थी तो फिर हँसी के कहकहे लगने लगते थे।

‘तीज खेलने’ का मार्मिक समापन इस प्रकार होता था कि कपड़े पर पड़े जौ लेकर स्त्रियाँ पोखर के किनारे बो देती थीं और फिर एक दूसरे को जो बोने का स्थान दिखाती हुई कहती थीं कि मेरी मृत्यु हो जाय तो मेरे भाई को मेरी ‘खौ’ ( जौ बोने का स्थान ) बता देना।

‘तीज खेलने’ की कुछ और परम्पराएँ भी रही हैं किन्तु इस वर्ष किसी गाँव में ‘तीज खेलने’ की न तो परम्परा देखने को मिली और न किसी को इस परम्परा की जानकारी थी। सर्वेक्षण में यह भी ज्ञात हुआ कि गाँव में ऐसे पेड़ भी कम रह गये हैं जिन पर झूले डाले जा सकें।

प्रौढ़ा स्त्रियाँ मल्हार गीत भूल चुकी हैं और नव युवतियों की रुचि फिल्मी गीतों तक सिमटती जा रही है।
सांस्कृतिक दृष्‍ट‍ि से समृद्ध ब्रज से प्राचीन परम्पराओं तथा पुरातन संस्कृति का शनै: शनै: समाप्त होते जाना चिन्तनीय है।

– पद्मश्री मोहन स्वरूप भाटिया