डिजिटल डिटॉक्सिंग क्या है, और यह क्यों बनती जा रही है एक बड़ी चुनौती?

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डिजिटल डिटॉक्स का मतलब है कि टेक्नोलॉजी को पूरी तरह ताक पर रख देना. यानी आप कुछ दिनों तक पूरी तरह स्क्रीन से हट जाते हैं. चाहे वो सोशल मीडिया हो या वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग या फिर ऐसा ही कोई डिजिटल प्लेटफॉर्म.

डिजिटल डिटॉक्सिंग का मतलब तनाव या चिंता घटा कर लोगों को उनकी वास्तविक दुनिया से जोड़ना होता है. हालांकि टेक्नोलॉजी से दूर रहने के दौरान होने वाले फायदे वैज्ञानिक तौर पर साबित नहीं हो पाए हैं लेकिन डिजिटल डिटॉक्सिंग एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है.

2012 से इस चुनौती का सामना करना और मुश्किल हो गया है. इसी साल पहली बार रिसर्चरों ने इस शब्द का इस्तेमाल किया था.

उस वक्त तक स्क्रीन की अहमियत कायम हो चुकी थी. हालांकि ऐप के नए वर्जन और सोशल मीडिया अभी शुरुआती दौर में ही थे इसलिए उस दौर में डिजिटल डिटॉक्सिंग की चुनौती से टकराना आज की तुलना में आसान था. अब अपनी ज़िंदगी को टेक्नोलॉजी से अलग करना असंभव हो गया है.

आज हम स्टोर पर फोन से पेमेंट करते हैं. कंप्यूटर और टैबलेट से काम करते हैं और ऐप के जरिये अपनी रिलेशनशिप मेंटेन करते हैं.

कोरोना महामारी के बाद तो हमारी ज़िंदगी में टेक्नोलॉजी और ज्यादा घुस गई है.

डिटॉक्सिंग के लिए कहां से करें शुरुआत?

साल 2023 में अगर आप डिजिटल डिटॉक्सिंग को आजमाना चाहते हैं तो कहां से शुरुआत करना ठीक होगा?
कुछ दिनों तक फोन से दूर रहने जैसे उपायों को छोड़ दें तो आज के दिन में ज्यादातर लोगों के लिए डिजिटल डिटॉक्सिंग संभव नहीं रह गया है.

अमेरिका के सिएटल में रहने वाली स्क्रीन टाइम मैनेजमेंट की विशेषज्ञ कंस्लटेंट एमिली चेरकिन कहती हैं, ”टेक्नोलॉजी अब हमारी ज़िंदगी में पूरी तरह घुस चुकी हैं. हम ऐप के जरिये बैंकिंग करते हैं, फोन पर रेस्तरां के मेन्यू पढ़ते हैं और स्क्रीन पर बताए जा रहे निर्देशों के देख कर एक्सरसाइज करते हैं”.

वो कहती हैं, ”टेक्नोलॉजी हमारी ज़िंदगी से इतनी गुंथी हुई है कि एक सप्ताह के लिए भी फोन मुक्त होने की बात करना डिजिटल डिटॉक्सिंग में नाकामी की ओर बढ़ना है.”

लोग अब टेक्नोलॉजी पर इतने ज्यादा आश्रित हो चले हैं कि डिजिटल डिटॉक्सिंग वाजिब लक्ष्य नहीं रह गया है. इसके बजाय अब ज़्यादा यथार्थवादी लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं ताकि टेक्नोलॉजी के प्रति हमारी दीवानगी थोड़ी कम हो. ऐसी पहलकदमी जिसमें हमें टेक्नोलॉजी से पूरी तरह कटने के लिए बाध्य न किया जाए.

स्क्रीन, स्क्रीन और स्क्रीन

कोरोना महामारी के दौरान लोगों का स्क्रीन टाइम काफी बढ़ गया. लोग लॉकडाउन के दौरान ज्यादा स्क्रीन देखने लगे क्योंकि उनके पास लोगों से संपर्क का कोई दूसरा कोई ज़रिया नहीं था. अब महामारी खत्म होने के बाद भी उनकी ये आदत बरकरार है.

पहले लोगों के पास घर से बाहर निकल कर आपस में मिलने-जुलने के विकल्प थे लेकिन स्क्रीन देखने की लत ने इस विकल्‍प को लगभग समाप्‍त कर दिया है.

2022 में लीड्स यूनिवर्सिटी में हुई स्टडी के मुताबिक़ ब्रिटेन में रहने वाले 54 फीसदी वयस्क अब महामारी से पहले के दौर की तुलना में ज्यादा स्क्रीन का इस्तेमाल कर रहे हैं.

जिन लोगों के बीच ये सर्वे कराया गया था उनमें से आधे लोग हर दिन 11 घंटे से ज्यादा स्क्रीन देख रहे थे.
कोरोना काल से पहले के दिनों की तुलना में फुर्सत के दौरान स्क्रीन देखने वाले लोगों की तादाद 51 फीसदी थी, जबकि 27 फीसदी लोगों का काम के दौरान स्क्रीन इस्तेमाल का समय बढ़ गया था.

स्क्रीन टाइम में बढ़ोत्तरी ने एक दूसरे से संपर्क करने में रहने के हमारे ढर्रे को भी बदल दिया है. अहम रिश्ते अब और ज्यादा डिजिटाइज हो गए हैं क्योंकि हमने वॉट्सऐप पर ग्रुप बना लिए हैं. दो महीने में होने वाले पारिवारिक भोज पर बातचीत के बजाय अब हर हफ्ते कॉल पर बातचीत की जा रही है.

कोविड-19 ने हमारे संपर्कों को डिजिटल दायरे में धकेल दिया. बहुत सारे लोग अब ग्रुप चैट और वीडियो कॉल पर बात करने लगे हैं लिहाजा डिजिटल डिटॉक्स का मतलब सिर्फ अपने बॉस से डिजिटल डिवाइस से चैट से मुक्ति नहीं है. इसका मतलब ये है कि आप अपने करीबियों से एक निर्धारित वक्त तक डिजिटल तौर पर संपर्क में नहीं रहेंगे.

ऑनलाइन डेटिंग अब आम हो गई है. कोरोना के दौरान दोस्ती बनाने में टेक्नोलॉजी का अहम योगदान रहा है. बीबीसी वर्कलाइफ ने बम्बल का एक डेटा देखा है. इसके मुताबिक़ बम्बल के फ्रेंडशिप मैचमेकिंग ऐप बम्बल बीएफएफ के ट्रैफिक में 2020 से लेकर अब तक खासी बढ़ोत्तरी हुई है.

2021 के आखिर तक बम्बल के चार करोड़ बीस लाख में से 15 फीसदी यूजर्स बीएफएफ पर दोस्त तलाश रहे थे. इससे एक साल पहले यह आंकड़ा दस फीसदी था. 2022 तक दोस्त खोजने वाले पुरुष यूजर्स की तादाद बढ़ कर 26 फीसदी हो गई थी.

अपनी ऑनलाइन मौजूदगी पर 700 से भी ज्यादा सेंसर, डिवाइस और ऐप के जरिये नज़र रखने वाले वाले लेखक क्रिस डेन्सी कहते हैं, ”अच्छी टेक्नोलॉजी हो या बुरी, ये एक्सेसिबिलिटी का ही एक रूप है. मुझे ये कहना तो अच्छा नहीं लग रहा है लेकिन ज्यादा से ज्यादा पैरेंट्स, पार्टनर और दोस्त डिजिटल टेक्नोलॉजी के बगैर रिश्तों को बरतना भूलने लगे हैं.”

डिजिटल माइंडफुलनेस

दरअसल, हाइब्रिड वर्क और हाइब्रिड रिलेशनशिप की ओर लोगों के बढ़ते कदम डिजिटल डिटॉक्स का आइडिया न सिर्फ पुराना पड़ चुका है बल्कि लगभग असंभव हो गया है. डिजिटल डिटॉक्स को चिंता दूर करने का रामबाण कहा जा रहा है.

लेकिन लोगों की ज़िंदगी और स्क्रीन के बीच रिश्ते और जटिल हो गए हैं इसलिए जब आप डिटॉक्सिंग को अपनाने की कोशिश करेंगे और इसमें कामयाब नहीं होंगे तो आपकी चिंता और बढ़ जाएगी.

ब्रिटेन में टिस्साइड यूनिवर्सिटी में डिजिटल एंटरप्राइज की एक सीनियर लेक्चरर सीना जोनेडी कहते हैं, ”मैं टेक्नोलॉजी को बंद नहीं कर सकती. हम तमाम अलग-अलग वजह से स्क्रीन पर मौजूद हैं.

वो कहते हैं, ”मेरे लिए टेक्नोलॉजी से डिटॉक्सिंग का मामला ‘ऐच्छिक लगाव’ से जुड़ा है. ऐच्छिक लगाव एक बौद्ध अवधारणा है. इसका मतलब ये है कि कोई आदमी किसी चीज को इसलिए चाहता है कि उसे लगता है कि ये उसे खुशी देगी लेकिन स्क्रीन से लगाव ब्लू लाइट का डोपेमाइन ही है. ”

टेक्नोलॉजी से पूरी तरह कटने के बजाय जोनेडी डिजिटल माइंडफुलनेस को आजमाते हैं. वो कहते हैं, ” मैं ये पक्का करता हूं टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किसी उद्देश्य के लिए करूं. उनके मुताबिक़ पूरी तरह डिटॉक्सिंग की तुलना में डिजिटल माइंडफुलनेस कुछ लोगों के लिए ज़्यादा व्यावहारिक हो सकता है. इससे टेक्नोलॉजी से पूरी तरह कटने की चिंता कम होगी और किसी उद्देश्य के लिए इसके इस्तेमाल पर फोकस बढ़ेगा.

उनका कहना है कि डिजिटल माइंडफुलनेस आजमाने से लोग बेमकसद स्क्रॉलिंग से बच पाएंगे और अपनी टेक्नोलॉजी के साथ अपनी ज़िंदगी को ज्यादा खुशगवार बना पाएंगे.

स्क्रीन टाइमिंग को ऐसे करें काबू

विशेषज्ञों का गहना है कि जो लोग पूरी तरह स्क्रीन से दूर नहीं हट सकते वे अपने टेक्नोलॉजी इस्तेमाल के पैटर्न पर गौर कर सकते हैं. ऐसा करके वो टेक्नोलॉजी का बेहतरीन इस्तेमाल कर सकते हैं.

ओरेगन में रहने वाले एंथ्रोपोलोजिस्ट अंबर केस कहती हैं, ”मैंने अपने फोन पर कई ट्रैकिंग टूल्स का इस्तेमाल करना शुरू किया.”

अंबर ने पाया कि वह एक दिन में 80 बार इंस्टाग्राम क्लिक कर रही हैं. इसलिए उन्होंने एक प्लगइन वन सेक, डाउनलोड किया. ये प्लगइन यूजर्स को फोन पर कोई ऐप खोलने से पहले रुक कर सोचने का मौका देता है.

केस कहती हैं कि ब्रेक के तौर पर स्क्रॉलिंग करने की आदत से बाज आएं. वो कहती हैं कि जब जरूरत न हो तो फोन को खुद से दूर रखने की आदत डालें. वो कहती हैं, लोगों को सिगरेट की लत की तरह फोन की लत लग जाती है.”

वो कहती हैं, ”फोन आपके खाली समय पर कब्जा कर लेते हैं और और फिर इसे दूसरे लोगों के आइडिया से भर देते हैं. आप सिर्फ स्क्रीन पर यूं ही ताकते रहते हैं और फिर बोर हो जाते हैं.

डिजिटल डिटॉक्सिंग का मतलब पूरी तरह टेक्नोलॉजी से कटना नहीं

आखिर में एक्सपर्ट्स में कहना है कि डिजिटल डिटॉक्सिंग का मतलब पूरी तरह टेक्नोलॉजी से कटना नहीं होना चाहिए. ऐसा करने के लिए खुद पर अपना दबाव भी नहीं डालना चाहिए. लोगों को ई-मेल करने की जरूरत पड़ती है. उन्हें ऑनलाइन टेक्स्ट भी देखना होता है. लेकिन वो दूसरे ऑनलाइन कंटेंट के आकर्षण से बच कर भी ऐसा कर सकते हैं.

डेन्सी इसे ‘ग्रे डिटॉक्सिंग’ कहते हैं. इसके तहत न तो आप पूरी तरह टेक्नोलॉजी में खुद को डुबो लते हैं और न ही पूरी तरह इससे कटते हैं. वो कहते हैं इसे आजमाने का सिर्फ एक ही तरीका नहीं है. इसके कई तरीके हो सकते हैं.

जैसे आप ऐसे ऐप और प्लग-इन इंस्टॉल कर सकते हैं,जो आपको सोशल मीडिया के सारे मैट्रिक्स से दूर रख सकते हैं. आप दोस्तों और नजदीकी रिश्तेदारों से फोन की अदला-बदली भी कर सकते हैं. ताकि आप जब एक दूसरे से कनेक्ट करना चाहें तभी स्क्रीन का इस्तेमाल करें.

डेन्सी कहते हैं, ”सप्ताह के आखिरी दिनों में मैं अपने पार्टनर के फोन का इस्तेमाल करती हूं और वो मेरे फोन का.”
दोनों एक दूसरे के मैसेज का जवाब देते हैं. एक दूसरे के अकाउंट के जरिये संगीत सुनते हैं.डेन्सी कहते हैं, ”दरअसल ये दूसरे की जिंदगी में डूबने का जरिया है.”

विशेषज्ञों का कहना है कि एक सप्ताह के लिए पूरी तरह फोन से नाता तोड़ने के बजाय अपनी ज़िंदगी की जरूरत के हिसाब से स्क्रीन का इस्तेमाल करना ज्यादा कारगर साबित हो सकता है. यानी जब हमें जरूरत हो स्क्रीन से संपर्क में रहें और जब जरूरत न हों तो इससे कट जाएं.

Compiled: up18 News