उत्तराखंड का “त्रियुगीनारायण मंदिर”, जो साक्षी बना देवी पार्वती व शिव के दिव्य विवाह का

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देवभूमि उत्तराखंड का “त्रियुगीनारायण मंदिर”
उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के सीतापुर से करीब 15 किमी दूर ऊँचाई पर त्रियुगीनारायण गांव में स्थित है जोकि केदारनाथधाम से लगभग 20 किमी पहले है। य़ह प्राचीन मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है। भगवान् नारायण भूदेवी तथा लक्ष्मी देवी के साथ विराजमान हैं। इस प्रसिद्ध स्थल को विष्णु द्वारा देवी पार्वती के शिव से विवाह के स्थल के रूप में श्रेय दिया जाता है। विष्णु ने इस दिव्य विवाह में पार्वती के भाई का कर्तव्य निभाया था, जबकि ब्रह्मा इस विवाहयज्ञ के आचार्य बने थे।

इस मंदिर की एक विशेषता यहां की अखंड ज्योति है, जो मंदिर के सामने जलती है। माना जाता है कि य़ह लौ दिव्य विवाह के समय से जलती है जो आज भी त्रियुगीनारायण मंदिर में विद्यमान है इस प्रकार, मंदिर को अखण्ड धूनी मंदिर भी कहा जाता है। आने वाले यात्री इस हवनकुण्ड की राख को अपने साथ ले जाते हैं और मानते हैं कि यह उनके वैवाहिक जीवन को सुखी बनाएगी।

त्रियुगीनारायण मंदिर के पुजारी रविग्राम नामक गांव के जमलोकी ब्राह्मण हैं, जो इस हवन कुंड की अग्नि (धुनि) को लगातार जगाए रख रहे हैं और वहां भगवान की पूजा , भोग, स्नान सब कुछ जमलोकी ब्राह्मण ही कर रहे हैं। यह मंदिर भगवान विष्णु के पांचवे अवतार भगवान वामन अवतार को समर्पित है। मंदिर के सामने ब्रह्मशिला को दिव्य विवाह का वास्तविक स्थल माना जाता है। मन्दिर के अहाते में सरस्वती गङ्गा नाम की एक धारा का उद्गम हुआ है। यहीं से पास के सारे पवित्र सरोवर भरते हैं। सरोवरों के नाम रुद्रकुण्ड, विष्णुकुण्ड, ब्रह्मकुण्ड व सरस्वती कुण्ड हैं। रुद्रकुण्ड में स्नान, विष्णुकुण्ड में मार्जन, ब्रह्मकुण्ड में आचमन और सरस्वती कुण्ड में तर्पण किया जाता है।

पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि शिव ने गुप्तकाशी में पार्वती को प्रस्ताव दिया था, इससे पहले कि वे मंदाकिनी और सोन-गंगा नदियों के संगम पर स्थित छोटे से त्रिवुगीनारायण गाँव में शादी कर लें। माना जाता है कि त्रियुगीनारायण को हिमावत की राजधानी माना जाता है। यह शिव और पार्वती, की दिव्य शादी के दौरान का स्थल था. अभी भी मंदिर के सामने एक सदा जलता हुआ हवन कुंड (kund) है.

बताते हैं कि शिव- पार्वती के इस विवाह में विष्णु पार्वती के भाई के रूप में रहे, जबकि निर्माता-देवता ब्रह्मा ने शादी के पुजारी का काम किया, जो उस समय के सभी ऋषियों द्वारा देखा गया था। मंदिर के सामने शादी का सही स्थान ब्रह्म शिला नामक एक पत्थर से चिह्नित है। शास्त्र के अनुसार, इस मंदिर में आने वाले तीर्थयात्री जलती हुई आग से निकली राख को पवित्र मानते हैं और इसे अपने साथ ले जाते हैं।