संपूर्ण महाभारत अर्थात उसके सभी अठारह पर्वों के पहले पुनःकथन का श्रेय ओडिशा के आदिकवि सारलादास को जाता है। पंद्रहवीं सदी में लिखा गया यह महाभारत संभवतः मूल महाभारत से लंबा एकमात्र पुनःकथन है। अपने पुनःकथन में सारलादास ने मध्ययुगीन ओडिशा के खानपान, पहनावे और लोककथाओं का समावेश किया है। इसलिए सारला महाभारत में किरदार और रिश्तों की प्रस्तुति व्यास महाभारत से कुछ अलग है।
भारत के दो महाकाव्यों में से रामायण का किसी क्षेत्रीय भाषा में पहला पुनःकथन दसवीं सदी में तमिल कवि कंबन ने किया था।
पहली कहानी अर्जुन और उसकी धनुर्विद्या की है। पांडव और कौरव द्रोणाचार्य से शस्त्र चलाना सीख रहे थे। एक दिन द्रोणाचार्य ने उनकी परीक्षा लेने का निर्णय लिया। किसी को बिना बताए उन्होंने दूर स्थित एक पर्वत पर एक खंभा रखा, फिर उस पर घास का एक तिनका रखा, तिनके पर चावल का दाना, चावल के दाने पर एक फल और अंत में फल पर सरसों का दाना रखा। सूर्योदय होते ही उन्होंने सभी राजकुमारों को आश्रम में बुलाया और उनसे पूछा कि उन्हें पर्वत पर क्या दिखाई दे रहा है। दुस्शासन को केवल पर्वत और उसके ऊपर मंडरा रहे बादल दिखाई दिए। फिर उन्होंने पहले युधिष्ठिर और उसके बाद भीम व दुर्योधन को बुलाया। तीनों को खंभा और उसके ऊपर रखे घास के तिनके के सिवाय और कुछ नजर नहीं आया। इन सारे उत्तरों से असंतुष्ट होकर द्रोणाचार्य ने कर्ण को बुलाया। उसे खंभा, खंभे के ऊपर घास का तिनका, उसके ऊपर चावल का दाना और चावल के ऊपर फल दिखाई दिया। उसे भी सरसों का दाना नहीं दिखाई दिया।
अंत में अर्जुन को बुलाया गया। अर्जुन ने सबसे सटीक उत्तर दिया। उसने निशाना लेते हुए कहा कि आठ हज़ार आठ सौ अठ्ठाईस कदमों की दूरी पर एक पर्वत पर खंभा है, खंभे पर घास का तिनका है, तिनके पर चावल का दाना, चावल के दाने पर एक फल और सबसे ऊपर सरसों का दाना है। फिर उसने द्रोणाचार्य से पूछा कि इनमें से वह किस पर बाण मारें। जब उन्होंने सरसों का दाना कहा तो पलक झपकते ही अर्जुन ने सरसों के दाने के दो भाग कर दिए और वह भी खंभे, घास के तिनके, चावल के दाने और फल को बिना हिलाए। धनुर्विद्या के इस प्रदर्शन से उल्लसित होकर द्रोणाचार्य ने अर्जुन को आशीष दिया कि वह सदा विजयी होगा।
दूसरी कहानी नकुल की है। एक बार युधिष्ठिर ने धर्मयज्ञ करना चाहा। जैसे-जैसे यज्ञ का दिन निकट आते गया, वैसे-वैसे सभी लोग उसकी तैयारी में जुट गए। यज्ञ में अब कुछ ही दिन बाकी थे और इसलिए नारद मुनि ने सुझाव दिया कि युधिष्ठिर को केवल चारों दिशाओं के वरिष्ठ राजाओं, स्वर्ग-लोक के इंद्र देव और पाताल-लोक के वासुकि को आमंत्रित करना चाहिए। सभी ने यह सुझाव स्वीकार कर लिया।
सबसे पहले भीम मगध के राजा जरासंध और मेरूमंदर पर्वत के राजा मृगसेन को आमंत्रण देने गया। मृगसेन एक महत्वपूर्ण राजा थे, क्योंकि वे वेद व्यास के पुत्र थे और उन्हें वरदान मिला था कि कोई भी राजा उन्हें युद्ध में पराजित नहीं कर सकता था। अर्जुन को स्वर्ग के इंद्र देव व मथुरा के राजा उग्रसेन तथा सहदेव को हस्तिनापुर के राजा दुर्योधन व नैमिषारण्य के ऋषियों को आमंत्रण देने भेजा गया। अब केवल पाताल लोक के राजा वासुकि को आमंत्रण देना रह गया था। कृष्ण ने यह कार्य नकुल को सौंप दिया।
युधिष्ठिर का आमंत्रण लिए नकुल पाताल लोक में वासुकि से मिला। वासुकि आमंत्रण से प्रसन्न भी थे और कुछ व्याकुल भी। उन्होंने नकुल को बताया कि वे पृथ्वी को सदा अपने सिर पर उठाए रखते हैं। यज्ञ में जाने के लिए उन्हें पाताल लोक छोड़ना पड़ेगा। ऐसा करने पर पृथ्वी का आधार चला जाएगा और वह पाताल लोक में ढह जाएगी। यह जानने के उपरांत नकुल ने अपने भाले को अपनी अंगुली पर सीधा खड़ा किया। फिर उसके कहने पर वासुकि ने पृथ्वी को भाले की नोंक पर रख दिया। वासुकि ने बगैर किसी चिंता के यज्ञ में भाग लिया। सात दिन की अवधि के बाद जब वे लौटे, तब उन्होंने पृथ्वी को फिर से अपने सिर पर रख लिया। नकुल के इस कार्य के बारे में जानकर सभी प्रसन्न हुए।
-एजेंसी
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