मर्दाना शरीर और जनानी चाल। मेकअप से लिपे-पुते चेहरे। भारी भरकम ज्वेलरी। ताली पीटते और ढोलक की थाप पर थिरकते। सड़क पर कार के शीशे ठक-ठक करते। शादी ब्याह और नन्ही जान के आगमन पर बधाई गाते। आशीर्वाद देते लोग, जिन्हें किन्नर नाम से जाना जाता है। आखिर कौन हैं ये लोग, कहां से आते हैं, क्यों उनका जन्म एक कहानी और अंतिम विदाई एक पहेली है?
साहित्यकार और लेखक महेंद्र भीष्म बताते हैं कि हमारे समाज का ताना-बाना मर्द और औरत से मिलकर बना है, लेकिन एक तीसरा जेंडर भी इसी समाज का हिस्सा है जिसे सभ्य समाज हिकारत भरी नजरों से देखता है। किन्नर भी आम बच्चों की तरह ही इस दुनिया में आते हैं, लेकिन बीतते वक्त के साथ शारीरिक बदलाव उन्हें हम सब से अलग बनाते हैं। बता दें कि महेंद्र भीष्म करीब ढाई दशक से किन्नर समुदाय से जुड़े हैं और किन्नर समुदाय पर ‘किन्नर कथा’ और ‘मैं पायल’ नाम से दो किताबें भी लिख चुके हैं। वर्तमान में महेंद्र भीष्म इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ में रजिस्ट्रार पद पर कार्यरत हैं।
घर से शुरू हो जाती है जुल्म-ओ-सितम की कहानी
महेंद्र भीष्म कहते हैं कि जब घर में किन्नर बच्चा पैदा होता है तो मां-बाप भी मुंह मोड़ लेते हैं। बच्चे से मारपीट करते हैं। इज्जत पर आंच न आए, इसलिए बच्चे को किन्नर समुदाय को सौंप देते हैं। कुछ माता-पिता अपने बच्चे को पढ़ा-लिखाकर काबिल बनाना चाहते हैं, लेकिन समाज बच्चे को इतना मजबूर कर देता है कि वह 15-16 साल की उम्र में तंग आकर खुद ही घर छोड़ देता है। देश की पहली किन्नर न्यायाधीश जोइता मंडल और ब्यूटी क्वीन नाज जोशी की जिंदगी इसका जीता जागता उदाहरण है।
अधूरा शरीर, पूरा मन
वे लोग, जिनके रिप्रोडक्टिव ऑर्गन पूरी तरह विकसित न हुए हों। पुरुष शरीर लेकिन स्त्रियों सी छाती, चाल-ढाल और आवाज। स्त्री शरीर लेकिन मूंछ आना, छाती न बढ़ना, यूटरस न होना आदि। जन्मजात किन्नर मन से स्त्री होते हैं। वे महिलाओं के साथ रहने में सहज महसूस करते हैं। उन्हें औरतों की तरह सजना संवरना रास आता है। किन्नरों की चार शाखाएं होती हैं- बुचरा, नीलिमा, मनसा और हंसा। बुचरा जन्मजात किन्नर होते हैं। नीलिमा स्वयं बने, मनसा स्वेच्छा से शामिल होते हैं। वहीं हंसा शारीरिक कमी या नपुंसकता के कारण बने हिजड़े हैं।
सात घराने, हजारों गद्दियां
जब भी किसी घराने में नया किन्नर आता है तो उत्सव मनाया जाता है। दूसरे घरानों के गुरू और गद्दियों के प्रमुख आते हैं। खूब नाच गाना होता है। गुरू घराने में शामिल होने वाले किन्नर को नया नाम देते हैं। कपड़े, पैसे, गहने और गृहस्थी का कुछ सामान देते हैं। उसके बाद से किन्नर के लिए माता-पिता, पति और भाई-बहन और परिवार का मुखिया सब कुछ गुरू ही बन जाता है। किन्नर गुरू के नाम का सिंदूर लगाते हैं। करवाचौथ का व्रत भी रखते हैं। गुरू का परिवार के मुखिया की तरह सम्मान करते हैं।
घराने में शामिल करने के दौरान जो पुरुष शरीर के किन्नर होते हैं, उनका बधियाकरण (प्राइवेट पार्ट रिमूव करना) किया जाता है, जिसे शुद्धिकरण कहा जाता है
घरानों में दी जाती है भाषा, ताली, थाप और थिरकने की तालीम
दीक्षा मिलने के बाद घराने में किन्नरों की भाषा, नाच-गाना ताली और ढोलक बजाने की तालीम दी जाती है। फिर अनुभवी किन्नरों के साथ क्षेत्र में बधाई गाने भेज दिया जाता है। किन्नरों की जो कमाई होती है, उसमें से एक हिस्सा गद्दी या घराने को देना होता है।
कौन बनता है किन्नरों का गुरू?
घराने का गुरू पांच लोगों को वरीयता के आधार पर अपना उत्तराधिकारी घोषित करता है। गुरू के निधन के बाद इन पांच में से जो सबसे वरिष्ठ होता है, वह घराने का गुरू बनता है। किन्नर समुदाय के लिए गुरू की बात पत्थर की लकीर होती है।
हिजड़ों के कुछ नियम भी हैं
एक घराने ने अपने यहां निकाल दिया तो दूसरा घराना अपने यहां नहीं रख सकता है। अगर किसी दूसरे घराने का हिजड़ा पसंद आ जाए तो गुरू उसकी मुंह मांगी कीमत चुका कर ही अपने घराने में ला सकता है, बहला-फुसलाकर नहीं। किन्नर समाज की सारी गोपनीयता को गोपनीय रखने की शपथ भी निभानी होती है
अजीबोगरीब रिवाज है ‘बहनापा’
महेंद्र भीष्म के मुताबिक जब एक किन्नर दूसरी किन्नर से बहन का रिश्ता जोड़ती है तो दोनों एक-दूसरे को स्तनपान कराती हैं। इसका उम्र से कोई लेना-देना नहीं है। इस रिवाज को किन्नरों की भाषा में ‘बहनापा’ कहा जाता है।
एक दिन की शादी और फिर विधवा
महेंद्र भीष्म बताते हैं कि मैं ऐसे कई किन्नरों से मिला हूं, जिन्हें सामान्य पुरुषों से प्यार हो गया लेकिन एक-दो को छोड़कर ज्यादातर को प्यार में धोखा ही मिला है। लोग इनका इस्तेमाल करते हैं और छोड़ देते हैं। साथ देने और प्यार निभाने वाले लोग कम ही होते हैं।
किन्नर अपनी धार्मिक मान्यता के मुताबिक हर साल शादी करते हैं। तमिलनाडु के विल्लुपुरम जिले में कुनागम गांव है, जहां तमिल नववर्ष की पहली पूर्णमासी से 18 दिन का किन्नर विवाहोत्सव शुरू होता है। यहां देशभर से हजारों किन्नर जुटते हैं। उत्सव के 17वें दिन किन्नर अपने आराध्य देव अरावन की मूर्ति संग ब्याह रचाते हैं। यह शादी सिर्फ एक रात के लिए होती है।
18वें दिन अरावन देव का एक विशाल पुतला पूरे शहर में गाजे-बाजे के साथ घुमाया जाता है। अंत में पुतले का अंतिम संस्कार कर दिया जाता है। उसके बाद तमाम किन्नर विधवा होने का स्वांग रचते हैं। अपनी चूड़ियां तोड़ते हैं। सिंदूर मिटाते हैं और शोक मनाते हैं।’ इस परंपरा को साउथ और वेस्ट इंडिया वाले किन्नर बेहद गंभीरता से निभाते हैं।
अंतिम विदाई है पहेली
किन्नरों का अंतिम संस्कार अब भी एक पहेली बना हुआ है। इनके अंतिम संस्कार को लेकर तरह-तरह की धारणाएं बनी हुई हैं। साहित्यकार महेंद्र भीष्म कहते हैं कि जो किन्नर अपने परिवार से जुड़े हैं, उनका अंतिम संस्कार परिवार का ही कोई सदस्य अपनी धार्मिक रीति-रिवाज से कर देता है। वहीं जिसका कोई नहीं होता, उसका अंतिम संस्कार किन्नर ही करते हैं। दफनाया जाएगा, समाधि दी जाएगी या फिर दाह संस्कार होगा, यह किन्नर के धर्म के मुताबिक होता है।
किन्नर का मरने के बाद दाह संस्कार नहीं किया जाता है बल्कि दफनाया जाता है। दफनाते वक्त लिटाया नहीं जाता है, कब्र में खड़ा किया जाता है। दफनाने से पहले गुरू की ओर से चयनित पांच लोग अपनी आपबीती सुनाते हैं और मृतक की आत्मा को मुक्ति मिले, इसकी प्रार्थना करते हैं। उसके बाद दफनाते हैं।
दिल्ली के महरौली, गाजियाबाद समेत देश भर में किन्नरों के गिने-चुने शमशान घाट हैं। ज्यादातर जगहों पर इनके लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं है। ऐसे में किन्नर जहां रहते हैं, उसके आसपास ही शव को दफना देते हैं लेकिन अब मकान पक्के हैं तो किन्नरों के करीबी या फिर मुंहबोले चाचा, काका, भाई सूर्यास्त के बाद शव को शमशान में ले जाकर दफना देते हैं। शव यात्रा में बहुत कम लोग होते हैं, यहां तक कि सारे किन्नर भी शामिल नहीं होते हैं। चप्पल-जूते मारने, पीटते हुए श्मशान ले जाने और गालियां देने वाली बातों में सच्चाई न के बराबर है।
‘किन्नर’ और ‘हिजड़ा’ शब्द पर जंग
आमतौर पर हिजड़ों को किन्नर, छक्का, कोती, खोजवा, थिरुनानगाई, अरावनी, ख्वाजा सरा और कोज्जा जैसे शब्दों से जाना जाता है। कुछ लोग हिमाचल प्रदेश के किन्नोर जिले में रहने वाली जनजाति को ‘किन्नर’ या ‘किन्नौरा’ से जोड़ते हैं। 1956 में भारतीय संविधान की अनुसूची में भी इस जनजाति को शामिल किया गया है। यह जनजाति हिजड़ों को किन्नर कहे जाने पर विरोध जताती आई है। उनका कहना है कि हिजड़ों को किन्नर बुलाना किन्नर जनजाति का अपमान है।
सवालों के घेरे में किन्नरों की आबादी
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में करीब 48 लाख किन्नर हैं, जबकि वास्तविक में यह संख्या कहीं अधिक है। साल 2005 में इंडिया टुडे ने किन्नरों पर एक सर्वे कराया था, जिसके तहत दिल्ली में 2000 किन्नरों का मेडिकल चेकअप कराया गया। मेडिकल रिपोर्ट से पता चला कि 2000 में से सिर्फ 3 लोग ऐसे थे, जिन्हें किन्नर कहा जा सकता था। बाकी 1997 सिर्फ स्वभाव से किन्नर थे। यानी वे थे, जो छोटी-मोटी सर्जरी के बाद पूरी तरह ठीक हो सकते थे। इसके अलावा गे और लेसबियन भी इनमें शामिल थे।
महेंद्र भीष्म कहते हैं कि इस समुदाय में पैसा, नशा और व्यभिचार की भरमार है इसलिए जो लोग बेरोजगार हैं, समलैंगिक हैं, वे लोग भी स्त्री बनने के लिए सर्जरी करवा रहे हैं। महंगे-महंगे इंजेक्शन लगवाते हैं। इसलिए भी इनकी आबादी बढ़ गई है।
-एजेंसी