ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष, तिथि दशमी, हस्त नक्षत्र के दिन बिंदुसर के तट पर राजा भगीरथ का तप सफल हुआ। पृथ्वी पर गंगा अवतरित हुई। ”ग अव्ययं गमयति इति गंगा” अर्थात जो स्वर्ग ले जाये, वह गंगा है। पृथ्वी पर आते ही सबको सुखी, समृद्ध व शीतल कर दुखों से मुक्त करने के लिए सभी दिशाओं में विभक्त होकर सागर में जाकर पुनः जा मिलने को तत्पर एक विलक्षण अमृतप्रवाह! जो धारा अयोध्या के राजा सगर के शापित पुत्रों को पु़नर्जीवित करने राजा दिलीप के पुत्र, अंशुमान के पौत्र और श्रुत के पिता राजा भगीरथ के पीछे चली, वह भागीरथी के नाम से प्रतिष्ठित हुई। भगीरथ का संकल्प फलीभूत हुआ। कई सखियों के मिलन के बाद देवप्रयाग से नया अद्भुत नाम मिला – गंगा!
इसी गंगा नाम की प्रतिष्ठा को सामने रखकर मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि जैसी मां गंगा है, वैसी दुनिया में कोई और नहीं। यह दुनिया की एकमात्र ऐसी मां है, जिसे धरा पर उतारकर एक इंसान ने स्वयं को उसकी संतान कहलाने योग्य साबित किया। भारत में भी ऐसी कोई दूसरी नदी या मां हो, तो बताइये ?
मैं अक्सर सोचा करता हूं कि आखिर गंगा के ममत्व में कोई तो बात है, कि कांवरिये गंगा को अपने कंधों पर सवार कर वहां भी ले जाते हैं, जहां गंगा का कोई प्रवाह नहीं जाता। ”मैं तोहका सुमिरौं गंगा माई..” और ”गंगा मैया तोहका पियरी चढइबै..” जैसे गीत गंगा के मातृत्व के प्रति लोकास्था के गवाह हैं ही। ”अल्लाह मोरे अइहैं, मुहम्मद मोरे अइहैं। आगे गंगा थामली, यमुना हिलोरे लेयं। बीच मा खङी बीवी फातिमा, उम्मत बलैया लेय…….दूल्हा बने रसूल।” – इन पंक्तियों को पढ़कर भला कौन नकार सकता है कि गंगा के ममत्व का महत्व सिर्फ हिंदुओं के लिए नहीं, समूचे भारत के लिए है ?
गंगा का एक परिचय वराह पुराण में उल्लिखित शिव की उपपत्नी और स्कन्द कार्तिकेय की माता के रूप में है। दूसरा परिचय राजा शान्तनु की पत्नी और एक ऐसी मां के रूप में है, जिसने पूर्व कर्मों के कारण शापित अपने पुत्रों को तारने के लिए आठ में सात को जन्म देने के बाद तुरंत खुद ही मार दिया। पिता राजा शान्तनु के मोह और पूर्व जन्म के शाप के कारण जीवित बचे आठवें पुत्र को आज हम गंगादत्त, गांगेय, देवव्रत, भीष्म के नाम से जानते हैं। वाल्मीकिकृत गंगाष्टम्, स्कन्दपुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्मपुराण, अग्नि पुराण, भागवत पुराण, वेद, गंगा स्तुति, गंगा चालीसा, गंगा आरती और रामचरितमानस से लेकर जगन्नाथ की गंगालहरी तक…. मैने जहां भी खंगाला, गंगा का उल्लेख उन्ही गुणों के साथ मिला, वे सिर्फ एक मां में ही संभव हैं; किसी अन्य में नहीं। त्याग और ममत्व ! सिर्फ देना ही देना, लेने की कोई अपेक्षा नहीं। शायद इसीलिए मां को सबसे तीर्थों में सबसे बङा तीर्थ कहा गया है और गंगा को भी। भारत की चार पीठों में से एक – ज्योतिष्पीठ; त्रिपथगा गंगा की एक धारा के किनारे जोशीमठ में स्थित है।
संत रैदास, रामानुज, वल्लभाचार्य, रामानन्द, चैतन्य महाप्रभु.. सभी ने गंगा के मातृस्वरूप को ही प्रथम मान महिमागान गाये हैं। किंतु जब नई पीढ़ी के एक नौजवान ने मुझसे पूछा कि गंगा में ऐसा क्या है कि वह गंगा को मां कहे, तब उसके एक क्या ने मेरे मन में सैकङों क्यों खङे कर दिए। मेरे लिए यह जानना, समझना और समझाना जरूरी हो गया कि हमारी संतानें गंगा को मां क्यों कहे। जवाब मिला कि लहलहाते खेत, माल से लदे जहाज और मेले ही नहीं, बुद्ध-महावीर के विहार, अशोक-अकबर-हर्ष जैसे सम्राटों के गौरव पल.. तुलसी-कबीर-नानक की गुरुवाणी भी इसी गंगा की गोद में पुष्पित-पल्लवित हुई है। इसी गंगा के किनारे में तुलसी का रामचरित, आदिगुरु शंकराचार्य का गंगाष्टक और पांच श्लोकों में लिखा जीवन सार – मनीषा पंचगम, जगन्नाथ की गंगालहरी, कर्नाटक संगीत के स्थापना पुरुष मुत्तुस्वामी दीक्षित का राग झंझूती, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, टैगोर की गीतांजलि और प्रेमचंद्र के भीतर छिपकर बैठे उपन्यास सम्राट ने जन्म लिया। शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की शहनाई की तान यहीं परवान चढी। आचार्य वाग्भट्ट ने गंगा के किनारे बैठकर ही एक हकीम से तालीम पाई और आयुर्वेद की 12 शाखाओं के विकास किया। कौन नहीं जानता कि नरोरा के राजघाट पर महर्षि दयानन्द के चिन्तन ने समाज को एक नूतन आलोक दिया। नालन्दा, तक्षशिला, काशी, प्रयाग – अतीत के सिरमौर रहे चारों शिक्षा केन्द्र गंगामृत पीकर ही लंबे समय तक गौरवशाली बने रह सके। आर्यभारत के जमाने में आर्थिक और कालांतर में जैन तथा बौद्ध दोनो आस्थाओं के विकास का मुख्य केन्द्र रहा पाटलिपुत्र! भारतवर्ष के अतीत से लेकर वर्तमान तक एक ऐसा राष्ट्रीय आंदोलन नहीं, जिसे गंगा ने सिंचित न किया हो। भारत विभाजन का अगाध कष्ट समेटने महात्मा गांधी भी हुगली के नूतन नामकरण वाली मां गंगा-सागर संगम पर नोआखाली ही गये।
यह है गंगा का गंगत्व; भारतीय संतानों के लिए मां गंगा का योगदान। अब दूसरा चित्र देखिए और सोचिए कि गंगा आज भी सुमाता है किंतु क्या हम भारतीयों का व्यवहार मातृभक्त संतानों जैसा है ? सच यह है कि गरीब से गरीब भारतीय आज भी अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा खर्च कर गंगा दर्शन को आता है लेकिन गंगा का रुदन और कष्ट हमें दिखाई नहीं देता। गंगा के साथ मां का हमारा संबोधन झूठा है। हर हर गंगे की तान दिखावटी है; प्राणविहीन ! दरअसल हम भूल गये हैं कि एक संतान को मां से उतना ही लेने का हक है, जितना एक शिशु को अपने जीवन के लिए मां के स्तनों से दुग्धपान।
हम यह भी भूल गये हैं कि मां से संतान का संबंध लाड़, दुलार, स्नेह, सत्कार और संवेदनशील व्यवहार का होता है, व्यापार का नहीं किंतु हमारी चुनी सरकारें तो गंगा का व्यापार कर रही हैं। दूरसंचार मंत्रालय के पास गंगाजल बेचकर कमाने की जुगत करने वालों के साथ देने की योजना है। परिवहन मंत्रालय के पास गंगा में जल परिवहन शुरु करके कमाने की योजना है। पर्यटन मंत्रालय के पास ई-नौका और घाट सजाकर पर्यटकों को आकर्षित करने की भी योजना है। लेकिन ’नमामि गंगे’ के पास गंगा को लेकर कोई गंगा पुनरुद्धार की कोई घोषित नीति नहीं है। मल-अवयव व जल शोधन के कितने भी संयंत्र लगा लिए जायें, जब तक गंगा को उसका मौलिक प्रवाह नहीं मिलता, स्वयं को साफ करने की उसकी शक्ति उसे हासिल नहीं होगी। इस शक्ति को हासिल किए बिना गंगा की निर्मलता की कल्पना करना एक अधूरे सपने से अधिक कुछ नहीं। यह जानते हुए भी गंगा का मौलिक प्रवाह लौटाना, हमारी सरकारों की प्राथमिकता बनती दिखाई नहीं दे रही। शोधित-अशोधित किसी भी तरह का अवजल गंगा में न आये, मंत्रालय आज तक इस बाबत कोई लिखित आदेश जारी नहीं कर सका है।
प्रश्न यह है कि ऐसे उलट माहौल में हम क्या करें ? गंगा दशहरा का उत्सव मनायें, मां का शोकगीत गायें या फिर मां की समृद्धि के लिए मुट्ठी बांध खङे हो जायें ? संकल्पित हों अथवा अथवा बेबसी का बहाना बनाकर मां को मर जाने दें ? ये वे प्रश्न हैं, जिनके उत्तर की प्रतीक्षा हर उपेक्षित मां को अपनी संतानों से रहती है, मां गंगा को भी है।
लेखक: अरुण तिवारी
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