अपनी आध्यात्मिक उन्नति को समझने हेतु एक महत्त्वपूर्ण मापदंड यह है कि हमारे मन, बुद्धि तथा अहं का किस सीमा तक विलय हुआ है।
अपने जन्म से एक बात हम सभी देखते हैं कि हमारे अभिभावक, शिक्षक तथा हमारे मित्र हमारे पंचज्ञानेंद्रियों मन, तथा बुद्धि के संवर्धन में लगे रहते हैं । वर्त्तमान संसार में पंचज्ञानेंद्रिय, मन, तथा बुद्धि से संबंधित बातों जैसे बाह्य सौंदर्य, हमारा वेतन, हमारी मित्र-मंडली इत्यादि पर अत्यधिक बल दिया जाता है। हममें से अधिकांश को जीवन के किसी भी मोड पर नहीं बताया जाता कि, हमारे जीवन का उद्देश्य स्वयं से परे जाकर अपने अंतर में विद्यमान ईश्वर को ढूंढना है।
इसलिए जब हम साधना आरंभ करते हैं तब हमें पंचज्ञानेंद्रिय, मन, तथा बुद्धि पर ध्यान केंद्रित करने की आदत छोड़नी पड़ती है, उन संस्कारों को मिटाना पड़ता है। पंचज्ञानेंद्रियों मन तथा बुद्धि पर हमारी निर्भरता तथा संबंधित संस्कारों को क्षीण करने का एक महत्त्वपूर्ण साधन है– प्रार्थना।
प्रार्थना का कृत्य यही दर्शाता है कि व्यक्ति जिससे प्रार्थना कर रहा है, उसकी शक्ति को वह अपनी शक्ति से उच्च मानता है इसलिए प्रार्थना करने से व्यक्ति अपनी निर्बलता व्यक्त करता है तथा उच्च शक्ति की शरण जाकर उससे सहायता की विनती करता है।
यह अपने अहं को चोट देने समान है चूंकि प्रार्थना का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति अपने से उच्च मन तथा बुद्धिवाले से सहायता मांगता है। इस प्रकार पुनः-पुनः प्रार्थना करने से हम अपने सीमित मन तथा बुद्धि से निकलकर उच्चतर विश्वमन तथा विश्वबुद्धि से संपर्क कर पाते हैं। ऐसा करते रहने से कालांतर में हमारे मन तथा बुद्धि का लय होने में सहायता मिलती है।
इस प्रकार आध्यात्मिक प्रगति के लिए पुनः-पुनः तथा निष्ठापूर्ण प्रार्थना से मन, बुद्धि तथा अहं के लय में सहायता मिलती है।
-एजेंसी