आखिर ऐसा क्यों होता है ? क्यों हम अपने विचार नहीं बदल पाते जबकि नये तथ्य हमारे सामने हों

अन्तर्द्वन्द

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जेके गालब्रेथ ने एक बार कहा था कि अगर हमारे सामने कुछ ऐसे तथ्य हों जो हमारी स्थापित विचारधारा से अलग हों तो तथ्यों के बावजूद हमारी पहली कोशिश यह होती है कि हम अपने स्थापित विश्वासों को सही सिद्ध करने का प्रमाण ढूंढ़ने में जुट जाएं। यानी, हम तथ्य सामने होने पर भी आसानी से अपना मन बदलने के लिए तैयार नहीं होते। इसी बात को लियो टालस्टाय ने जरा और स्पष्ट शब्दों में कहा। उन्होंने बताया कि शोध से यह साबित हुआ है कि न्यूनतम बुद्धि वाले किसी व्यक्ति को भी सबसे कठिन बात समझाई जा सकती है बशर्ते कि उसने उस विषय पर पहले से कोई मत न बना रखा हो, लेकिन किसी ऐसे बुद्धिमान व्यक्ति को बिलकुल नहीं समझाया जा सकता यदि उसने उस विषय पर अपना मत पहले ही निर्धारित कर रखा हो। चाहे उसके सामने कितने ही तथ्य पेश किये जाएं, चाहे हमारे तर्क अकाट्य हों, पर हम ऐसे व्यक्ति के विचार नहीं बदल सकते जो किसी भी कारण से पूर्वाग्रह ग्रस्त है। ऐसे में व्यक्ति की विद्वता धरी की धरी रह जाती है। विचार नहीं बदलते, तथ्यों के बावजूद नहीं बदलते क्योंकि हमारा मस्तिष्क नये तथ्यों को स्वीकार ही नहीं करता।

आखिर ऐसा क्यों होता है ? क्यों हम अपने विचार नहीं बदल पाते जबकि नये तथ्य हमारे सामने हों ? हमारा स्थापित व्यवहार कैसे हमें प्रभावित करता है ? वस्तुत: हमारे अवचेतन मन की यह आवश्यकता है कि हम स्वयं को समाज से जुड़ा महसूस करें। हम सामाजिक जीव हैं, समाज में रहने वाले प्राणी हैं। इसका परिणाम यह है कि हमें समाज से जुड़ा रहने के लिए समाज द्वारा स्थापित मान्यताओं को स्वीकार करना होता है। बहुसंख्य समाज जिसे सही मानता है, हम उसे सही मानने लगते हैं और बहुसंख्य समाज जिसे गलत मानता है, हम भी उसे गलत मानना शुरू कर देते हैं। समाज से जुड़े रहना आवश्यक है। पुरातन काल से ही ऐसा चला आ रहा है। हमारे पूवर्ज समूह में रहते थे और समूह से अलग हो जाना या समूह से निष्कासित कर दिया जाना, मानो मृत्यु के समान था। आज भी हमारी वह प्रवृत्ति उसी तरह कायम है, और मानव स्वभाव की यह प्रवृत्ति पीढ़ी-दर-पीढ़ी हम अपनी अगल पीढ़ी को सौंप देते हैं।

किसी स्थिति के सच को समझना महत्वपूर्ण है पर हम इन्सानों को समाज से जुड़े रहना शायद उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है। अक्सर यह दोनों आवश्यकताएं पूरी हो ही जाती हैं पर कई बार ऐसा भी होता है जब दोनों में विरोधाभास हो, और यदि ऐसा हो तो हमारा मस्तिष्क पुरजोर कोशिश करता है कि वह अपने पुराने विश्वासों पर कायम रहे, नये तथ्य किसी तरह से झूठ सिद्ध हो जाएं, या हमारा मस्तिष्क यह मान लेता है कि नये तथ्य असल में तथ्य नहीं हैं या अधूरा सच हैं। इस तरह हम अपने विचार बदलने की जहमत से बच जाते हैं। हार्वर्ड मनोवैज्ञानिक पीटर पिंकर इसे यूं कहते हैं कि ज्यादातर मामलों में समाज के विश्वास हितकर होते हैं और उनके साथ चलने में हमारा जीवन सुखमय बना रहता है। पर कभी-कभार जब किसी विरोधाभास की स्थिति हो तो हम उस विश्वास को अपनाते हैं जिससे हम ज्यादा से ज्यादा लोगों के प्रिय बन सकें, उनका आदर और निष्ठा पा सकें, बजाए इसके कि हम नये सच को स्वीकार करें।

हम हर सच को इसलिए स्वीकार नहीं करते कि वह सच है, बल्कि बहुत बार हम किसी बात को इसलिए स्वीकार कर लेते हैं क्योंकि उससे हमारा समाज हमें अच्छा व्यक्ति मानता है। हमारा अवचेतन मन यदि यह समझे कि किसी विशेष व्यवहार को अपनाने से हमें समाज में सम्मान मिलता है तो हम बिना ज्यादा ज्यादा हिचक के उस व्यवहार को अपना लेते हैं और यह भी परवाह नहीं करते कि समाज ने उसे अच्छा क्यों माना या सच क्यों माना। सच की अपेक्षा, सामाजिक तौर पर पुराने या स्थापित विश्वास सुखकारी होते हैं और अगर हमें दोनों में से किसी एक को चुनना हो तो हम स्थापति विश्वास ही चुनना पसंद करते हैं क्योंकि हम अपने परिवार और मित्रों के साथ जुड़े रहना चाहते हैं।

यही कारण है कि हम अक्सर बड़ों की गलत बातों पर भी चुप्पी साध लेते हैं, क्योंकि बड़ों का आदर एक स्थापित परंपरा है और हम सबके सामने उनसे असहमत होकर उन्हें नीचा नहीं दिखाना चाहते, क्योंकि समाज यही सही मानता है कि हमें बड़ों की आज्ञा माननी चाहिए।

इसी मनोविज्ञान का दूसरा पहलू यह है कि किसी को अपने विचार बदलने को कहने का मतलब यह है कि वह अपना समाज भी बदल ले, अपने संगी-साथी भी बदल ले। उदाहरणस्वरूप यदि मैं किसी एक धर्म को लेकर कट्टर हूं तो मेरे प्रियजन, मेरे संगी-साथी, सब लगभग वैसे ही होंगे और अगर मैं स्वयं को प्रगतिशील मानता हूं तो मेरे ज्यादातर संगी-साथी भी ऐसे लोग होंगे जो स्वयं को प्रगतिशील मानते हैं। यानी, यदि मैं प्रगतिशीलता छोड़कर कट्टरपंथी होना चाहूं, या कट्टरपंथी छोड़कर प्रगतिशील बनना चाहूं तो मेरी मित्रमंडली ही बदल जाएगी। यह एक बड़ा कारण है, जो हमारे अवचेतन मन को हमारे पुराने विश्वास बदलने से रोकता है।

हमारे जीवन पर इसका प्रभाव बहुत गहरा होता है। एक ऐसा व्यक्ति जिससे हम अक्सर असहमत रहते हों, या ऐसा व्यक्ति जो हमें पसंद न हो, वह कोई ऐसा तथ्य हमारे सामने लेकर आये जो हमारे पुराने विश्वासों पर खरा न उतरता हो तो हम बिना किसी विश्लेषण के उस तथ्य को अस्वीकार कर देंगे, इसलिए नहीं कि वह तथ्य, तथ्य नहीं था, बल्कि इसलिए कि नया तथ्य बताने वाला वह व्यक्ति हमारे विचार में हमारे अनुरूप नहीं था। लेकिन वही तथ्य अगर कोई ऐसा व्यक्ति बताये जो हमें बहुत पसंद है तो हम अपना विचार बदलने में ज्यादा देर नहीं लगाते। यहां तक कि कोई ऐसा व्यक्ति जो हमारे लिए अनजान है, लेकिन हम उसे नापसंद नहीं करते तो उसके बताए किसी ऐसे तथ्य को हम स्वीकार कर सकते हैं जो हमारे स्थापित विश्वास से मेल न खाता हो। या हम कम से कम उस नये विचार के मंथन के लिए राज़ी हो जाते हैं।

इसका मतलब है कि हमारे रिश्तों में, हमारी पसंद-नापसंद पर निर्भर करता है कि हम किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा सामने लाये गये किसी नये तथ्य को स्वीकार करेंगे या नहीं करेंगे। इसे थोड़े और स्पष्ट शब्दों में कहें तो सच यह है कि तथ्य हमारे विचार नहीं बदलते, बल्कि किसी व्यक्ति पर हमारा विश्वास यह तय करता है कि हम अपने विचार बदलेंगे या नहीं। यानी, हमारे विचार बदलने में सच की भूमिका वैसी नहीं है जो भूमिका सामने वाले व्यक्ति के प्रति हमारे विश्वास की है। यानी, सच समझाना हो, विचार बदलवाने हों तो हमें पहले सामने वाले व्यक्ति का विश्वास जीतना होगा। विश्वास, विचार और सच का यह रिश्ता जाने बिना हम अक्सर यह नहीं समझ पाते कि सामने वाला व्यक्ति हमारे सच को स्वीकार क्यों नहीं कर पा रहा है, और हम अपनी बात समझाने का संघर्ष ही करते रह जाते हैं।

– पी. के. खुराना
हैपीनेस गुरू , मोटिवेशनल स्पीकर