मुस्‍लिम उपन्यासकार ख़ालिद जावेद ने क्यों कहा, हिंदू धर्म, पूरा का पूरा धर्म होने के साथ ही जीवन शैली

अन्तर्द्वन्द

2014 में लिखे गए अपने उपन्यास ‘नेमतखाना’ (द पैराडाइज आफ फूड) के लिए हाल ही में वर्ष 2022 के प्रतिष्ठित जेसीबी पुरस्कार से सम्मानित ख़ालिद जावेद ने ‘भाषा’ को दिए विशेष साक्षात्कार में यह बात कही।

अमीश त्रिपाठी, देवदत्त पटनायक जैसे लेखकों द्वारा हिंदू महाकाव्य रामायण और महाभारत के चरित्रों को आधार बनाकर उपन्यासों की रचना की पृष्ठभूमि में ख़ालिद जावेद से जब यह सवाल किया गया कि इस प्रकार के प्रयोग इस्लाम धर्म के साथ क्यों नहीं किए गए तो उनका कहना था, ‘‘हिंदू धर्म, पूरा का पूरा धर्म होने के साथ ही जीवन शैली भी है। हिंदू धर्म आचार संहिता नहीं है बल्कि वह एक संस्कृति है। भारतीय दर्शन और उसके सभी छह स्कूल पूरी तत्व मीमांसा और ज्ञान मीमांसा की सांस्कृतिक मूल के साथ व्याख्या करते हैं। इसके चलते हिंदू धर्म में लचीलापन है। उसमें चीजों को ग्रहण करने की बहुत बड़ी शक्ति हमेशा से मौजूद रही है।’’

उन्होंने आगे कहा, ‘‘हिंदू धर्म उस तरह का धर्म नहीं है जो कानूनी एतबार से चले। इसके भीतर मानवीय मूल्य, सांस्कृतिक तत्वों के साथ मिलकर सामने आते हैं। ऐसी जगह पर कहानी कहने के लिए ज़मीन पहले से मौजूद होती है। ’’

जामिया मिल्लिया इस्लामिया में प्रोफेसर ख़ालिद जावेद कहते हैं, ‘‘इस्लाम में आचार संहिता बहुत ज्यादा है । कुछ नियम बनाए गए हैं । सांस्कृतिक तत्व बहुत कम नजर आते हैं। इस्लाम में मेले ठेले, अगर ईद को छोड़ दें तो सांस्कृतिक परिदृश्य बहुत कम नजर आएगा। एक खास तरह से कुछ नियमों के ऊपर आपको चलना है।’’

वह कहते हैं, ‘‘इस्लाम के अपने खास नियम हैं। उन्हें तोड़ना बहुत मुश्किल है। वहां कहानी कहने के लिए जमीन ही नहीं है। उसके चरित्र ही इस तरह के नहीं हैं जिसके भीतर एक किरदार बनने की संभावनाएं पाई जाती हों। इस्लाम के चरित्र इतने ठोस हैं कि उनमें इस तरह का कहानी का चरित्र बनने के लिए, कल्पनाशीलता के लिए गुंजाइश बहुत कम है।’’

‘एक खंजर पानी में’,‘आखिरी दावत’, ‘मौत की किताब’, और ‘नेमतखाना’ के लेखक ख़ालिद जावेद विभिन्न पुरस्कारों से नवाजे जा चुके हैं और न केवल भारत बल्कि पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में बड़े चाव से पढ़े जाते हैं ।

सोशल मीडिया के जमाने में साहित्य पर मंडराते खतरों के संबंध में ख़ालिद जावेद ने कहा, ‘‘लॉकडाउन में साहित्यिक वेबसाइटों में इजाफा हुआ, सब कुछ ऑनलाइन था तो साहित्य भी। लेकिन प्रिंट मीडिया की दीर्घकालिक संदीजगी ज्यादा होती है। ऑनलाइन में तथाकथित स्वतंत्रता के चलते गुणवत्ता प्रभावित होती है। ’’

एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, ‘‘अदब (साहित्य) का गंभीर सौंदर्य शास्त्र होता है। आज के पाठक को अगर कोई लेखक या रचना समझ नहीं आती है तो इसकी वजह ये है कि पाठक की ग्रूमिंग ठीक से नहीं हो रही है। आवामी अदब (लोकप्रिय साहित्य), संजीदा अदब (गंभीर साहित्य) से अलग है। हमारे ज़माने में अदब का काम किसी पाठक की तरबीयत (प्रशिक्षण) करना था। ठीक है, आज पाठक अगर गुलशन नंदा पढ़ रहा है तो धीरे धीरे उसकी ऐसी ट्रेनिंग होती थी कि इन्हीं पाठकों ने आगे चलकर कुर्रतुल एन हैदर को पढ़ा, मंटो को पढ़ा, बेदी को पढ़ा, यशपाल को पढ़ा, मुक्तिबोध और निर्मल वर्मा को पढ़ा। अब ये प्रशिक्षण खत्म हो गया है। लोकप्रिय चीजें अंतरदृष्टि पैदा नहीं करती हैं, तात्कालिक खुशी देती हैं। गंभीर साहित्य आपको अंतरदृष्टि प्रदान करता है।’’

ख़ालिद जावेद ने आगे कहा, ‘‘इसीलिए गंभीर साहित्य को सबसे बड़ा खतरा पत्रकारिय लेखन से है। अदब के नाम पर, साहित्य के नाम पर रिपोर्टिंग कर दी जाती है, और फिर उस रिपोर्टिंग को उपन्यास बना दिया जाता है। सामाजिक यथार्थ को ठीक वैसे का वैसा ही पेश कर दिया जाता है। साहित्य की राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक चिंताएं होती हैं लेकिन इन्हें प्लेट में रखकर अखबार वालों की तरह पेश नहीं किया जाता। इसी से असल साहित्य को लगातार खतरा बना हुआ है। ये पिछले बीस पच्चीस साल से हो रहा है। उर्दू साहित्य का सूरते हाल भी यही है।”

उर्दू साहित्य में गंभीर लेखन संबंधी एक सवाल पर वह कहते हैं, ‘‘प्रेमचंद हिंदी और उर्दू अदब के बाबा आदम हैं। इसी ज़बान में मंटो हैं, किसी और ज़बान ने कोई दूसरा मंटो पैदा नहीं किया। राजेन्द्र बेदी हैं, कृष्ण चंदर हैं, इंतजार हुसैन हैं। ये उर्दू साहित्य की एक पूरी समृद्ध विरासत है। लेकिन आज पूरे साहित्यिक परिदृश्य पर बुरा वक्त है। उर्दू साहित्य भी उससे अछूता नहीं है। ऐसा लिखा जा रहा है जो बहुत जल्दी से समझ में आ जाए। जो बहुत जल्द समझ में आ जाए, उसे इंसान को शक की नजर से देखना चाहिए।’’

अपने लेखन में इंसान की अस्तित्ववादी उलझनों से अधिक सरोकार रखने वाले जावेद अपने नए उपन्यास के बारे में पूछे जाने पर कहते हैं,‘‘अभी तो किसी विषय ने मुझे नहीं चुना है। एक उपन्यास अभी खत्म किया है, बड़ा उपन्यास है। साढ़े चार सौ पन्नों का- उसका शीर्षक है ‘अर्थलान और बैजाद’। यह स्वप्न, भ्रम, वास्तविकता के बीच की सरहदों को तोड़ता है। इतिहास, तारीख से बहस करता है। तारीख जो ख्वाब देखकर भूल गई है, ये उन सपनों तक पहुंचने की कोशिश है।’’

Compiled: up18 News