मेढक मंदिर: मंडूक तंत्र और श्रीयंत्र के आधार पर निर्मित देश का अकेला और अनोखा मंदिर

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सम्पूर्ण भारत वर्ष मे एक मात्र तांत्रिक विद्या के मंडूक तंत्र पर आधारित इस मंदिर का निर्माण 1860 के आस पास ओयल स्टेट के राजा बख्श सिंह ने करवाया गया था. इसी कारण मंदिर के निर्माण मे सबसे पहले मेढ़क की विशालकाय आकृति बनाई गई. इसके बाद इसी मेढ़क की पीठ पर लगभग चार मंजिल की ऊंचाई पर नर्मदेश्वर से लाया गया दिव्य शिवलिंग अष्टकोणीय कमल के भीतर स्थापित है.

इस मंदिर से जुड़ा एक और अनोखा आकर्षण है यहां बनी भूलभुलय्या। हालांकि अब इस भूलभुलय्या में जाना वर्जित है। मंदिर कक्ष के भीतर ही एक द्वार बना हुआ है। इस द्वार पर हमेशा ताला लटका रहता है और किसी को भी इसके भीतर जाने की इजाजत नहीं। बताया जाता है कि पुराने समय में इसका प्रयोग युद्ध के समय राजा अपने परिवार के साथ सुरक्षित बाहर निकलने के लिए इस्तेमाल करते थे। इस भूलभुलैया में कई द्वार हैं लेकिन केवल एक ही द्वार सही दिशा में ले जाता है। बाकी द्वार से गुजरने पर लोग अंधेरे कुएं में गिर जाते हैं। खतरनाक होने की वजह से इस द्वार को बंद ही रखा जाता है।

यहीं ऊपर शिव दरबार के बाहर एक कुंआ भी है. भक्तगण इसी कुएं से जल भरकर इतनी ऊंचाई पर स्थित शिवलिंग पर जल अर्पित करते हैं जो मेढ़क के मुंह से बाहर आता है. इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहां स्थापित शिवलिंग दिनभर मे तीन रंग बदलता है. प्रात:, अपरान्ह व सायं काल मे शिवलिंग के बदले हुए रंग देखे जा सकते हैं.

इसी मंदिर के शिखर पर लगभग 22 किलो वजनी सोने से निर्मित एक चक्र स्थापित है जो सूर्य की दिशा के अनुसार घूमता रहता था तथा इसकी छाया मंदिर के बाहर स्थित प्रांगण मे पड़ती थी जिससे समय का अनुमान लगाया जाता था, अब यह चक्र आधा टूट चुका है.

वैसे तो वर्ष भर यहां भक्तो का तांता लगा रहता है लेकिन श्रावण मास मे शिवभक्तों की संख्या में यहां काफी इजाफा हो जाता है. इस मंदिर के दर्शनार्थ दूर दराज से पर्यटक तथा श्रद्धालु यहां आकर शिव कृपा प्राप्त करते रहते हैं.

तंत्र साधना जितनी रहस्यमयी व अनोखी होती है, ओयल का शिव मंदिर भी अपने आप में उतना ही अनूठा है. खास यह कि मंदिर पत्थर के विशाल मेंढक की पीठ पर बना है. मंदिर का आधार भाग अष्टदल कमल के आकार का है. इसी कारण यह मंडूक तंत्र और श्रीयंत्र पर आधारित कहा जाता है. 19वीं सदी के आरंभ में यहां के शासक व चाहमान वंश के तत्कालीन राजा बख्त सिंह ने बाढ़-अकाल जैसी आपदाओं से बचाव की कामना से इस मंदिर का निर्माण कराया था. दीपावली और महाशिवरात्रि पर यहां पूजन के लिए बड़ी संख्या में लोग आते हैं. परंपरानुसार यहां पहला पूजन कैमहरा रियासत के उत्तराधिकारी ही करते हैं.

लखीमपुर शहर से करीब 12 किलोमीटर दूर स्थित ओयल कस्बा प्राचीन काल में धार्मिक परिक्षेत्र नैमिषारण्य का हिस्सा हुआ करता था. यह शैव संप्रदाय और शिव उपासना का प्रमुख केंद्र था. तब यह कस्बा अपनी कला, संस्कृति और समृद्धि के लिए भी प्रसिद्ध था. रियासत काल में ओयल के शासक भगवान शिव के उपासक थे. मंदिर की वास्तु परिकल्पना कपिला के एक महान तांत्रिक ने की थी. तंत्र पर आधारित यह मंदिर अपनी विशेष वास्तु शैली के कारण ही प्रसिद्ध है.

मंदिर पत्थर के जिस मेंढक पर बना है, उसकी लंबाई 38 मीटर और चौड़ाई 25 मीटर है. मेंढक का मुंह तथा अगले दो पैर उत्तर की दिशा में हैं. इसका मुंह दो मीटर लंबा, डेढ़ मीटर चौड़ा तथा एक मीटर ऊंचा है. इसके पीछे का भाग दो मीटर लंबा तथा 1.5 मीटर चौड़ा है. पिछला पैर दक्षिण दिशा में दिखाई देते हैं. उभरी गोलाकार आंखें तथा मुख का भाग जीवंत प्रतीत होता है. मेंढक के शरीर का आगे का भाग उठा हुआ तथा पीछे का दबा हुआ है जो किसी मेंढक के बैठने की स्वाभविक मुद्रा है.

शिव मंदिर के पुजारी शांति स्वरूप तिवारी ने बताया कि तांत्रिक संरचनाओं में अष्टदल कमल का बड़ा महत्व है. इस मंदिर का आधार भाग अष्टदल कमल जैसा बनाया गया है. यह आधार श्रीयंत्र का निर्माण करता है. मंदिर का मुख्य द्वार पूर्व की ओर और दूसरा द्वार दक्षिण की ओर है. मंदिर में काले-स्लेटी पाषाण का दिव्य शिवलिंग है. यह सफेद संगमरमर की एक मीटर ऊंचे और 0.7 मीटर व्यास की दीर्घा में बने गर्भगृह के मध्य स्थित है. शिवलिंग को भी कमल के फूल पर अवस्थित किया गया है.

नंदी की प्रतिमा है खड़ी मुद्रा में

मंदिर में उत्तर-पूर्व कोने पर भगवान शिव की ओर मुंह किए सफेद संगमरमर की भव्य नंदी प्रतिमा स्थापित की गई है. यह संभवत: तंत्र साधना के लिए महत्वपूर्ण है. आम तौर से शिव मंदिरों में नंदी की मूर्ति बैठी अवस्था में मिलती है. यहां नंदी की प्रतिमा खड़ी अवस्था में है, जैसे कहीं जाने के लिए तत्पर हो. बस, भगवान के आदेश की प्रतीक्षा है. मंदिर के अंदर से सुरंग है, जो बाहर परिसर में पश्चिम की ओर खुलता है. माना जाता है कि इससे राजपरिवार के लोग पूजा करने आते रहे होंगे.

विशाल परिसर में जिसके मध्य यह मंदिर निर्मित है, लगभग 100 मीटर का वर्गाकार है. मंदिर का निर्माण पांच मीटर ऊंचे वर्गाकार जगती पर किया गया है. ऊपर जाने के लिए चारों तरफ सीढ़ियां बनी हैं. मंदिर का गर्भगृह चतुष्कोणीय है. इसका निर्माण ईंटों और चूने के गारे से हुआ है. बाहरी दीवारों पर देवी-देवताओं, संतों और योगियों की विभिन्न मुद्राओं में मूर्तियां हैं. शिखर गुम्बदाकार है. मंदिर के चारो कोनों पर चार अष्टकोणीय छोटे मंदिर बने हैं. इनमें देव मूर्ति स्थापित नहीं है. मंदिर का भीतरी भाग दांतेदार मेहराबों, पद्म पंखुड़ियों, पुष्पपत्र अलंकरणों से चित्रांकित है. इनके विशालकाय ताखों में तांत्रिक क्रियारत मूर्तियां हैं. मंदिर की जगती पर पूर्व की ओर लगभग 2 फुट व्यास का कुआं है. इसका जलस्तर भूतल के समानांतर प्रतीत होता है.

-एजेंसी