भारत धर्म, आध्यात्म और चमत्कारों को मानने वाला देश है. कुछ चमत्कारों को विज्ञान की कसौटियों पर भी परखा गया तो कुछ को अनुभवों के आधार पर सभी ने मान लिया. देश में नागा साधु-साध्वियों को पूजने वाले लोग हैं तो अघोरियों और तांत्रिकों के अनुयायियों की तादाद भी कम नहीं है. हालांकि अघोरियों की क्रियाएं, साधना के तरीके और उनके मंदिरों को लेकर कई बातें आज भी रहस्य ही बनी हुई हैं.
अघोरी साधकों, साधुओं और भक्तों का ऐसा ही एक मंदिर उत्तर प्रदेश के वाराणसी में शिवाला मोहल्ले में है. इस मंदिर परिसर में मौजूद क्रीं कुंड को लेकर कई मान्याताएं प्रचलित हैं. बताया जाता है कि यहां मौजूद आग्नेय रुद्र की अखंड धूनी 400 साल से लगातार प्रज्ज्वलित है.
बनारस के शिवाला मोहल्ले में स्थित क्रीं कुंड का मुख्य द्वार रविंद्रपुरी कॉलोनी रोड की तरफ है. ये अघोर पीठ बाबा कीनाराम स्थल के नाम से प्रसिद्ध है. विद्वानों के मुताबिक, कुछ ग्रंथों में भी इसकी खासियतों के बारे में जिक्र किया गया है. इसे धार्मिक नजरिये से बहुत ही पवित्र क्षेत्र माना जाता है. स्थल के दक्षिणी भाग में पहले एक बड़ा बेल का पेड़ भी था. इसलिए इये बेलवरिया के नाम से भी पहचाना जाता था. यहां मां हिंगलाज के नाम पर ‘हिंग्बा ताल’ था.
वाराणसी के डॉ. श्रीधर ओझा ने बताया कि इसी ताल के बीच में मां हिंगलाज के बीज मंत्र पर आधारित क्रीं कुड है. इसी कुंड के बीच में अघोर पीठ बाबा कीनाराम स्थल है. ये सभी नाम पुराने समय के भू-अभिलेखों में भी दर्ज हैं.
मुख्य द्वार बताता है ब्रह्मा, विष्णु, महेश में नहीं है अंतर
मुख्य द्वार के दोनों स्तंभों पर तीन मुंड बने हुए हैं. विद्वानों के मुताबिक इनका मतलब है कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश में कोई अंतर नहीं है. वहीं, मुख्य द्वार के ऊपर दो कपाल मुंड हैं. इसे मोक्ष द्वार भी कहा जाता है. विद्वानों का मत है कि मुख्य द्वार क्रियाकर्म नहीं, बल्कि प्राण वायु के स्तंभन का प्रतीक है. दरअसल, कपाल क्रिया के बाद ही प्राण वायु को मुक्ति मिलती है. मुख्य द्वार इसी का प्रतीक है.
चार सदी से प्रज्ज्वलित अखंड धूनि परिसर के पश्चिमी भाग में है. ये धूनि श्मशान की लकड़ियों से प्रज्ज्वलित होने के कारण अग्नेय रुद्र का स्वरूप बताई जाती है. डॉ. श्रीधर ओझा ने बताया कि मंदिर परिसर में बाबा कीनाराम की प्रतिमा और तख्त के अलावा भगवान शिव का मंदिर भी है. साथ ही माता काली की प्रतिमा भी यहां है.
तांत्रिक पीठ में कौन-कौन सी साधानाएं करते हैं?
डॉ. श्रीधर ओझा ने बताया कि अब वहां ज्यादा तांत्रिक साधनाएं करने नहीं आते हैं. लेकिन कुछ समय पहले वहां देश के दूरदराज इलाकों से भी लोग अघोरी और तांत्रिक साधनाएं करने में अघोर पीठ बाबा कीनाराम स्थल पहुंचते थे. उनके मुताबिक, तांत्रिक यहां शव साधाना भी करते थे. इसके अलावा साधक भगवान शिव, मां काली और माता दिन्नमस्ता की साधना करने भी यहां पहुंचते थे. उन्होंने बताया कि अघोरी साधक भगवान शिव के स्वरूप भगवान दत्तात्रेय के उपासक होते हैं. कहा जाता है कि बाबा कीनाराम ने स्वयं भगवान दत्तात्रेय से ही दीक्षा ली थी.
कौन थे बाबा कीनाराम, कैसे बने संन्यासी?
बाबा कीनाराम को भगवान शिव का अवतार माना जाता है. उनका जन्म बनारस की चंदौली तहसील के रामगढ़ गांव में क्षत्रिय रघुवंशी परिवार में विक्रमी संवत् 1658 में हुआ था. बताया जाता है कि उनके जन्म के समय उनके पिता अकबर सिंह की उम्र 60 वर्ष थी. बच्चे की लंबी आयु के लिए उनके परिवार ने उन्हें किसी दूसरे परिवार को देकर फिर खरीदा था. इसलिए उनका कीना यानी खरीदा हुआ रखा गया. उनकी शादी 12 साल की उम्र में ही कर दी गई थी, लेकिन गौना के दिन ही इनकी पत्नी का निधन हो गया. कुछ समय बाद इनके माता-पिता का भी देहांत हो गया. इसके बाद वह वैरागी हो गए. सबसे पहले वह साधु शिवादास के पास गए.
जिनके पैर छूती थीं गंगा, दत्तात्रेय से हुई मुलाकात
बाबा शिवादास ने एकदिन देखा कि जब कीनाराम स्नान के लिए घाट पर जाते तो गंगाजी उनके पैर छूने के लिए आगे बढ़ जाती थीं. बाबा कीनाराम के चमत्कारों को लेकर बनारस और आसपास के इलाकों में कई कहानियां प्रचलित हैं. उनकी गिरनार में अघोर मत के प्रवर्तक भगवान दत्तात्रेय से मुलाकात हुई. भगवान दत्तात्रेय से दीक्षा लेने के बाद वह गुरु की आज्ञा से काशी में बाबा कालूराम के पास पहुंचे. यहां उन्होंने बाबा कालूराम को ऐसा चमत्कार दिखाया कि वह बाबा कीनाराम के चरणों में गिर पड़े. इसके बाद उन्होंने अपने गुरु दत्तात्रेय का दिया हुआ सोटा बाबा कीनाराम को सौंप दिया.
बाबा कीनाराम कैसे पहुंचे क्रीं कुंड?
बाबा कीनाराम ने मौजूदा पाकिस्तान के कराची से काफी दूर मौजूद हिंगलाज देवी के गुफा मंदिर में भी काफी समय आराधना की. कहा जाता है कि एक दिन बाबा कीनाराम ने देवी के असली स्वरूप को देखने की जिद पकड़ ली. देवी ने अपने वास्तविक स्वरूप में उनके सामने आकर कहा कि मैं ही हिंगला देवी हूं. अब मैं यहां से क्रीं कुंड जाऊंगी. तुम भी वहीं पहुंचो. इसके बाद बाबा कीनाराम बनारस आकर क्रीं कुंड पहुंच गए. बाबा कीनाराम शैव, वैष्णव और अघोर संप्रदायों में दीक्षित होने के कारण तीनों को एकसाथ लाने में सफल रहे.
क्रीं कुंड का क्या है रहस्य, क्यों जुटते हैं लोग?
क्रीं कुंड परिसर में ही पंथ की प्रधान गद्दी बाबा कीनाराम ने ही स्थापित की थी. यहां हर साल भाद्रपद में लोलार्क छठ का मेला लगता है. डॉ. श्रीधर ओझा के मुताबिक, मान्यता है कि क्रीं कुंड में पांच दिन नहाने से त्वचा से जुड़े सभी रोग ठीक हो जाते हैं. यहां हर रविवार और मंगलवार को क्रीं कुंड पर स्नान करने वालों की भीड़ जुटती है. लोगों को स्नान के बाद अपने कपड़े वहीं छोड़कर जाने पड़ते हैं. कहा जाता है कि बाबा कीनाराम ने साल 1772 में शरीर छोड़ दिया. उनके जन्मोत्सव पर हर साल तीन दिन का समारोह होता है. इस दौरान यहां आने वालों के लिए निशुल्क रहने और खाने का इंतजाम किया जाता है. बाबा कीनाराम गरीब, दुखियों, रोगियों और बहिष्कृत लोगों की सेवा को अपना कर्तव्य मानते थे. आज भी यहां लोग बिना देहज लिए शादी करते हैं.
कुंड में स्नान से होती है संतान प्राप्ति?
यहां भाद्रपद शुक्ल पक्ष की षष्टी तिथि को लोलार्क छठ का पर्व मनाया जाता है. काशी में इस दिन माताएं संतान प्राप्ति की कामना से कुंड में स्नान करती हैं. मान्यता है कि यहां स्नान करने वाले पति-पत्नी को निश्चित ही संतान की प्राप्ति होती है. वाराणसी के विद्वान स्वामी कन्हैया महाराज ने बताया कि जिन विवाहित महिलाओं की गोद सूनी होती है, उन दंपति को लोलार्क छठ के दिन कुंड में तीन बार डुबकी लगानी चाहिए. कुंड में स्नान के बाद दंपति को एक फल का दान कुंड में करना चाहिए. इस दौरान दंपति को अपने भीगे कपड़े यहीं छोड़ देना चाहिए. स्नान के दौरान दंपति ने जिस फल का दान कुंड में किया है, संतान प्राप्ति तक उस फल का सेवन नहीं करना चाहिए.
Compiled: up18 News