भारतीय खगोलशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है सूर्य सिद्धान्त

Religion/ Spirituality/ Culture

सूर्य सिद्धान्त भारतीय खगोलशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। कई सिद्धान्त-ग्रन्थों के समूह का नाम है। वर्तमान समय में उपलब्ध ग्रन्थ मध्ययुग में रचित ग्रन्थ लगता है किन्तु अवश्य ही यह ग्रन्थ पुराने संस्क्रणों पर आधारित है जो ६ठी शताब्दी के आरम्भिक चरण में रचित हुए माने जाते हैं।

भारतीय गणितज्ञों और खगोलशास्त्रियों ने इसका सन्दर्भ भी लिया है, जैसे आर्यभट्ट और वाराहमिहिर, आदि. वाराहमिहिर ने अपने पंचसिद्धांतिका में चार अन्य टीकाओं सहित इसका उल्लेख किया है, जो हैं:

पैतामाह सिद्धान्त, (जो कि परम्परागत वेदांग ज्योतिष से अधिक समान है),
पौलिष सिद्धान्त
रोमक सिद्धान्त (जो यूनानी खगोलशास्त्र के समान है), और
वशिष्ठ सिद्धान्त

सूर्य सिद्धान्त नामक वर्णित कार्य, कई बार ढाला गया है। इसके प्राचीनतम उल्लेख बौद्ध काल (तीसरी शताब्दी, ई.पू) के मिलते हैं। वह कार्य, संरक्षित करके और सम्पादित किया हुआ (बर्गस द्वारा १८५८ में) मध्य काल को संकेत करता है। वाराहमिहिर का दसवीं शताब्दी के एक टीकाकार, ने सूर्य सिद्धांत से छः श्लोकों का उद्धरण किया है, जिनमें से एक भी अब इस सिद्धांत में नहीं मिलता है। वर्तमान सूर्य सिद्धांत को तब वाराहमिहिर को उपलब्ध उपलब्ध पाठ्य का सीधा वंशज माना जा सकता है।

इस लेख में बर्गस द्वारा सम्पादित किया गया संस्करण ही मिल पायेगा. गुप्त काल के जो साक्ष्य हैं, उन्हें पठन करने हेतु देखें पंचसिद्धांतिका।

इसमें वे नियम दिये गये हैं, जिनके द्वारा ब्रह्माण्डीय पिण्डों की गति को उनकी वास्तविक स्थिति सहित जाना जा सकता है। यह विभिन्न तारों की स्थितियां, चांद्रीय नक्षत्रों के सिवाय; की स्थिति का भी ज्ञान कराता है। इसके द्वारा सूर्य ग्रहण का आकलन भी किया जा सकता है।

पृथ्वी गोल है

सर्वत्रैव महीगोले स्वस्थानम् उपरि स्थितम् ।
मन्यन्ते खे यतो गोलस् तस्य क्वोर्धवम् क्व वाधः ॥ (सूर्य सिद्धान्त १२.५३)
अनुवाद : (अनुवादक: स्कॉट एल मॉण्टगोमरी, आलोक कुमार) इस गोलाकार धरती पर लोग अपने स्थान को सबसे ऊपर मानते हैं। किन्तु यह गोला तो आकाश में स्थित है, उसका उर्ध्व (ऊपर) क्या और नीचे क्या?

ग्रहों के व्यास

सूर्य सिद्धान्त में ग्रहों के व्यास की गणना भी की गयी है। बुध का व्यास ३००८ मील दिया गया है जो आधुनिक स्वीकृत मान (३०३२ मील्) से केवल १% कम है। इसके अलावा शनि, मंगल, शुक्र और बृहस्पति के व्यास की गणना भी की गयी है। शनि का व्यास ७३८८२ मील बताया गया है जो केवल १% अशुद्ध है। मंगल का व्यास ३७७२ मील बताया गया है जो लगभग ११% अशुद्ध है। शुक्र का व्यास ४०११ मील तथा बृहस्पति का व्यास ४१६२४ मील बताया गया है जो वर्तमान स्वीकृत मानों के लगभग आधे हैं।

त्रिकोणमिति

सूर्यसिद्धान्त आधुनिक त्रिकोणमिति का मूल है। सूर्यसिद्धान्त में वर्णित ज्या और कोटिज्या फलनों से ही आधुनिक साइन (sine) और कोसाइन (cosine) नाम व्युत्पन्न हुए हैं ( जो भारत से अरब-जगत होते हुए यूरोप पहुँचे)। इतना ही नहीं, सूर्यसिद्धान्त के तृतीय अध्याय (त्रिप्रश्नाधिकारः) में ही सबसे पहले स्पर्शज्या (tangent) और व्युकोज्या (secant) का प्रयोग हुआ है। निम्नलिखित श्लोकों में शंकुक द्वारा निर्मित छाया का वर्णन करते हुए इनका उपयोग हुआ है-

शेषम् नताम्शाः सूर्यस्य तद्बाहुज्या च कोटिज्या।
शंकुमानांगुलाभ्यस्ते भुजत्रिज्ये यथाक्रमम् ॥ ३.२१ ॥
कोटिज्यया विभज्याप्ते छायाकर्णाव् अहर्दले।
क्रान्तिज्या विषुवत्कर्णगुणाप्ता शंकुजीवया ॥ ३.२२ ॥

curtsey: Wikipedia