आगरा: शहर में जगह-जगह निकला ताजिये का जुलूस

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आगरा: कोरोना संक्रमण के लगभग 2 साल बाद आज मोहर्रम के त्यौहार पर ताजिये का जुलूस निकला। शहर भर में तजियेदार अपने-अपने ताजिए को लेकर जुलूस में शामिल हुए और ताजियों को करबला में सुपुर्द ए खाक किया। सबसे पहले इमामबाड़े से ताजिए का जुलूस निकाला गया। जो विभिन्न रास्तों से होते हुए कर्बला पहुँचा। यहां पर फूलों का ताजिया रखा जाता है। शहर में सबसे पहले फूलों का ताजिया ही निकाला जाता है।

फूलों का ताजिया

सोमवार की शाम को पाय चौकी स्थित इमामबाड़े में ऐतिहासिक फूलों के ताजिए पर अकीदतमंद आए। उन्होंने मन्नतों को पूरा करने के लिए दुआएं मांगी, सभी धर्म के लोगों ने इमाम हुसैन और उनके साथियों को खिराज ए अकीदत प्रस्तुत की।

सुबह लगभग 10 बजे ऐतिहासिक ताजिए का जुलूस निकलना शुरू हुआ जो विभिन्न रास्तों से होते हुए सुल्तानगंज की पुलिया के समीप कर्बला में पहुँचा। इस ताजिए के पीछे विभिन्न मोहल्लों के ताजिया चले। पाय चौकी से शुरू हुए जुलूस में बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए और फूलाें के ताजिए लेकर चल रहे थे।

ताजगंज क्षेत्र में भी बड़े हर्षोल्लास के साथ ताजिए निकाले गए। यहां पर ताबूत के रूप में भी ताजिए निकाले जाते हैं। ताबूत के रूप में ताजिए निकालने की यहां पर पुरानी परंपरा है। बताया जाता है कि लंबे वाले ताजिए और ताबूत वाले ताजियों में कोई अंतर नहीं होता है। दोनों ही ताजिये इमाम हुसैन की शहादत की याद में बनाए जाते हैं। लंबे वाले और ताबूत वाले ताजिये में अंतर यह होता है कि ताबूत वाले ताजिए उस रूप में होते हैं जैसे किसी व्यक्ति की मिट्टी को ले जाया जाता है।

ताबूत वाला ताजिया

ताजगंज थाना क्षेत्र के पास ताजिया का जुलूस निकलने के दौरान पुलिस प्रशासन भी चप्पे-चप्पे पर नजर आया। एक तरफ लंबी ऊंचाइयों वाले ताजिए तो दूसरी ओर ताबूत वाले ताजिए निकाले जा रहे थे। कोई विवाद ना हो इसके लिए पुलिस प्रशासन सतर्क और चौकन्ना नजर आया।

कोरोना संक्रमण के 2 साल बाद निकल रहे ताजिए का जुलूस शांति और सद्भाव के साथ निकले इसको लेकर मुस्लिम समाज के वृद्धजन और सामाजिक नेता भी जुलूस में शामिल हुए। वे युवाओं को शांति और सद्भाव के साथ जुलूस निकालने की हिदायत देते रहे। इस दौरान मुस्लिम समाज के युवाओं ने कई खतरनाक खेल भी पेश किए जो अक्सर ताजिए के जुलूस में देखे जा सकते है।

आपको बताते चलें कि मोहर्रम के अवसर पर कई दिनों से घरों में इबादत का दौर चल रहा था। लोगों ने अपने घर पर ताजिए बनाए और फिर उसके बाद उसकी इबादत भी जारी रही। आज सभी लोग जिन्होंने घर पर ताजिये रखे, ताजियों को सुपुर्द ए खाक किया। लोगों ने बताया कि आज ताबूत वाला जुलूस भी निकाला गया है इस जुलूस को लेकर अपनी-अपनी मान्यता है और अक्सर विवाद भी होते रहते हैं लेकिन आज पुलिस प्रशासन चप्पे-चप्पे पर तैनात था जिसके चलते सद्भाव और शांति के साथ जुलूस निकाला गया।

लगाई मीठे शरबत की छबील

मोहर्रम की दसवीं तारीख के अवसर पर जब शहर भर में ताजियों का जुलूस निकल रहा था। उस दौरान मुस्लिम महापंचायत और इस्लामिया लोकल एजेंसी की ओर से मंटोला क्षेत्र में मीठे शरबत की छबील लगाई गई थी। जो लोग ताजिए लेकर निकल रहे थे, उन सभी को मीठे और ठंडे शरबत की छबील पिलाई जा रही थी जिससे उन्हें अधिक प्यास न लगे और वह इस भीषण गर्मी को सहन कर सके।

मुस्लिम महापंचायत और इस्लामिया लोकल एजेंसी के पदाधिकारियों ने बताया कि जब इमाम हुसैन ने धर्म युद्ध लड़ा था तो उस समय भीषण गर्मी में उनकी सैनिक भी धराशाई हो गई थी। इसीलिए इस भीषण गर्मी में ताजिएदारों के लिए ठंडे व मीठे शरबत की छबील लगाई गई।

इमाम हुसैन की याद में मोहर्रम पर्व

मुस्लिम महापंचायत के नदीम नूर और लोकल इस्लामिया एजेंसी से जुड़े अमजद बताते हैं कि इमाम हुसैन की शहादत की याद में मोहर्रम मनाया जाता है। यह कोई त्योहार नहीं बल्कि मातम का दिन है। जिसमें शिया मुस्लिम दस दिन तक इमाम हुसैन की याद में शोक मनाते हैं। इमाम हुसैन अल्लाह के रसूल यानी मैसेंजर पैगंबर मोहम्मद के नवासे थे।

मुस्लिम समाज के वरिष्ठ लोगों ने बताया कि मोहम्मद साहब के मरने के लगभग 50 वर्ष बाद मक्का से दूर कर्बला के गवर्नर यजीद ने खुद को खलीफा घोषित कर दिया। कर्बला जिसे अब सीरिया के नाम से जाना जाता है। वहां यजीद इस्लाम का शंहशाह बनाना चाहता था। इसके लिए उसने आवाम में खौफ फैलाना शुरू कर दिया। लोगों को गुलाम बनाने के लिए वह उन पर अत्याचार करने लगा।

यजीद पूरे अरब पर कब्जा करना चाहता था। लेकिन उसके सामने हजरत मुहम्मद के वारिस और उनके कुछ साथियों ने यजीद के सामने अपने घुटने नहीं टेके और जमकर मुकाबला किया। अपने बीवी बच्चों की सलामती के लिए इमाम हुसैन मदीना से इराक की तरफ जा रहे थे तभी रास्ते में कर्बला के पास यजीद ने उन पर हमला कर दिया।

इमाम हुसैन और उनके साथियों ने मिलकर यजीद की फौज से डटकर सामना किया। हुसैन के काफिले में 72 लोग थे और यजीद के पास 8000 से अधिक सैनिक थे लेकिन फिर भी उन लोगों ने यजीद की फौज के समाने घुटने नहीं टेके। हालांकि वे इस युद्ध में जीत नहीं सके और सभी शहीद हो गए। किसी तरह हुसैन इस लड़ाई में बच गए। यह लड़ाई मुहर्रम 2 से 6 तक चली।

आखिरी दिन हुसैन ने अपने साथियों को कब्र में दफन किया। मोहर्रम के दसवें दिन जब हुसैन नमाज अदा कर रहे थे, तब यजीद ने धोखे से उन्हें भी मरवा दिया। उस दिन से मुहर्रम को इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत के त्योहार के रूप में मनाया जाता है। ये शिया मुस्लिमों का अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि देने का एक तरीका है।