महाशिवरात्रि का महत्त्व एवं शिवजी का अभिषेक करने का शास्त्राधार

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पृथ्वी का एक वर्ष स्वर्गलोक का एक दिन होता है । पृथ्वी स्थूल है । स्थूल की गति कम होती है अर्थात स्थूल को ब्रह्मांड में यात्रा करने के लिए अधिक समय लगता है । देवता सूक्ष्म होते हैं एवं उनकी गति भी अधिक होती है । इसलिए उन्हें ब्रह्मांड में यात्रा करने के लिए कम समय लगता है । यही कारण है कि, पृथ्वी एवं देवता इनके काल गणना में एक वर्ष का अंतर होता है । शिवजी रात्रि एक प्रहर विश्राम करते हैं । उनके इस विश्राम के काल को ‘महाशिवरात्रि’ कहते हैं । महाशिवरात्रि दक्षिण भारत एवं महाराष्ट्र में शक संवत् कालगणनानुसार माघ कृष्ण चतुर्दशी तथा उत्तर भारत में विक्रम संवत् कालगणनानुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को आती है ।

महाशिवरात्रि का शास्त्रीय दृष्टि से महत्त्व

महाशिवरात्रि पर शिवजी जितना समय विश्राम करते हैं, उस काल को ‘प्रदोष’ अथवा ‘निषिथकाल’ कहते हैं । इस समय शिव ध्यानावस्था से समाधि-अवस्था में जाते हैं । पृथ्वी पर यह काल सर्वसामान्यतः एक से डेढ घंटे का होता है । इस काल में किसी भी मार्ग से, ज्ञान न होते हुए, जाने-अनजाने में उपासना होने पर भी अथवा उपासना में कोई दोष अथवा त्रुटी भी रहे, तो भी उपासना का 100 प्रतिशत लाभ होता है । इस दिन शिवतत्त्व अन्य दिनों की तुलना में एक सहस्र गुना अधिक कार्यरत रहता है । इस दिन की गई शिव की उपासना से शिवतत्त्व अधिक मात्रा में ग्रहण होता है । इस कालावधि में शिवतत्त्व अधिक से अधिक आकर्षित करनेवाले बेलपत्र, श्वेत पुष्प इत्यादि शिवपिंडी पर चढाए जाते हैं । इनके द्वारा वातावरण में विद्यमान शिवतत्त्व आकृष्ट किया जाता है । शिवतत्त्व के कारण अनिष्ट शक्तियों से हमारी रक्षा होती है । महाशिवरात्रि के दिन शिवतत्त्व के अधिक मात्रा में कार्यरत होने से आध्यात्मिक साधना करने वालों को विविध प्रकार की अनुभूतियां होती हैं

शिवजी का अभिषेक करने का महत्त्व एवं शास्त्राधार

महाशिवरात्रि पर कार्यरत शिवतत्त्व का अधिकाधिक लाभ लेने हेतु शिवभक्त शिवपिंडी पर अभिषेक भी करते हैं । इसके रुद्राभिषेक, लघुरुद्र, महारुद्र, अतिरुद्र ऐसे प्रकार होते हैं । रुद्राभिषेक अर्थात रुद्र का एक आवर्तन, लघुरुद्र अर्थात रुद्र के 121 आवर्तन, महारुद्र अर्थात 11 लघुरुद्र एवं अतिरुद्र अर्थात 11 महारुद्र होते हैं ।

शिवपिंडी पर सतत अभिषेक की धारा क्यों की जाती है?

शिव-पार्वती को जगत के माता-पिता मानते हैं । अभिषेक पात्र से गिरने वाली सतत धारा के कारण पिंडी एवं अरघा नम रहते हैं । अरघा योनि का प्रतीक है । जगन्माता की योनि निरंतर नम रहना अर्थात गीली रहना शक्ति के निरंतर कार्यरत होने का प्रतीक है । शक्ति शिव को कार्यान्वित करने का कार्य करती है । शिव तत्त्व कार्यान्वित होना अर्थात शिव का निर्गुण तत्त्व सगुण में प्रकट होना । अभिषेक करने से पूजा करने वाले को शिव जी की सगुण तरंगों का लाभ मिलता है ।

पिंडी में शिव-शक्ति एकत्रित होने के कारण अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा निर्मित होती है । सामान्य दर्शनार्थियों में यह ऊर्जा सहने की क्षमता न होने के कारण उन्हें इस उर्जा से कष्ट हो सकता है । इसलिए पिंडी पर निरंतर पानी की धारा प्रवाहित की जाती है । इससे दर्शनार्थियों के लिए वहां की शक्ति सहने तथा ग्रहण करने योग्य बनती है ।

बिल्वार्चन – शिव जी को बिल्व के पत्ते क्यों चढ़ाते हैं?

महाशिवरात्रि पर कुछ लोग विशेष रूप से शिवजी को बिल्वार्चन अर्थात बेल पत्र अर्पित करते हैं । शिवजी के नाम का जप करते हुए अथवा उनका एक-एक नाम लेते हुए शिवपिंडी पर बिल्वपत्र अर्पण करने को बिल्वार्चन कहते हैं । इस विधि में शिवपिंडी को बिल्वपत्रों से संपूर्ण ढक दिया जाता है ।

शिवजी को धूपबत्ती दिखाते समय तारक उपासना के लिए चमेली एवं हिना की गंधों की धूपबत्ती का उपयोग किया जाता है तथा इन्हीं सुगंधों के इत्र अर्पण करते हैं । परंतु महाशिवरात्रि के पर्व पर शिवजी को केवडे की सुगंध वाला इत्र एवं धूपबत्ती का उपयोग बताया गया है।।

महाशिवरात्रि के पर्व पर शिवजी की पूजा में केवडे की सुगंध वाले इत्र एवं धूपबत्ती का उपयोग क्यों करें?

केवडे में ज्ञानतरंगों के प्रक्षेपण की क्षमता अधिक होती है । केवडा ज्ञानशक्ति के स्तर पर मारक रूपी कार्य करता है । इसलिए उसे पूर्णतः लयकारी कहा गया है । पूजाविधि लयकारी शक्ति से संबंधित नहीं है, इसलिए जहां तक संभव हो, शिव पूजन में केवडे का उपयोग नहीं करते । तत्पश्चात भी अनिष्ट शक्तियों के कष्टों पर उपाय स्वरूप केवडे के पत्ते का उपयोग किया जाता है । इस दृष्टि से महाशिवरात्रि के पर्व पर शिव जी के मारक रूप की उपासना के लिए केवडे की सुगंध वाला इत्र एवं धूपबत्ती का उपयोग करने के लिए कहा गया है।

संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ – भगवान शिव

कृतिका खत्री
सनातन संस्था

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