छत्तीसगढ़ में एक रामनामी संप्रदाय है, जिसके रोम-रोम में भगवान राम बसते हैं। तन से लेकर मन तक तक पर भगवान राम हैं। इस समुदाय के लिए राम सिर्फ नाम नहीं, बल्कि उनकी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। ये राम भक्त लोग ‘रामनामी’ कहलाते हैं। राम की भक्ति भी इनके अंदर ऐसी है कि इनके पूरे शरीर पर ‘राम नाम’ का गोदना गुदा हुआ है। शरीर के हर हिस्से पर राम का नाम, बदन पर रामनामी चादर, सिर पर मोरपंख की पगड़ी और घुंघरू इन रामनामी लोगों की पहचान मानी जाती है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की भक्ति और गुणगान ही इनकी जिंदगी का एकमात्र मकसद है।
रामनामी संप्रदाय के पांच प्रमुख प्रतीक
रामनामी संप्रदाय के पांच प्रमुख प्रतीक हैं। ये हैं भजन खांब या जैतखांब, शरीर पर राम-राम का नाम गोदवाना, सफेद कपड़ा ओढ़ना, जिस पर काले रंग से राम-राम लिखा हो, घुंघरू बजाते हुए भजन करना और मोरपंखों से बना मुकट पहनना है। रामनामी समुदाय यह बताता है कि श्रीराम भक्तों की अपार श्रद्धा किसी भी सीमा से ऊपर है। प्रभु राम का विस्तार हजारों पीढ़ियों से भारतीय जनमानस में व्यापक है।
इस संप्रदाय की स्थापना छत्तीसगढ़ राज्य के जांजगीर-चांपा के एक छोटे से गांव चारपारा में हुई थी। एक सतनामी युवक परशुराम ने 1890 के आसपास की थी। छत्तीसगढ़ के रामनामी संप्रदाय के लिए राम का नाम उनकी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। एक ऐसी संस्कृति, जिसमें राम नाम को कण-कण में बसाने की परंपरा है।
रामनामी संप्रदाय क्या है
छत्तीसगढ़ में रामनामी समंप्रदाय के बारे में कहा जाता है कि राम-राम और राम का नाम उनकी संस्कृति, उनकी परंपरा और आदत का हिस्सा है। इस समुदाय के कण-कण में राम बसे हैं। राम का नाम इनके जीवन में हर समय गुंजायमान है। रामनामी सामाज अपने शरीर के रोम-रोम में राम के नाम को बसा कर रखते हैं। यानि पूरे बदन पर राम नाम का गुदना गुदवाते हैं। घरों की दीवारों से लेकर बदन के टैटू तक पर राम होते है। अभिवादन भी ये लोग राम का नाम लेकर ही करते हैं। इनके राम मंदिरों में नहीं तन में वास करते है। रामनामी संप्रदाय के लोग कहते हैं कि हमारा तन ही मंदिर है।
कैसे हुई इस परंपरा की शुरुआत
कहा जाता है कि भारत में भक्ति आंदोलन जब चरम पर था, तब सभी धर्म के लोग अपने अराध्य देवी-देवताओं की रजिस्ट्री करवा रहे थे। उस समय दलित समाज के हिस्से में न तो मूर्ति आया और न ही मंदिर। उनसे मंदिर के बाहर खड़ा होने तक का हक छीन लिया गया था। एक सदी पहले रामनामी समाज के लोगों को भी छोटी जाति का बताकर उन्हें मंदिर में नहीं घुसने दिया गया था। साथ ही सामूहिक कुओं से पानी के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। इसके बाद भगवान राम के प्रति इनकी आस्था शुरू हुई थी
मंदिर और मूर्ति दोनों को त्याग दिया
इसी घटना के बाद रामनामी संप्रदाय के लोगों ने मंदिर और मूर्ति दोनों को त्याग दिया। अपने रोम-रोम में राम को बसा लिया और तन को मंदिर बना दिया। अब इस समाज के सभी लोग इस परंपरा को निभा रहे हैं और इनकी पहचान ही अलग है।
छत्तीसगढ़ में महानदी के तट पर रामानामी संप्रदाय के लोग रहते हैं। 1890 में श्री रशुराम जो कि वंचित वर्ग से थे, उन्होंने अपने पूरे शरीर पर राम नाम गुदवा लिया। वर्तमान में रामनामी समुदाय की 20 से अधिक पीढियां गुजर चुकी हैं
।रामनामी संप्रदाय के मेहतर लाल टंडन 76 साल के हैं। उन्होंने अपनी कहानी बताते हुए कहा कि मैं आज से 54 साल पहले अयोध्या में ही अपने शरीर पर राम नाम लिखवाया था। तब मेरी उम्र 22 साल थी। हम रामनवमी पर अयोध्या गए थे। वहां एक पुजारी ने ही मेरे चेहरे पर राम नाम लिख दिया था। गांव आया तो पूरे शरीर पर राम नाम लिखवा लिया। जो मरते दम तक मेरे साथ रहेगा।
शुद्ध शाकाहारी है ये समाज
ये समाज संत दादू दयाल को अपना मूल पुरुष मानता है। संप्रदाय सिर्फ राम का नाम ही शरीर पर नहीं गुदवाता, बल्कि अहिंसा के रास्ते पर भी चलता है। ये न झूठ बोलते हैं, न ही मांस खाते हैं। यह राम कहानी इसी देश में बसने वाले एक संप्रदाय रामनामी की है। जिनकी पहचान महज उनके बदन पर उभरे राम के नाम सिर पर विराजते मोर मुकुट से है। इस समुदाय की विचित्रता को देखना है तो एक बार छत्तीसगढ़ के कुछ गांवों में होने वाले भजन मेले में जरूर शामिल हो।
पांच हजार से भी कम है इनकी आबादी
अपनी विरासत को बचाने के लिए इस समाज में यह नियम है कि दो साल के बच्चे की छाती पर राम के नाम का टैटू बन जाए। रामनामी समाज ने अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए कानूनन रजिस्ट्रेशन भी कराया है। ये हर पांच साल में अपने मुखिया का चुनाव करते हैं और अपने मुखिया का अनुसरण करते हैं। छत्तीसगढ़ में इनकी आबादी पांच हजार से भी कम है।
-एजेंसी
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