नवरात्रि के मौके पर मेघालय के शक्तिपीठ के बारे में जानिए जहां पूजा और बलि की परंपरा अनोखी है। दरअसल, नवरात्रि के नौ दिनों में मां शक्ति के अलग-अलग स्वरूप की हर दिन पूजा की जाती है और देश के अलग-अलग भागों में देवी की पूजा आराधना की कुछ अलग परंपरा भी है। कुछ जगहों पर रामलीला का आयोजन होता है तो कुछ धार्मिक स्थलों पर मेले के आयोजन किए जाते हैं।
आज हम आपको एक ऐसे ही शक्तिपीठ के बारे में बताने जा रहे हैं, जहां बहुत कम लोग जा पाते हैं। हम बात कर रहे हैं मेघालय के शक्तिपीठ की, जिसे नर्तियांग दुर्गा मंदिर के नाम से जाना जाता है। इसके दंतेश्वरी और जयंतेश्वरी शक्तिपीठ भी कहा जाता है।
आइए अमिताभ भूषण के माध्यम से जानते हैं, इस शक्तिपीठ के बारे में और जानते हैं यहां नवरात्रि कैसे मनाते हैं।
इस तरह हुआ मां के इस शक्तिपीठ का निर्माण
मेघालय के पश्चिम में जयंतिया पहाड़ी पर बसे मां दुर्गा का यह मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है। यहां माता सती की बाईं जंघा गिरी थी, जिससे शक्ति पीठ की स्थापना हुई। मंदिर के विषय में उपलब्ध जानकारी के मुताबिक आज से 600 वर्ष पूर्व माता के मंदिर का निर्माण हुआ था। मंदिर का निर्माण जयंतीया साम्राज्य के शासन काल में महाराजा धन माणिक्य ने कराया था। बताया जाता है कि एक दिन राजा को सपने में माता ने नर्तियांग में दुर्गा मंदिर की स्थापना करने का आदेश दिया था। माता के आदेश में दुर्गा मंदिर के साथ भैरव मंदिर का भी निर्माण कराया था।
माता के साथ भैरव भी हैं मौजूद
नर्तियांग के दुर्गा मंदिर में माता जयंती जहां जयंतेश्वरी के रूप में पूजित हैं। वहीं भैरव यहां कामदीश्वर महादेव के रूप में विराजमान हैं। महादेव के इस मंदिर में जयंतिया राज के पुराने आयुध और शस्त्र भी संरक्षित करके रखे गए हैं। पश्चिम जयंतिया पहाड़ी पर बसा नर्तियांग लंबे समय तक जयंतिया राज की ग्रीष्मकालीन राजधानी भी रही है। जयंतिया समाज के स्थानीय लोग मानते है कि नर्तियांग का यह दुर्गा मंदिर भगवती जयंतेश्वरी का स्थायी निवास स्थान है। इस मंदिर की नवरात्र पूजा और राजपुरोहित परंपरा विशिष्ठ है।
इस तरह की जाती है नवरात्रि में पूजा
नर्तियांग के इस मंदिर में नवरात्र के दौरान केले के पेड़ को गेंदा के फूल से सजाया जाता है और इसी की पूजा मां दुर्गा के रूप में की जाती है। नवरात्रि की षष्ठी तिथि से नवमी तिथि तक चलने वाले इस त्योहार के अंत में देवी स्वरूप केले के पेड़ को पास की मयतांग नदी में विसर्जित दिया जाता है। उत्सव के आरंभ में माता दुर्गा को गन सैल्यूट भी दिया जाता है। प्राचीन समय मे इस मंदिर मानव आत्मोत्सर्ग की परंपरा थी, जो दशकों पहले बंद हो चुकी है। अष्टमी के दिन इस मंदिर मानव मुखोटे में धोती पहनाकर बकरे और बतख की बलि दी जाती है।
बेहद महत्वपूर्ण है यह मंदिर
नर्तियांग के इस मंदिर में राजपुरोहित की भूमिका महाराष्ट्र का क्षत्रिय देशमुख परिवार पीढ़ियों से निभाता आ रहा है। वर्तमान में राजपुरोहित की भूमिका का निर्वहन कर रहे ओनी देशमुख बताते है कि वे अपने परिवार के 30वीं पीढ़ी के पुजारी हैं। मेघालय के हिंदू जनजाति समुदाय के लिए यह मंदिर बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि यह ना केवल एक दैव स्थान है बल्कि यह उनके संस्कृति और रीति-रिवाजों का भी प्रतीक है।
-एजेंसी
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