रोचक जानकारी: बीते 500 साल में कई बार इस्तेमाल किया गया है फ़ेस मास्क…

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एक वक़्त था जब चेहरा ढंकने के लिए मास्क का इस्तेमाल केवल बैंक चोर, पॉप स्टार और स्वास्थ्य को लेकर बेहद सतर्क रहने वाले जापानी पर्यटक किया करते थे. लेकिन आज के दौर में मास्क पहनना इतना आम हो गया है कि इसे ‘न्यू नॉर्मल’ नई हक़ीक़त कहा जा रहा है. मास्क का इस्तेमाल सामान्य ज़रूर हो सकता है लेकिन ये इतना भी नया नहीं है.

ब्लैक प्लेग से लेकर वायु प्रदूषण के बुरे दौर तक और ट्रैफ़िक के कारण प्रदूषण से लेकर रसायनिक गैस के हमलों तक, लंदन में रहने वालों ने बीते 500 साल में कई बार मास्क का इस्तेमाल किया है.

हालांकि चेहरा छिपाने से लेकर ख़ुद को संक्रमण से बचाने के लिए कम से कम छह ईस्वी पूर्व से मास्क का इस्तेमाल होता आया है.

फ़ारस के मक़बरों के दरवाज़ों पर मौजूद लोग अपने चेहरे को कपड़े से ढंक कर रखते थे.

मार्को पोलो के अनुसार 13वीं सदी के चीन में नौकरों को बुने हुए स्कार्फ़ से अपना चेहरा ढंके रखना होता था. इसके पीछे धारणा ये थी कि सम्राट के खाने की ख़ुशबू या उसका स्वाद किसी और व्यक्ति की सांस की वजह से न बिगड़ जाए.

प्रदूषण के कारण धुंध में

18वीं सदी की औद्योगिक क्रांति ने लंदन को एक ख़ास तोहफ़ा दिया था. उस दौर में बड़ी संख्या में फ़ैक्ट्रियां अधिक से अधिक प्रदूषित धुंआ उगल रही थीं और घरों में कोयले से जलने वाले चूल्हों से लगातार धुंआ निकलता रहता था.

उस दौर में सर्दियों के दिनों में लंदन शहर के ऊपर में कई सालों तक धुंध की एक स्लेटी-पीले रंग की मोटी परत दिखने को मिली थी.

साल 1952 में दिसंबर महीने की पाँच तारीख़ से लेकर नौ तारीख़ के बीच अचानक यहां कम से कम 4,000 लोगों की मौत हो गई थी. एक अनुमान के अनुसार इसके बाद के सप्ताहों में क़रीब 8,000 और लोगों की मौत हो गई.

साल 1957 की दिसंबर में लंदन में 1,000 लोगों की मौत हो गई. इसके बाद साल 1962 में यहां क़रीब 750 लोगों की मौत हुई.

शहर में फैली धुंध की चादर इतनी मोटी थी कि सरकार के लिए ट्रेनें चलाना मुश्किल हो गया. इस दौरान शहर के आसपास के खेतों में दम घुटने से जानवरों के मरने की भी ख़बरें दर्ज की गई थीं.

साल 1930 में यहां लोगों ने सिर पर टोपी लगाने के साथ-साथ मास्क पहनना भी शुरू कर दिया था.

1956 और 1968 में चिमनी से निकलने वाले प्रदूषित काले धुंए को कम करने और फ़ैक्ट्री से निकलने वाले धुंए में धूल के कणों को सीमित करने के लिए क्लीन एयर क़ानून बनाया गया. इस क़ानून के साथ साथ चिमनी की ऊंचाई और उसकी जगह भी तय की गई.

आज के दौर में प्रदूषित वायु और ख़तरनाक धुंध लंदन में बड़ी समस्या नहीं है लेकिन फिर भी प्रदूषण की समस्या यहां बड़ा संकट है.

ब्लैक डेथ प्लेग

14वीं सदी में ब्लैक डेथ प्लेग सबसे पहले यूरोप में फैलना शुरू हुआ. 1347 से 1351 के बीच इस बीमारी के यहां 250 लाख लोगों की मौत हो गई. इसके बाद यहां डॉक्टर ख़ास मेडिकल मास्क का इस्तेमाल करने लगे.

कुछ लोगों का मानना है कि ज़हरीली हवा के कारण मानव शरीर में असंतुलन पैदा होने लगा. ऐसे में प्रदूषित हवा को शरीर में पहुंचने से रोकने के लिए लोगों ने अफने चेहरों को ढंका या फिर ख़़ुशबूदार इत्र और फूल लेकर घरों से बाहर निकलने लगे.

17वीं सदी के मध्य में प्लेग के दौरान इसके प्रतीक के रूप में चिड़िया के आकार वाला मास्क पहने एक व्यक्ति का चित्र भी देखा जाने लगा जिसे कई लोग ‘मौत की परछाईं’ के नाम से पुकारने लगे.

ब्लैक प्लेग में इस्तेमाल किए जाने वाले मास्क को ख़ुशबूदार जड़ीबूटियों से भरा जाता था ताकि गंध को शरीर के भीतर पहुंचने से रोका जा सके. इसके बाद के वक्त में भी इस तरह के मास्क का इस्तेमाल होता रहा जिसमें खुशबूदार जड़ीबूटियां भरी जाती थीं.

1665 के दौर में आए ग्रेट प्लेग के दौरान मरीज़ों का इलाज कर रहे डॉक्टर चमड़े से बना ट्यूनिक, आंखों पर कांच के चश्मे, हाथों में ग्लव्स और सिर पर टोपी पहना करते थे. ये उस दौर के पीपीई किट की तरह था.

यातायात के कारण प्रदूषण

19वीं सदी के लंदन में पढ़ी लिखी महिलाओं का संख्या काफ़ी थी जो अपनी त्वचा को ढंक कर रखना पसंद करती थीं. वो गहनों के साथ-साथ चोगे की तरह के कपड़े पहनना पसंद करती थीं और चेहरे को भी एक जालीदार कपड़े से ढंकना पसंद करती थीं.

हालांकि ये बात सच है कि इस तरह के पूरा शरीर ढंकने वाले लंबे चोगे की तरह के अधिकतर शोकसभा में पहले जाते थे लेकिन ऐसा नहीं था कि और मौक़ों पर महिलाएं इन्हें नहीं पहनती थीं.

ये कपड़े, ख़ासकर चेहरे पर जालीदार कपड़ा उन्हें सूर्ज की तेज़ रोशनी के साथ-साथ बारिश, धूल के कणों और प्रदूषण से बचाता था.

लंदन ट्रांसपोर्ट एजेंसी और किंग्स कॉलेज लंदन के अनुसार आज की तारीख़ में वायु प्रदूषण की एक अहम वजह यातायात है. डीज़ल और पेट्रोल पर चलने वाली गाड़ियां हवा में नाइट्रोजन ऑक्साइड, बारीक रबर के कण और धातु के महीन कण छोड़ते हैं लेकिन 20वीं सदी तक वायु प्रदूषण इतना बढ़ गया कि चेहरे को ढंकने वाले जालीदार कपड़ा वायु में फैले कणों को रोक पाने में नाकाम साबित होने लगा.

कोरान महामारी से काफ़ी पहले लंदन में साइकिल चलाने वाले अपना चेहरा ख़ास तरह के एंटी-पॉल्यूशन मास्क पहने देखे जाते रहे हैं.

ज़हरीली गैस

दूसरे विश्व युद्ध और उसके बीस साल बाद के ग्रेट वॉर में रसायनिक हथियार- क्लोरीन गैस और मस्टर्ड गैस का इस्तेमाल हुआ. इसके बाद सरकारों को आम जनता और सैनिकों से कहना पड़ा कि वो ख़ुद को ज़रहीली गैस से बचाने के लिए विश्ष मास्क का इस्तेमाल करें.

1938 में सड़कों पर आम तौर पर रेस्पिरेटरों का इस्तेमाल देखा जाने लगा. इस साल सरकार ने आम लोगों और सैनिकों में 350 लाख ख़ास रेस्पिरेटर बांटे थे. पुलिस वालों को भी निजी प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट के तौर पर ये बांटे गए थे. जिन लोगों को ये रेस्पिरेटर दिए गए उनमें लंदन के बीक स्ट्रीट के मर्रे कैबरे डांसर भी शामिल थीं.

ये वो दौर था जब जानवरों को बचाने के लिए उनके भी मास्क बनाए गए थे. चेसिंगटन चिड़ियाघर में जानवरों के चेहरों का नाप लिया गया था ताकि उनके चेहरों के लिए ख़ास मास्क बनाए जा सकें.

घोड़ों के चेहरों पर जो मास्क लगाया गया था को एक थैले की तरह दिखता था जिसके उनके नाक को ढंकता था.

स्पैनिश फ्लू

प्रथम विश्व युद्ध ख़त्म होने के बाद दुनिया के कुछ देशों के सामने एक अलग चुनौती मुंह बाए खड़ी हो गई. स्पेन में सबसे पहले फ्लू फैलना शुरू हुआ जहां इसमे महामारी का रूप ले लिया.

इस बीमारी ने यहां पाँच करोड़ लोगों को अपना निशाना बनाया. स्पेन से फैलना शुरू होने के कारण इसे स्पैनिश फ्लू का नाम दिया गया.

माना जाता है कि उत्तरी फ्रांस में ट्रैंच से लौट रहे सैनिकों के साथ ये वायरस तेज़ी से फैलना शुरू हुआ था. कई कंपनियों ने इस दौरान वायरस को रोकने के लिए ट्रेनों और बसों पर दवाई का छिड़काव शुरू किया.

सैनिक ट्रकों और कारों में भर-भर कर अपने देश लौट रहे थे. इसने ये बेहद संक्रामक बीमारी और तेज़ी से फैली. ये संक्रमण ट्रेन स्टेशनों पर फैला और फिर शहर के सामुदायिक केंद्रों, फिर शहर और गांवों तक में फैलता चला गया.

लंदन जनरल ओम्निबस कॉर्पोरेशन जैसी कंपनियों ने तेज़ी से फैलने फ्लू पर क़ाबू पाने के लिए ट्रेनों और बसों में दवा का छिड़काव करना शुरू किया. उन्होंने अपने सभी कर्मचारियों से कहा कि वो संक्रमण से बचने के लिए मास्क पहनना शुरू करें.

साल 1918 में प्रकाशित नर्सिंग टाइम्स पत्रिका में ये बताया गया कि इस बीमारी से बचने के लिए क्या ज़रूरी क़दम उठाने चाहिए.

इसमें इस विषय में तफ़्सील से जानकारी दी गई थी कि किस तरह संक्रमण को रेकने के लिए नॉर्थ केनसिंगटन के सेंट मैरिलबोन इनफर्मरी हॉस्पिटल की नर्सों ने दो मरीज़ों के बेड के बीच में दीवार बनाई थी और अस्पताल में प्रवेश करने वाले सभी डॉक्टरों, नर्सों और सहायकों के लिए अलग-अलग बैठने की व्यवस्था की थी. इस दौरान स्वास्थ्यकर्मी फ़ुल बॉडी सूट पहनते थे और चेहरे पर मास्क का इस्तेमाल करते थे.

आम लोगों को भी सलाह ही गई कि वो अपनी जान बचाने के लिए मास्क का इस्तेमाल करें. कई लोगों ने ख़ुद अपने लिए मास्क बनाए और कइ लोग तो नाक के नीचे पहने जाने वाले मास्क में डिस्इन्फेक्टेंट की बूंदे भी डाला करते थे.

बाद में एक और तरह की मास्क चलन में दिखा, ये एक तरह का बड़ा कपड़ा हुआ करता था जो पूरे चेहरे को ढंकने में मदद करे. कई जानेमाने लोग अपने फ़ैन्स से चेहरा छिपाने के लिए या फिर अपने दुश्मनों से छिपने के लिए इसका इस्तेमाल किया करते थे.

इस दौर में चेहरा ढंकना दूसरों का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश करने जैसा था. ये इस बात का संकेत था कि व्यक्ति कहना चाहता है कि ‘मैंने सबसे अलग मास्क लगाया है क्योंकि लोग मुझे न पहचानें.’

लेकिन आज ये हक़ीक़त बदल चुकी है. आज मास्क लगाना इतना आम हो चुका है कि मास्क लगाने वाले पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता, चाहे को किसी भी तरह का मास्क क्यों न हो.

-BBC