उत्तराखंड की बेहद खास मिठाई है अरसा, स्वाद ऐसा कि एक बार खा लें तो इसकी मिठास भूल नहीं पाएंगे

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यह ऐसी मिठाई है जो पहाड़ी लोगों के बीच रिश्ते बनाने का काम करती है। खासकर गढ़वाल क्षेत्र में लोग इसका खूब आनंद लेते हैं। अब उत्तराखंड के निवासी इसका स्वाद भूलते जा रहे हैं। नई पीढ़ी को इस पारंपरिक व्यंजन से जोड़ने के उद्देश्य से ही महाकौथिग में दिल्ली के पांच सितारा होटल के शेफ रोहन नेगी इसे परोसने की तैयारी में हैं।

अरसालु बन गया अरसा

अरसा को पहले अरसालु कहते थे, वो कैसे? दरअसल इसके पीछे भी दिलचस्प कहानी है। जगदगुरु शंकराचार्य ने बद्रीनाथ और केदारनाथ मंदिरों का निर्माण करवाया था। इसके अलावा गढ़वाल में भी कई ऐसे मंदिर हैं, जिनका निर्माण शंकराचार्य ने ही करवाया था। इन मंदिरों में पूजा करने के लिए दक्षिण भारत के ब्राह्मणों को रखा जाता है।

कुछ जानकार कहते हैं कि नौवीं सदी में दक्षिण भारत से ये ब्राह्मण जब गढ़वाल आए तो अपने साथ एक मिठाई अरसालु लेकर आए थे। चूंकि लंबे समय तक रखने पर भी खराब नहीं होती थी, इसलिए वो पोटली भर-भरकर अरसालु लाया करते थे। धीरे-धीरे इन ब्राह्मणों ने स्थानीय लोगों को भी इसे बनाने की कला सिखाई। और इस तरह गढ़वाल पहुंचकर अरसालु बन गया अरसा। इसे बनाने के लिए गढ़वाल में गुड़ इस्तेमाल होता है, जबकि कर्नाटक में खजूर गुड़ का प्रयोग किया जाता है। धीरे-धीरे ये गढ़वाल की लोकप्रिय मिठाई बन गई।

स्वाद और सेहत से भरपूर

इसे बनाने का तरीका बहुत खास है। सबसे पहले चावल को साफ कर उसे अच्छी तरह धोने के बाद तीन दिनों के लिए पानी में भिगोकर छोड़ दिया जाता है। भिगोने के बाद इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि 24 घंटे बाद उसका पानी बदलना है। तीन दिन बाद चावल को पानी से निकाल कर सूती कपड़े के ऊपर सुखा लेंगे। पानी सूख जाने के बाद उसे मिक्सर में दरदरा पीसते हैं। चावल के उस दरदरे आटे में गुड़, दही और घी को मिलाकर अच्छी तरह गूंथ लिया जाता है।

अब इस आटे को गीले कपड़े से ढककर 12 घंटे के लिए छोड़ देते हैं। उसके बाद इस आटे में तिल डालकर फिर गूंथा जाता है और छोटीछोटी लोई बना कर मनचाहे शेप में ढाला जाता है। एक कढ़ाई में मध्यम आंच पर घी गरम कर अरसा की गोलियों को सुनहरा होने तक उसमें तलते हैं। चाहें तो आप इन्हें गरम-गरम खाएं या फिर सप्ताह भर बाद…न स्वाद बदलेगा न सेहत पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

– एजेंसी