आज की लचर पत्रकारिता में शोहरतयाब हुए मुखबिर तथा अपराधिक प्रवृत्ति में संलिप्त लोग

अन्तर्द्वन्द

देश के मशहूर शायर जनाब मरहूम राहत इंदौरी साहब ने कभी लिखा था कि —-
दर बदर जो थे वो दीवारों के मालिक हो गए, मेरे सब दरबान दरबारों के मालिक हो गए।
लफ्ज़ गूंगे हो चुके, तहरीरें अंधी हो चुकी, मुखबिर जितने थे सब अखबारों के मालिक हो गए।।

अपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के ऊपर सत्ता का दबाव मानिए अथवा स्थानीय पुलिस से बचने का उपाय। जिससे अनपढ़ व अपराधिक मामले वाले लोगों ने भी पत्रकारिता का चोला ओढ़कर इस पुनीत कार्य को बदनाम करने का जो कुत्सित प्रयास किया है वास्तव में वह काबिले तारीफ माना जा रहा है। इन लोगों का मुख्य उद्देश्य प्रशासन की नजर से बचकर अवैध कामों में संलिप्तता ज्यादा बनाई जाती है और पत्रकारिता का चोला ओढ़े रहने पर पुलिस भी ज्यादा ध्यान नहीं देती है।
इस प्रकार के लोग टीवी चैनलों से लेकर बड़े बड़े बड़े अखबारों में जुड़े हुए हैं, तो छोटे अखबार वाले भी 2-5 हजार रुपए प्रति व्यक्ति लेकर अथार्टी लेटर और आई कार्ड बांट देते हैं, जिससे अखबार तथा अपराधिक प्रवृत्ति वाले व्यक्ति का भी परिवार पलता रहता है और अवैध कामों को बढ़ावा दिया जाता है। और तो और हमारे क्षेत्र में तो आवाम तथा प्रशासनिक अधिकारी कुछ पत्रकारों को सरकारी पत्रकार बोलने लगे हैं, क्योंकि उन महाशयों ने कभी सरकार तथा अधिकारियों के खिलाफ दो लाइनें लिखने की हिमाकत नहीं की। लेकिन अपने को बड़ा पत्रकार मानना उनकी फितरत में शामिल हो गया है

प्रसिद्ध संत तथा महान समाज सुधारक कबीर दास जी अनपढ़ थे जिस पर उन्होंने स्वयं ही स्वीकारा था कि

“”मसि कागद छुओ नहीं कलम गह्यौ नहीं हांथ।””

जिसका अर्थ है कि वह पढ़े लिखे नहीं थे और उन्होंने कभी कागज नहीं पकड़ा और न हांथ में कभी कलम। लेकिन वह संत थे, कोई आज के अनपढ़ पत्रकार नहीं। जो कुछ लिख पढ़ नही सकते थे।

लेकिन आज के दौर में पत्रकारिता करने वाले लोग गांजा अफीम और चरस के विक्रेता बन कर लोगों में इनको सप्लाई करना उनका मुख्य व्यवसाय हो गया है तथा जितने भी अवैध काम हैं, उनमें सर्वाधिक संलिप्तता आज के तथाकथित पत्रकारों की ही है।

पुलिस की मुखबिरी कर शरीफ लोगों को पकड़वाना उनकी फितरत में शामिल हो गया है। जिसे वह अपनी वाहवाही समझते हैं। अपने कर्तव्यों से अबोध इन तथाकथित कलमवीरों से समाज के प्रति किसी सजगता, जागरूकता की कल्पना करना तो दूर बल्कि सभ्य समाज के सभ्य लोग इनसे बगलें काटते बड़ी आसानी से देखे जाते हैं। पुलिस प्रशाशन के प्रति इनकी निष्ठा व समर्पण की भावना ही इनकी व्यवहारिक गुणवत्ता का पैमाना बन चुकी है। और ऐसा हो भी क्यों न…? इसी भावना के चलते यह सरकारी मुखबिरी कर अपना व अपने बच्चों का पेट भी पाल रहे हैं ऐसे में प्रशासन के प्रति इनकी निष्ठा और समर्पण को गलत ठहराना भी बेमानी की बात होगी क्योंकि साहब इनके पेट का सवाल है।

कलम की शील और मर्यादा तो वो लोग जानें जो कलम चलाना जानते हों, जिसने कलम चलाना ही नहीं जाना.. उसको उसकी मर्यादा से क्या….?
जिस पत्रकारिता को आईने जैसा साफ और पारदर्शी होना चाहिए, इन तथाकथित कलमवीरों ने इसे इतना धूमिल और कलंकित कर दिया कि आज सच्चे कलमकार कलम से ही मुँह मोड़ने को मजबूर हो चले हैं।

अब तो यहां बल्ले बल्ले है… अपनी ढपली और अपना राग… राग भी हमारा ढपली भी हमारी…और इस भीड़तंत्र में भीड़ भी हमारी क्योंकि भीड़ का कभी कोई अपना नजरिया ही नहीं होता…। शराब माफिया, बड़े-बड़े नेता, गैंगस्टरों से लेकर पुलिस की मुखबिरी तक का काम इन तथाकथित पत्रकारों का सबसे रुचिकर कार्य हो चला है।

पत्रकार का चोला पहनकर, समाज में ईमानदार, बेबाक, निडर पत्रकारों की कलम को बदनाम किया जा रहा है। इनकी गंदी छवि की वजह से अच्छे पत्रकारों की पहचान भी धूमिल हो रही है। और लोग भी इनकी करतूरतों का ठीकरा ईमानदार पत्रकारों के सर फोड़ने से बाज नहीं आते। जिसके चलते दुर्भाग्यवश और मजबूरी में सच्चे कलम के सिपाहियों को अपनी अस्मिता की रक्षा हेतु कलम से मुंह मोड़ने पर विवश होना पड़ रहा है। खैर समय के मुताबिक सबको चलना ही पड़ता है तो कलम भी रोते गाते समय के मुताबिक चलने और गढ़ने लगी है।

लेखक — जमाल खांन हमीरपुर।