बुढ़ापे का सफ़र-कैसा है सफ़र: आज का उनका दर्द और डर, कल बनेगा हमारा सरदर्द

अन्तर्द्वन्द

गाँधी की गाँधी से महात्मा गाँधी बनने की उनकी यात्रा ने उनमें ज्ञान, अनुभव और नेतृत्व की वो ज्योति जलाई जिसनें भारत राष्ट्र की आज़ादी की संकल्पना को साकार कर दिया । नौजवान गाँधी ने नहीं, वरन बूढ़े होते गाँधी ने मात्र एक नारे, भारत छोड़ो के सहारे न केवल ब्रिटिश शासन को भारत छोड़ने के लिए विवश कर दिया वरन विखंडित भारत और जनमानस को जोड़ने का काम भी कर दिया । तो जैसे सोना तप कर ही कुंदन बनता है वैसे ही जीवन की यात्रा में बुढ़ापे के पड़ाव से गुजर कर ही व्यक्तित्व निखरता है, वह अनुभव का सागर बनता है। तो जीवन का सार निचोड़ अपने में सजोंए हुए महात्मा गाँधी हों या हम आप, बुढ़ापे में अनुभव का सागर, गागर बन छलकता है और राष्ट्र के निर्माण की संस्कारशाला बनता है । लेकिन जीवन की नाव के दिशा निर्देशकों की अपनी नाव क्या भॅवर में फंसी है आज याकि वे घर परिवार के कर्णधारों या वास्तविक खेवईओ की उपेक्षा के शिकार बन गए हैं आज के भारत में ? आइये समझें ।

हाल के वर्षों में जीवन प्रत्याशा बढ़ी है साथ ही बढ़ी है 60 वर्ष से ज्यादा आयु वर्ग के लोगों की संख्या भी ।कुल जनसँख्या में सन 2011 में बूढ़ों का प्रतिशत 8.4 (10 करोड़ )था और इसके सन 2036 में बढ़ कर 14.9 प्रतिशत (23 करोड़) हो जाने की संभावना है। तो बूढ़ों की संख्या बढ़ेगी भी और ज्यादा वर्ष तक वह जीवित भी रहेगी। तो किसी भी देश के लिए यह गौरव का विषय न होगा क्या ? क्या वे समाज के लिए भार होंगे या संभावित मददगार ? वस्तुतः उन्हें समाज में अपनी उपयोगिता, भागीदारी, स्वतंत्रता, आत्म-संतुष्टि और गौरव स्थापित करने का अवसर देने की आवश्यकता होगी । इस विषय पर काम करने वाली संस्था हेल्प ऐज इंडिया की हाल की रिपोर्ट ने यह जानने की कोशिश की है कि भारत में बूढ़ों की सोच, उम्मीद और उनकी वास्तविक स्थिति क्या है जब प्रश्न हो उनके स्वास्थ के देखभाल, सुरक्षा, परिवार और समाज में समावेश का । आइये जाने।

आज भी भारतीय परिवारों का वृक्ष पूरी तरह से सूखा नहीं है- हेल्प ऐज इंडिया

रिपोर्ट ने बूढ़ों की आर्थिक स्थिति के सम्बन्ध में विशेष रूप से अध्ययन प्रस्तुत किया है और वह बताती है कि 80 प्रतिशत वृद्ध काम नहीं करते हैं और दैनिक जीवन यापन के लिए परिवार या पेंशन के पैसों पर निर्भर करते हैं। कुल 47 प्रतिशत वृद्ध, परिवार की सहायता पर निर्भर हैं, जबकि 34 प्रतिशत वृद्धों की आय का स्रोत पेंशन है । इसके विपरीत 21 प्रतिशत वृद्ध बुढ़ापे में भी कोई न कोई काम करते हैं अपनी आय बढ़ाने के लिए । फिर भी 60 प्रतिशत वृद्ध अपने को वित्तीय रूप से सुरक्षित मानते हैं । इनमें से 76 प्रतिशत वृद्ध, अपने को वित्तीय रूप से सुरक्षित इसलिए मानते हैं क्योंकि परिवार का सहयोग और सुरक्षा है उनको । तो यह महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है क्या कि आज भी भारतीय परिवारों का वृक्ष पूरी तरह से सूखा नहीं है ।

लेकिन सभी बूढ़े भाग्यवान भी नहीं हैं, चुनौतियां ही चुनौतियां हैं -हेल्प ऐज इंडिया

बुढ़ापे का सफर सभी वृद्धों के लिए सुहाना और खुशियों भरा हो ऐसा नहीं भी है, हेल्प ऐज इंडिया ही उद्घाटित भी करती है । 57 प्रतिशत वृद्ध इस बात से परेशान हैं कि खर्चे तेजी से बढ़ रहे हैं और उनकी आय और बचत कम पड़ जा रही है उनको पूरा करने में । 45 प्रतिशत वृद्ध बताते हैं की पेंशन कम है, इसलिए जीवन कांटों भरा बनता जा रहा है । 38 प्रतिशत वृद्ध काम खोज रहे हैं जो मिलता भी नहीं है उनको और उससे वित्तीय असुरक्षा बढ़ती जा रही है उनकी । वित्तीय असुरक्षा का आलम तो यह है कि इससे बचने के लिए बूढ़ों की एक बड़ी जमात (40%) काम करना चाहती है तब तक, जब तक की उनको काम मिलता रहे ।तो आज के बूढ़ों को पता है कि जब उनका तन और मन आराम मांगे, तब भी भारत में बुढ़ापे में भी कईओ को आराम नसीब नहीं होगा । दूसरी तरफ, वृद्ध महिलाओं के लिए समस्या और गंभीर है। केवल 18.4 प्रतिशत वृद्धाएं ही आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं जबकि लगभग 81 प्रतिशत वृद्धाएं या तो पूरी तरह या आंशिक रूप से दूसरों पर निर्भर हैं महिला सशक्तिकरण के इस घोषित युग में और हम सब जानते हैं कि परावलंबन अनेक समस्याओं की जननी भी होती है ।

इन सब चुनौतिओं के बीच वृद्धों की सेवा करने वालों की बड़ी जमात (56%) की चाहत है कि वृद्धों को किसी रोजगार में लगना चाहिए और वे यह भी मानते हैं कि वृद्धों के लिए रोजगार के अवसर उपलब्ध हैं भी । वृद्ध भी (30%)समाज की सेवा करना चाहते हैं । वृद्धों के लिए स्वास्थ सुविधा और स्वास्थ बीमा, एक अलग तरह की चुनौती देतीं दिखती हैं । 87 प्रतिशत वृद्धों ने माना कि उन्हें स्वास्थ सुविधा उपलब्ध है किन्तु उसका उपयोग केवल 52 प्रतिशत ही कर पाते हैं । तो ऐसी सुविधा की उपलब्धता का क्या औचित्य जिसका हम उपयोग ही न कर सकें ? 67 प्रतिशत वृद्धों के पास कोई स्वास्थ बीमा भी नहीं है । तो स्वास्थ सुविधा और बीमा की बड़े पैमाने पर अनुपलब्धता, सुरसा के मुँह की तरह विकराल रूप धारण करती जा रही है और वृद्धों की लगभग पूरी जमात राम भरोसे ही दिखती है ।इसीलिए इन दो सुविधाओं की मांग पर वृद्ध और उनकी सेवा करने वाले भी जोर देते दिखाई देते हैं। वृद्धावस्था खुद में एक डरावना एहसास और सपना है । ऊपर से वृद्ध (31%) इस बात से भी डरे हुए होते हैं कि ख़राब सड़कों आदि के कारण कहीं वे चोटिल न हो जाए । तो स्पष्ट है कि एक डरी हुई जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त हैं आज के वृद्ध ।

अभिशप्त सी होती जिंदगी, अपने हुए पराये

लेकिन बुढ़ापे में डर और अभिशप्त सी होती जिंदगी की यह इंतहा नहीं है । रिपोर्ट बताती है कि जीवन के संध्याकाल में भी बूढ़ों को बुरा बर्ताव, दुर्व्यवहार, बदसलूकी और उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है। तो जीवन का अनुभव धारण करने वाले बादशाहों को; मूल्य, परम्परा और संस्कार के ध्वज वाहकों को; इस अनजाने अनुभव का स्वाद भी चखना पड़ रहा है आज, परिवार और समाज के हाथों से । तो 57 प्रतिशत वृद्धों ने बताया कि भारतीय समाज में वृद्धों के साथ अनादर करना और उनका अनाद्रित होना एक आम बीमारी हो चुकी है । दुर्व्यवहार का व्यक्तिगत अनुभव करने वालों का राष्ट्रीय औसत 10 प्रतिशत है ।

देश के नौ शहरों में वृद्धों के साथ दुर्व्यवहार का प्रतिशत, राष्ट्रीय औसत से भी ज्यादा है । लेकिन चंडीगढ़ में दुर्व्यवहार का प्रतिशत (2.5) सबसे कम और देहरादून में (23%) सबसे ज्यादा है । तो अनेक लोग मानने लगे हैं कि कलियुग में देवभूमि देहरादून, वृद्धों के साथ दुर्व्यवहार भूमि में परिवर्तित होती प्रतीत हो रही है।

मौखिक दुर्व्यवहार (38%) और उपेक्षा (33%), अनादर के सबसे बड़े तरीके हैं ।थप्पड़ लगाना, पिटाई करना जैसे मर्मान्तक अनुभव भी 30 प्रतिशत वृद्धों नें किया है । किन्तु दुर्व्यवहार करने वाले सबसे बड़े अपराधी कौन हैं ? बुरे बर्ताव के सबसे बड़े खलनायक और खलनाईका तो खुद उनके बेटे (35%) और बहू (21%) ही दिखाई देते हैं । तो जिनके लिए मन्नतें मांगी, खून पसीना और रात दिन एक कर दिया वे ही अपने, पराये हो गए अब तो । समाज के अन्य लोग भी इसको एक विधा मान कर (जो कि अविधा है ) अपनी योग्यता (जो कि वस्तुतः मूढ़ता और असभ्यता है) आजमाते हुए दिखाई देते हैं और सहभागी बनते संकोच नहीं करते हैं । तो बूढ़े क्या करते हैं ऐसी विकट स्थिति में ? दुर्व्यवहार करने वालों की डांट डपट, इन बेसहारों (33%) का सहारा बनती है ऐसे क्षण में । लेकिन अधिकांश वृद्ध (47%)ऐसी स्थिति में अपने परिवार से बात करना छोड़ देते हैं, चुप हो जाते हैं और निष्क्रिय रहकर संतोष करते हैं । यद्यपि उनको पता है कि मौन होना, मौत समान होता है । किन्तु उन्हें यह भी पता होता है कि विपत्ति में सिर झुका कर रहना ही श्रेष्ठ उपाय होता है। वे वही करते भी हैं । क्योंकि 46 प्रतिशत वृद्धों को पता भी नहीं होता कि उनकी विपत्ति के निदान की कोई व्यवस्था भी है कि नहीं देश और समाज में ?

आज का उनका दर्द और डर, कल बनेगा हमारा सरदर्द

तो हम आप, समाज और सरकार क्या करे वृद्धावस्था के सफर को सुहाना सफर बनाने के लिए ? पेशन की सुरक्षा का वायदा, कांपते हाथों और लरजती सांसों के स्वामिओं को भी जीवन दान दे सकती है । लेकिन पेंशन की आज की रु. 200-1000 की राशि नाकाफ़ी है इस महंगाई के दौर में तो उसे बढ़ाना होगा और सभी वृद्धों को इसमें शामिल करना होगा। लेकिन सबसे आवश्यक है, परिवार और समाज में जन्म ले और फ़ैल चुकी एकांगी परिवार की उस सोच को शिथिल करने की, जिसने संयुक्त परिवार की नींव में ही मठ्ठा डाल दिया है और हमें अपराधी बना दिया है दुर्व्यवहार स्वामी बना कर के । तो उन्हें जो अपने हैं, हमारे या आपके जनक हैं, उन्हें अकेलेपन का दंश झेलते, निःशब्द मौत का इंतजार करते देखते भी हम द्रवित नहीं होते हैं आज ।ऊपर से सनातनी होने का ढ़िढ़ोरा भी पीटते हैं हम आप । हम-आप तो देह के सम्बन्ध को ही नहीं मानते तो आत्मा के सम्बन्ध को कौन माने ? लेकिन यह भी समझना होगा कि जो हम बोते हैं वही काटते भी हैं । कहते हैं की बोया पेड़ बबूल का आम कहां से होय । तो हमारे आपके बच्चे क्या बड़े नहीं होंगे? जिस दुर्व्यवहार कला के पारखी हम उन्हें बना रहे हैं, क्या उसके उस्ताद वे न बनेंगे ? तो क्या हम सब भी दुर्व्यवहार के शिकार न होंगे ? निश्चय ही, न चाहते हुए भी ऐसा होनें की पूरी संभावना है। हमारे-आपके जीवन की भी शाम होगी । हम सब नर और नारी हैं जो ठहरे ।असभ्यता के झाड़ पर, सभ्यता के फूल नहीं खिलते हैं । तो हमारा सभ्य आचरण ही हमें दुर्व्यवहार के दंश से बचा सकता है।

(लेखक विमल शंकर सिंह, डी.ए.वी.पी.जी. कॉलेज, वाराणसी के अर्थशास्त्र विभाग में प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष रहे हैं)