हर साल दुर्गा पूजा का एक अनूठा धार्मिक और सांस्कृतिक अनुभव प्रदान करता है कोलकाता शहर। “दुग्गा दुग्गा”, घर की सभी महिलाओं की यह एकजुट आवाज़ें गूँजती हैं जैसे-जैसे वे, जीवन में आगे की सुरक्षित यात्रा की कामना करती हुईं, पूजा (पूजो ) के लिए पंडालों की ओर बढ़ती हैं। हर घर, उद्यान या कोने में ज्योतिर्मय धुनुची की सुगंध के साथ ढाक से आने वाली तीव्र ताल की आवाज़ कोलकाता की सड़कों को भर देती है। सबसे सुंदर पोशाक पहनें हुए, सबसे भारी गहने और अपने माथों पर सिंदूर और बिंदियों के साथ मोटी चूड़ियाँ पहनें महिलाओं का आज पुरुषों से एक कदम आगे चलना प्रतीत होता है। आखिरकार, दुर्गा पूजा देवी का दिन होता है।
नौ दिन, जब तक माँ दुर्गा अपने चार बच्चों के साथ बाशा (घर) में रहती हैं, तब तक गलियों में रंग और उत्सव के अलावा कुछ भी नहीं होता है, और केवल दसवें दिन उनका अपने पति शिव के साथ मिलन होता है (जिस दिन को विजयदशमी भी कहा जाता है)। लेकिन क्या यह वास्तव में वहाँ समाप्त हो जाता है? दुर्गा पूजा की विशाल भव्यता और शैली केवल नौ दिनों के त्यौहार तक ही सीमित नहीं है। यह स्वयं उन भक्तों के दिलों में घर करती है, जो जीवन में आने वाली छोटी-छोटी अड़चनों पर “माँ दुग्गा” का उच्चारण करते हैं। शहर की गलियों में लंबे समय तक पूजा की समाप्ति के बाद भी उल्लू ध्वनि (बहुत ही शुभ मानी जाने वाली और बुरी शक्तियों से बचाव करने वाली एक उच्च-स्वर वाली कोलाहल ध्वनि जिसे दोनों गालों पर जीभ से आघात करके उत्पन्न किया जाता है) गूँजती रहती है।
पूजा का इतिहास
आश्विन (सितंबर – अक्टूबर) के महीने में मनाई जाने वाली, दुर्गा पूजा (जिसे पूजो के रूप में प्रेमपूर्वक संदर्भित किया जाता है) भारत, विशेष रूप से पश्चिम बंगाल के सबसे प्रतीक्षित त्यौहारों में से एक है। हालाँकि मौसम में ठंडक की शुरुआत होने के बावजूद, भक्तों द्वारा उत्सर्जित गर्मजोशी से हवा भार युक्त हो जाती है।
एक आराध्य के रूप में देवी की उत्पत्ति काफ़ी समय पहले की है। देवी का उल्लेख समय के साथ, हमें वैदिक युग के विभिन्न ग्रंथों और रामायण एवं महाभारत में भी मिलता है। इसके बाद भी, 15वीं शताब्दी में कृत्तिवासी द्वारा रचित रामायण के वर्णन के अनुसार रावण संग युद्ध से पहले भगवान राम द्वारा दुर्गा की पूजा 108 नील कमल और 108 पवित्र दीपों से की जाती है। जिस दिन भगवान राम ने रावण को हराया था उस दिन को दशहरे के रूप में मनाया जाता है जो दुर्गा पूजा के दसवें दिन (दशमी) को पड़ता है।
लगभग 16वीं शताब्दी के साहित्य में हमें पश्चिम बंगाल में ज़मींदारों (भूमि मालिकों) द्वारा दुर्गा पूजा के भव्य उत्सव के प्रथम उल्लेख मिलते हैं। विभिन्न आलेख अलग-अलग राजाओं और ज़मींदारों की ओर इशारा करते हैं जिन्होंने पूरे गाँव के लिए दुर्गा पूजा मनाई और उनका वित्त पोषण किया। बोइन्दो बारिरी पूजो (ज़मींदारों के घर में पूजा) अभी भी बंगाल में एक प्रथा है। बड़े घराने, लोगों के आगमन और देवी दुर्गा की प्रार्थना के लिए, मूर्ति को अपनी हवेलियों के आँगन में रखते हैं।
कोलकाता के सबसे प्रसिद्ध संस्थानों में से एक बेलूर मठ है। रामकृष्ण मठ और मिशन का मुख्यालय, बेलूर मठ, स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित किया गया था। हुगली नदी के पश्चिमी तट पर स्थापित यह मठ एक बहुत लोकप्रिय दुर्गा पूजा का आयोजन करता है। यहाँ पहली दुर्गा पूजा 1901 में स्वामी विवेकानंद ने खुद आयोजित की थी। प्रारंभ में, एक छोटे से पंडाल के अंदर मनाई जाने वाली बेलूर मठ की दुर्गा पूजा अब हर साल हज़ारों लोगों को आकर्षित करती है।
– एजेंसी