ब्रज की प्रसिद्ध ललित कला है साँझी, राधा-कृष्ण से संबंधित पवित्र ग्रंथों से है संबंध

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भगवान कृष्ण से संबंधित सांस्कृतिक पृष्ठभूमि होने के फलस्वरूप ब्रज प्राचीन काल से ही विभिन्न लोक शैलियों का महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। हस्तकला, संगीत, वास्तुकला, शिल्पकला इत्यादि उनमें प्रमुख हैं। लोकनायक भगवान कृष्ण का नाम कर्णों में गूँजते ही लताओं से भरे उद्यान, यमुना नदी, नदी के तीर पर उनका क्रीड़ास्थल, ब्रज की पावन भूमि, सभी दृश्य नैनों के समक्ष प्रकट होने लगते हैं। ब्रज के सांस्कृतिक एवं कलात्मक आभूषणों के धागे-डोरे इसी पावन क्रीड़ास्थल से निकल कर आते हैं जहाँ भगवान का सर्व-व्यापी रूप अनंतकाल तक के लिए हमारे लिए प्रेरणा का स्त्रोत बन गया है।

ब्रज में भिन्न भिन्न शैलियों के संगीत, नृत्य, साहित्य, दृश्य-कला इत्यादि कला के विभिन्न घटकों का पृथक अस्तित्व ना होते हुए एक अतिसुन्दर संयोजन है। यह सम्मिश्रण समरूप संश्लेषण के रूप में जीवंत प्रतीत होता है।

१६वीं सदी में व्याप्त भक्ति आंदोलन के काल में इन कला क्षेत्रों में तीव्र गति से प्रगति हुई थी। इसका प्रमुख कारण था कि भारत के विभिन्न क्षेत्रों से भिन्न भिन्न कला में निपुण कला प्रेमी ब्रज में एकत्र होते थे। कृष्ण के प्रेम एवं भक्ति के परमानन्द में सराबोर भक्तों का यह प्रमुख केंद्र बन गया था। कृष्ण के प्रति भक्तों का स्नेह अपनी चरमसीमा में होता था। १६वीं सदी में ही ब्रज विभिन्न कला शैलियों एवं सांस्कृतिक परंपराओं का गढ़ बन गया था। ऐसी ही एक कला शैली है सांझी। यह कला शैली मूलतः राधा-कृष्ण से संबंधित पवित्र ग्रंथों से संबंध रखती है।

सांझी क्या है?

सांझी शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत शब्द ‘संध्या’ से हुई है। संध्या, गोधूलि की वह बेला जब गायें गोशालाओं में लौटती हैं। भारतीय धर्म ग्रन्थों में किसी भी अनुष्ठान के लिए इसे अत्यंत पवित्र समय माना जाता है।।

श्रीमद्भागवत के अनुसार, राधारानी ने स्वयं सांझी की परंपरा का आरंभ किया था जब गोपियों के संग उन्होंने सांझी की अप्रतिम आकृतियों की रचना की थी। रूठे कृष्ण को मनाने के लिए उन्होंने वन जाकर रंगबिरंगे पुष्प एकत्र किये थे तथा भूमि पर उन पुष्पों से उनके लिए सुंदर आकृतियाँ बनायी थीं।

यह इस परंपरा का धार्मिक दृष्टिकोण है। रूठे कृष्ण को मनाना सांझी की प्रमुख अभिव्यक्ति है। यह राधा-कृष्ण की रास लीलाओं में निहित कोमल भावनात्मक स्थिति का चित्रण है। दूसरे शब्दों में, यह ब्रज के रोम रोम में बसी एक प्राचीन लोक परंपरा है जिसमें एक धार्मिक विषयवस्तु का सुंदर चित्रण किया जाता है।

कुमारियों का उत्सव

प्रारंभ में ब्रज की अविवाहित कन्याएँ गाय के गोबर एवं पुष्पों द्वारा भित्तियों पर सांझी की सुंदर कलाकृतियाँ बनाती थीं। तत्पश्चात इस सांझी को देवी का स्वरूप मानकर सुयोग्य वर की कामना से उनकी वंदना करती थीं। गाय के गोबर एवं पुष्पों द्वारा सांझी की रचना करने की प्रथा ब्रज में प्राचीन काल से चली आ रही है। सांझी कला ब्रज की कला एवं संस्कृति का अविभाज्य घटक है। इसका मूल अस्तित्व ब्रज की लोक परंपरा में समाया हुआ है।

गोबर एवं पुष्पों द्वारा भित्तियों पर सांझी की कलाकृतियाँ रचती चरवाहा कन्याओं का, स्वामी हरीदास ने इन शब्दों में बखान किया है।

कामधेनु के गोबर सो रचि साँझी फूलन चिति”

इसका अर्थ है, पुष्पों द्वारा सजाकर, गाय के गोबर से सांझी की रचना की गई है।

ब्रज के अतिरिक्त, वृंदावन में भी यह कला प्रचलित है। लोक कला के घटकों को धार्मिक परम्पराओं में सम्मिलित कर उसे नवीन ऊँचाइयाँ प्रदान करने का यह सर्वोत्तम उदाहरण है। इन आकृतियों के रूपांकन, रचना एवं वंदना करने की ग्रामीण प्रथा को वृंदावन के वैष्णव मंदिरों ने अपनाया। तत्पश्चात इस असाधारण सौन्दर्य युक्त रचना को अत्यंत उत्कृष्ट कला शैली में विकसित किया गया।

ब्रज की धार्मिक परंपराओं में सांझी

मंदिरों में १५ दिवसों के शरद उत्सव के अवसर पर सांझी का चित्रण किया जाता है जो भाद्रपद की पूर्णिमा से अश्विन मास की अमावस्या तक मनाया जाता है। अंग्रेजी पंचांग के अनुसार यह समयावधि सितंबर से अक्टूबर के मध्य स्थित है। सांझी कला शैली को मंदिर की परंपराओं में सम्मिलित करने के शुभकार्य में वृंदावन के पुष्टिमार्ग, गौड़ीय एवं राधावल्लभी जैसे वैष्णव समुदायों का महत्वपूर्ण योगदान है। यह योगदान उन्होंने अपने स्वतंत्र संप्रदाय भाव के अंतर्गत प्रदान किया है।

-एजेंसी