भारत के इस गांव में घुसने से पहले जूते-चप्‍पल हाथ में उठाने पड़ते हैं

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सम्मान देने की ये परम्परा और स्वच्छता को बढ़ाने के लिए घर के अन्दर अक्सर जूते या चप्पल न पहनना जिस देश की मिट्टी में रचा-बसा हो उसी भारत के दक्षिणी हिस्से के एक गांव में यह संस्कृति एक नई ऊंचाई पा चुकी है.

एक भारतीय के रूप में नंगे पांव चलने में मुझे कभी भी कोई आपत्ति नहीं हुई. वर्षों से मैं भी अपने घर में प्रवेश करने से पहले जूते घर के बाहर उतारने का अभ्यस्त हो गया हूं (जिससे घर में कीटाणु न आएं). मैं अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के घर तथा किसी भी हिन्दू मंदिर में प्रवेश के समय भी ऐसा ही करता हूं.

अपनी इस आदत के बावजूद अंडमान में प्रचलित रिवाज के लिए मैं भी तैयार नहीं था.

भारत के दक्षिण में स्थित राज्य तमिलनाडु का एक गांव है अंडमान, जो राज्य की राजधानी चेन्नई से लगभग 450 किलोमीटर दूर स्थित है (यह दूरी साढ़े सात घंटे की यात्रा में पूरी की जा सकती है). यहां लगभग 130 परिवार रहते हैं जिनमें से बहुत सारे कृषक मज़दूर हैं जो आसपास के धान के खेतों में काम करते हैं.

70 वर्षीय मुखन अरुमुगम से मेरी मुलाक़ात उस समय हुई जब वह गांव के प्रवेश द्वार पर एक बहुत बड़े नीम के पेड़ के नीचे अपनी रोज़ की पूजा कर रहे थे. सफ़ेद कमीज़ और एक चारख़ाने वाली लुंगी पहने उनका मुख आकाश की ओर था. जनवरी के अंतिम दिनों में भी दोपहर को सूरज काफ़ी गर्म था.

उन्होंने बताया कि एक भूमिगत जलाशय के पास ही इसी वृक्ष के नीचे उनके गांव को प्रसिद्ध बनाने वाली इस कहानी ने जन्म लिया. इसी स्थान पर गांव वाले गांव में प्रवेश करने से पहले अपने जूते या चप्पल उतारकर हाथ में ले लेते हैं.

अरुमुगम ने मुझे बताया कि अंडमान में केवल वयोवृद्ध या बीमार लोग ही जूते पहनते हैं. हालांकि उन्होंने बताया कि आने वाली गर्मी के महीनों में वे चप्पल पहनेंगे लेकिन फ़िलहाल वे नंगे पांव थे. अपने गहरे रंग के मोज़ों में जब मैं गांव भ्रमण कर रहा था तो यह देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि छोटे बच्चे और किशोर भी बिना किसी झिझक के अपने एक हाथ में जूते या चप्पल पकड़े हुए थे और स्कूल के लिए तेज़ी से जा रहे थे. ऐसा लग रहा था कि उनके हाथ में सज्जा की कोई वस्तु हो.

नंगे पांव अपनी साइकिल तेज़ी से चलाकर मेरे बग़ल से गुज़रने वाले 10 वर्षीय अंबु नीति को मैंने रोक लिया. नीति 5 किलोमीटर दूर शहर में कक्षा पांच में पढ़ता है. जब मैंने उससे पूछा कि गांव में नंगे पांव चलने के नियम को क्या उसने कभी तोड़ा है तो वह मुस्कुराने लगा.

उसने बताया, “मेरी मां ने मुझे बताया था कि मुथियालम्मा नाम की एक शक्तिशाली देवी हमारे गांव की रक्षा करती हैं और हम उन्हीं के सम्मान में नंगे पांव रहते हैं. यदि मैं चाहूं तो मैं चप्पल पहन सकता हूं लेकिन ये ऐसा ही होगा कि किसी प्यारे दोस्त का अपमान करूं.”

जल्दी ही मैंने पाया कि यही भावना अंडमान को अलग गांव बनाती है. कोई भी इस रिवाज को ज़बरदस्ती पालन करने के लिए नहीं कहता. यह कोई कठोर धार्मिक नियम नहीं है बल्कि यह तो प्यार और सम्मान में रची-बसी एक परम्परा है.
53 वर्ष के एक चित्रकार करूपय्या पांडे ने मुझे समझाया, “इस गांव में इस तरह रहते हुए हमारी चौथी पीढ़ी है.”

करूपय्या ने अपने जूते हाथ में ले रखे थे लेकिन उनकी 40 वर्षीय पत्नी पेचीअम्मा जो धान के खेतों में काम करती हैं, ने बताया कि वे गांव से बाहर जाते हुए भी जूतों की चिन्ता नहीं करती. वे बताती हैं कि जब कोई बाहरी गांव में आता है तो वे लोग नियम समझाने की कोशिश करती हैं. लेकिन यदि कोई नहीं मानता तो वे लोग ज़बरदस्ती नहीं करते.

यह पूरी तरह अपनी श्रद्धा पर निर्भर करता है. उन्होंने कभी भी अपने चारों बच्चों पर भी नियम लागू करने का दबाव नहीं बनाया लेकिन अब वयस्क हो चुके और शहरों में काम करने वाले बच्चे गांव में आने पर यही परम्परा बनाए रखते हैं.
अतीत में ऐसा भी समय था जब यह परम्परा डर की वजह से शुरू हुई.

43 वर्ष के घरों में पुताई करने वाले सुब्रमण्यम पीराम्बन का जीवन अंडमान में ही बीता है. वे बताते हैं, “ऐसा कहा जाता है कि यदि आप यह नियम नहीं मानेंगे तो एक विचित्र बुख़ार आपको जकड़ लेगा. हम अब इस डर में तो नहीं जीते लेकिन हम अपने गांव को एक पवित्र स्थान मानकर बड़े हुए हैं और मेरे लिए यह मंदिर का ही विस्तार है.”

हम अपने गांव को एक पवित्र स्थान मानकर बड़े हुए हैं
यह जानने के लिए यह किंवदन्ती शुरू कैसे हुई, मुझे गांव के 62 वर्षीय अनौपचारिक इतिहासकार लक्ष्मणन वीरभद्र से मिलने को कहा गया. छोटे से गांव में लक्ष्मणन की सफलता की कहानी वाक़ई अद्भुत है. लगभग चार दशक पहले एक दैनिक मज़दूर के रूप में उन्होंने दुबई का रुख़ किया था जहां वो अब एक निर्माण कंपनी चलाते हैं. वे अक्सर अपने गांव आते हैं, कभी-कभी लोगों को नौकरी पर रखने के लिए लेकिन अधिकांश तो वे गांव से रिश्ता बनाए रखने के लिए ही आते हैं.

वे बताते हैं कि 70 वर्ष पहले गांव वालों ने गांव के बाहर नीम के पेड़ के नीचे देवी मुथियालम्मा की मिट्टी की पहली मूर्ति स्थापित की थी. जैसे ही पुजारी देवी मां को गहनों से सजाने लगे और लोग पूजा में डूबने लगे, एक युवक अपने जूते पहनकर मूर्ति के बग़ल से गुज़रा.

ये पता नहीं है कि ऐसा उसने अपमान करने की किसी भावना से किया या नहीं, लेकिन ऐसा कहा जाता है कि वह फिसल गया. शाम को ही उसको एक विचित्र बुख़ार ने जकड़ लिया जिसने महीनों बाद उसका पीछा छोड़ा. वीरभद्र का कहना है, “तभी से इस गांव के लोग नंगे पांव रहते हैं. यह जीवन के तरीक़े में ही शामिल हो गया.”

हर पांच से आठ साल के बीच मार्च या अप्रैल के महीने में गांव में एक त्यौहार मनाया जाता है जिसमें देवी मुथियालम्मा की मिट्टी की मूर्ति नीम के पेड़ के नीचे स्थापित की जाती है. तीन दिन तक देवी गांव को आशीर्वाद देती हैं, लेकिन उसके बाद मूर्ति के टुकड़े कर दिए जाते हैं और वह मिट्टी में मिल जाती है.

इस त्यौहार में पूरा गांव पूजा-पाठ के अलावा भोज, मेला, नाच और नाटक का आनन्द लेता है. इसमें ख़र्च काफ़ी होता है इसलिए यह उत्सव वार्षिक नहीं होता. पिछला उत्सव वर्ष 2011 में मनाया गया था और अगला इस बात पर निर्भर करेगा कि दान करने वाले कब कृपा करते हैं.

40 वर्ष के रमेश सेवागन कहते हैं कि बाहर के बहुत सारे लोग इस गांव की किंवदन्ती को केवल अन्धविश्वास मानते हैं. लेकिन उनका यह भी कहना है कि इसी किंवदन्ती से गांव वालों में एक पहचान और एक सामुदायिक भावना पनपी है. इससे सभी गांव वाले एक-दूसरे को परिवार का हिस्सा मानते हैं.

समानता का भाव

सेवागन कहते हैं कि इसके कारण अन्य रस्में भी बनी हैं. उदाहरण देते हुए वे बताते हैं कि गांव में चाहे किसी का भी निधन हो हर परिवार उस व्यक्ति के परिवार को 20 रुपये प्रति परिवार के हिसाब से मदद करता है. वे कहते हैं कि इससे हम सब में समानता का भी भाव आता है.

मैं सोचता हूं कि क्या समय, यात्रा और देश-दुनिया से सम्बन्ध होने से इस भावना में कमी आएगी. दुबई में रहने वाले वीरभद्र से जब मैंने पूछा कि क्या वे अब भी नंगे पांव रहने के इस रिवाज के प्रति उतना ही जुड़ाव महसूस करते हैं जितना बचपन में करते थे, तो उनका उत्तर हां में मिलता है. आज भी वे गांव में नंगे पांव ही चलते हैं.
इससे हम सब में समानता का भी भाव आता है.

वे कहते हैं, “हम कोई भी हों, कहीं भी हों, हर सुबह जब हम उठते हैं तो हमें विश्वास होता है कि सब ठीक होगा. इसका कोई भरोसा तो नहीं है लेकिन हमारा पूरा दिन यही मानकर बीतता है. हम भविष्य रचते हैं, सपने बुनते हैं और आगे की सोचते हैं.”

“हर जगह ज़िन्दगी इस सादे विश्वास के इर्द-गिर्द ही घूमती है; हमारे गांव में आप उसी का एक नया रूप देखते हैं.”

-BBC