प्रोपेगेंडा मूवी समाज में क्या प्रभाव पैदा करती हैं इसे समझने के लिए आपको हिटलर कालीन जर्मनी को समझना होगा फिल्म नाजी जर्मनी में प्रचार के सबसे महत्वपूर्ण रूपों में से एक थी क्योंकि फिल्मे उस वक्त भी मनोरंजन का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम मानी जाती थी हिटलर स्वयं फिल्म के माध्यम को लिखित शब्द से श्रेष्ठ मानता था
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जर्मन घरों के अन्दर तक घुसने के लिए नाज़ी पार्टी ने 1933 में Department of Film तक बना दिया था. हम सब देख ही रहे हैं कि भारत में भी आज बॉलीवुड में अघोषित तौर पर ऐसा एक डिपार्टमेंट बना हुआ है
नाजी जर्मनी के इस डिपार्टमेंट ऑफ़ फिल्म का मकसद जर्मन लोगों को आक्रामक राष्ट्रवाद का सन्देश देना और यहूदी लोगो के बारे में नकारात्मक भावनाएं फैलाना था था. शुरू में इस डिपार्टमेंट की सहायता से शहरो में फिल्म दिखाना शुरू किया, फिर इन्होंने धीरे-धीरे नाज़ी सिनेमा बनाना भी शुरू किया.इस विभाग ने “आर्यन प्रकार के गुण, जर्मन सैन्य और औद्योगिक ताकत, और नाजी के दुश्मनों की बुराइयों” पर ध्यान केंद्रित करने वाली फिल्मों का चयन किया फिर उनका प्रदर्शन किया। ऐसी फिल्मे बनाने के लिए कम ब्याज पर ऋण प्रदान करने के लिए एक फिल्म बैंक ( फिल्म क्रेडिट बैंक जीएमबीएच ) की स्थापना की गई
अक्सर ये प्रचार फिल्में जर्मनी के दुश्मनों पर केंद्रित होती हैं, यह डिपार्टमेंट सिनेमाघरों में ऐसी फिल्में प्रदान कर इनके शो सुनिश्चित करवाता अगला चरण स्थानीय नाजी नेता संभालते …..दर्शको को लाने की जिम्मेदारी उनको ही दी जाती, जैसे कश्मीर फाइल्स को टैक्स फ्री किया गया वैसे ही नाजी कालीन जर्मनी में अनेक प्रोपेगेंडा मूवी को टैक्स फ्री किया गया था
अनेक फिल्मों का निर्माण हुआ लेनी राइफेनस्टाहल की डेस विलेंस (विल की जीत) और डेर हिटलरजंज क्यूक्स (हिटलर यूथ मेंबर क्यू”) जैसी फिल्मों ने नाजी पार्टी और उसके सहायक संगठनों का महिमामंडन किया। The Wandering Jew नामक एक फिल्म थी जो की 1940 में आई थी और यहूदी लोगों को बुरा दिखाती थी. कुल मिलाकर एक हजार के आस पास ऐसी फिल्मे डाक्यूमेंट्री बनाई गई
भारत में भी आप ऐसा ही कुछ देख रहे हैं कल देश के जाने माने फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज की एक टिप्पणी पढ़ रहा था अजय जी के कुछ शब्द यहां उधार ले रहा हूं ताकि आप परिस्थितियों को बेहतर ढंग से समझ सके….. वे लिखते है ….
“फिल्मों में नफरत खासकर मुसलमानों को खलनायक, दानव और हिंसक रूप में चित्रित करने का अभ्यास पिछले कुछ सालों में तेज हुआ है। दशकों तक नायक का दोस्त रहा मुसलमान किरदार अब खलनायकों के समूह का हिस्सा हो गया है। काल्पनिक, ऐतिहासिक और सच्ची घटनाओं से ऐसी कहानियां जुटाई, लिखी और बनाई जा रही हैं जो वर्तमान सत्ता के हित में काम आ सके। इसे सरकारी तंत्र से बढ़ावा भी मिल रहा है। 2019 में आई दो फिल्मों- ‘उरीः द सर्जिकल स्ट्राइक’ और ‘केसरी’ और 2020 में आई ‘तान्हाजी’- तीनों ही फिल्मों में आततायी और खलनायक मुसलमान थे। इनके खिलाफ नायक खड़ा होता है, जूझता है, जीतता है या शहीद होता है।
याद होगा, ‘उरी : द सर्जिकल स्ट्राइक’ का 1 मिनट 17 सेकंड का टीजर आया था तो उसमें एक वॉइसओवर सुनाई पड़ा था ‘हिन्दुस्तान के आज तक के इतिहास में हमने किसी मुल्क पर पहला वार नहीं किया 1947, 61,71, 99… यही मौका है उनके दिल में डर बिठाने का। एक हिन्दुस्तानी चुप नहीं बैठेगा। यह नया हिंदुस्तान है। यह हिन्दुस्तान घर में घुसेगा और मारेगा भी।‘
हम न्यू इंडिया और नया हिन्दुस्तान के बारे में लगातार सुन रहे हैं। इस फिल्म में नायक सर्जिकल स्ट्राइक के पहले पूछता है ‘हाउ इज द जोश?’ यह संवाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को इतना पसंद आया था कि फिल्मों के संग्रहालय के उद्घाटन में फिल्म बिरादरी को संबोधित करते हुए उन्होंने इसे दोहराया था। ‘केसरी’ फिल्म में नायक हवलदार ईसर सिंह और ‘तान्हाजी’ के नायक के बलिदान को राष्ट्रीय भावना के उद्रेक से नियोजित किया गया था।”
अब आप समझ ही गए होंगे कि वर्तमान भारत की परिस्थितियां भी हिटलर कालीन जर्मनी से अलग नहीं है।
-गिरीश मालवीय