राजनीतिक बाजार में तुलसीदास…

अन्तर्द्वन्द

बिहार सरकार के शिक्षामंत्री ने नालंदा खुला विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में, रामचरित मानस की कुछेक पंक्तियों को उद्धृत करते हुए, उसे नफरत फ़ैलाने वाले ग्रन्थ के रूप में चिह्नित किया और उसे ‘मनुस्मृति और गोलवरकर विरचित बंच ऑफ़ थॉट्स’ की श्रेणी में रखा.

इसे लेकर भगवा ब्रिगेड ने शिक्षा मंत्री पर चौतरफा हमला तेज कर दिया है. सुना है किसी जगद्गुरु ने उपरोक्त मंत्री की जुबान काट कर लाने वाले को दस करोड़ रूपए देने की भी घोषणा की है.

भाजपा के एक केंद्रीय मंत्री का कहना है कि क्या वह मंत्री कुरआन के बारे में भी वैसी ही टिप्पणी कर सकता है ?

भाजपा को एक अवसर मिल गया है कि वह उस मंत्री के बहाने, अपने अपर कास्ट वोट को नीतीश सरकार के विरुद्ध कुछ उद्वेलित करा दे.

एक भाजपा नेता ने समाजवादी विचारक राममनोहर लोहिया का हवाला देते हुए वक्तव्य दिया है कि वह तो रामायण मेला का आयोजन करवाते थे.

कई तरह की बातों के बीच मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस पूरे मामले से अनभिज्ञता प्रकट करते हुए इस पर कोई टिप्पणी करने से इंकार कर दिया है.

बिहार सरकार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर हैं, जो मेरे जानते स्वयं प्रोफ़ेसर हैं. वह राष्ट्रीय जनता दल से जुड़े हुए हैं और मधेपुरा इलाके से आते हैं, जो समाजवादी आंदोलन का गढ़ रहा है. मैं उक्त मंत्री को जितना जानता हूँ, वह अपनी बात स्पष्टता से रखने के लिए जाने जाते हैं.

यह भी कि वह वैचारिक मुद्दों को यदा -कदा उठाते रहे हैं.

मैंने यूट्यूब पर मंत्री के वक्तव्य को सुना. मुझे कहीं से वह विवादास्पद नहीं लगा.

उन्होंने रामचरित मानस को मनुस्मृति और बंच ऑफ़ थॉट्स के साथ रखते हुए, उसकी इस बात केलिए आलोचना की है कि यह नफरत फ़ैलाने वाली किताबों की श्रेणी में है. उन्होंने मानस के उत्तरकाण्ड से कुछ पंक्तियों को भी उद्धृत किया है. जो पंक्तियाँ उद्धृत की हैं, वे मानस की हैं और उनसे समाज के एक वर्ग विशेष की भावनाएं आहत हो सकती हैं.

रामचरित मानस पर इस तरह के सवाल उठाने वाले चंद्रशेखर कोई पहले व्यक्ति नहीं हैं. अनेक विद्वानों ने इसके लिए मानस की आलोचना की है. भदन्त आनंद कौशल्यायन की प्रसिद्ध किताब ‘तुलसी के तीन पात’ में इसकी व्याख्या है. रामस्वरूप वर्मा ने 1970 में यह सब सार्वजानिक रूप से राजनीतिक विमर्श में लाया था. 1974 में मैंने स्वयं ‘मनुस्मृति और मानस’ शीर्षक से एक लेख लिखा था, जो लखनऊ से प्रकाशित होने वाले अर्जक में छपा था.

भाजपा के अनपढ़ नेताओं को संभवतः यह सब पता नहीं है, या फिर जान बूझ कर वे अपनी राजनीति कर रहे हैं.

तुलसीदास का रामचरित मानस रामकथा का अवधी में रचा गया काव्यपाठ है, जिसे महाकाव्य का दर्जा प्राप्त है. हिंदी क्षेत्र के ग्रामीण अभिजन समाज में यह लोकप्रिय भी है.

आधुनिक ज़माने में जब नई शिक्षा का प्रसार हुआ, तब आरम्भ में तुलसीदास और उनके मानस का जोर बढ़ा, क्योंकि हिंदी प्रदेश के द्विज अभिजन समाज का शिक्षा संस्थानों पर प्रभुत्व था और मानस के विचार उनके लिए अनुकूलताएं लिए हुए थे.

रामचरित मानस की रामकथा में करीने से मनुस्मृति की वर्णवादी -जातिवादी सामाजिक मान्यताएं अंतर्गुम्फित हैं और वह द्विज तबके के सामूहिक स्वार्थ के पक्ष में है.

लेकिन विश्वविद्यालयों के बीच ही तुलसीदास की दकियानूसी सामाजिक दृष्टि पर सवाल भी उठने लगे.

1940 के दशक में हजारीप्रसाद द्विवेदी और 1950 के दशक में गजानन माधव मुक्तिबोध ने लोकतान्त्रिक मान्यताओं केलिए कबीर और उनकी परंपरा के दूसरे भक्ति कवियों के समतावादी सामाजिक दृष्टिकोण को अधिक अनुकूल पाया और आदरपूर्वक तुलसीदास को किनारे कर दिया.

जब दलितों और पिछड़े तबकों के छात्र, यूनिवर्सिटियों में बड़ी तादाद में आने लगे और उन्होंने अपने नजरिए से कबीर और तुलसी को देखा, तब स्वाभाविक था कबीर उनके प्रिय होते.

धीरे -धीरे स्थिति यह हुई कि तुलसीदास, दकियानूसी सामाजिक मान्यताओं के कवि के रूप में रेखांकित किए जाने लगे.

इसकी प्रतिक्रिया में कुछ लोगों ने तुलसीदास और उनके मानस को एक काव्य से धर्म शास्त्र में स्थान्तरित करने की कोशिश की.

भाजपा के केंद्रीय मंत्री जिनकी चर्चा मैंने ऊपर की है, का आग्रह यही है कि रामचरित मानस को धर्मशास्त्र मान कर बहस से बाहर कर दिया जाय.

मैं उनलोगों में हूँ, जिन्होंने शिद्दत के साथ तुलसीदास के पुनर्पाठ की जरूरत का अनुभव किया है. मैंने थोड़ी सी कोशिश भी की है. मैंने तुलसीदास के जीवन और वैचारिक आत्मसंघर्ष को समझने की किंचित कोशिश की है.

रामचरित मानस केवल राम की कहानी नहीं, अभागे तुलसीदास की भी कहानी है, जिसे माता-पिता ने जन्मते ही त्याग दिया और मांग कर खाना ही, जिसकी नियति बन गई.

विलक्षण बुद्धि के दरिद्र कवि ने अपने हिन्दू द्विज अभिजन समाज में स्थान हासिल करने केलिए उनकी सामाजिक वैचारिकी का आवेगपूर्ण समर्थन किया. यही मानस की वैचारिकी है.

द्विज समाज में जगह हासिल करने केलिए वह वर्णव्यवस्था का अंध -समर्थन करते हैं. लेकिन उन्हें कुछ हासिल नहीं होता है.

तुलसीदास का विद्रोही रूप कवितावली में उभरता है, जब वह अपनी ही मान्यताओं का ध्वंस करते हैं.

जातपात और वर्णवाद की धज्जियाँ वही तुलसीदास उड़ाते हैं, जिन्होंने कभी मानस में उसका प्रतिपादन किया था. यह आत्मसंघर्ष महत्वपूर्ण है, क्योंकि तुलसीदास का काव्यनायक राम, अपने रचनाकार के विरुद्ध जाता है.

अपनी युवावस्था में अयोनिजा सीता से विवाह करने वाला राम, स्थापित सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ कर एक आदर्श मर्यादा का प्रतिपादन करता है. अपने समय के शक्तिपुंज रावण से लड़ कर रामत्व हासिल करता है.

किन्तु अपने जीवन के उत्तरकाल में राम अपने द्वारा स्थापित मर्यादाओं को ध्वस्त करता हुआ, मनुस्मृति की मर्यादा स्थापित करने में लग जाता है.

शबरी के झूठे बेर खाने वाला राम, शम्बूक वध करता है और सीता के लिए युद्ध करने वाला राम, गर्भवती सीता को घरनिकाला देता है.

यह राम का पतन है!
इस पतन को राम के ही बेटे चुनौती देते हैं और राम को रावण से भी अधिक जिल्लत के साथ पराजित और अंततः जलसमाधि लेना पड़ता है.

रामायण का महत्व यह है कि वह शुभता के उस नैरंतर्य का प्रतिपादन करता है, जिसकी आकांक्षा हमारे ऋषिओं ने की थी.

जगद्गुरुओं और पुरोहितों को यह सब समझ में नहीं आ सकता.
तुलसी “अपने ही राम के विरुद्ध” आचरण करते हैं. उनका पतन नहीं, विकास होता है.

रामचरित मानस की वर्णवादी मान्यताओं को वह अपने उत्तरकाल में रचित कवितावली में ख़ारिज करते हैं.

इस तुलसीदास का मैं अभिनंदन करता हूँ.

कवितावली के तुलसीदास को इस बात की तनिक चिन्ता नहीं है कि लोग उसे पलटूदास कहेंगे.

उसे आभास हुआ कि गलत जगह थे, वहां से चल देता है.

उसे इस बात की चिन्ता नहीं है कि लोग उसे धूर्त कहेंगे कि साधु; रजपूत कहेंगे कि जुलाहा!

वह तो ऐसा सर्वहारा है कि उसकी कोई जाति नहीं है. किसी की बेटी से उसके बेटे का ब्याह नहीं करना है. वह कदाचित अयोध्यापति राम की जगह, कबीरपंथियों के राम का गुलाम हो गया है!

वह इतना अल्हड -आज़ाद है कि अपने मांग कर खाने और मस्जिद में भी सो लेने की मस्ती का उसे इत्मीनान है.

धूत कहो अवधूत कहो
रजपूत कहो जुलहा कहो
कोई काहू की बेटी सो
बेटा न ब्याहब
काहू की जाति बिगाड़ न सोइ
तुलसी सरनाम गुलाम हौं
राम को जाके रुचै सो कहै कछु ोउ
मांगी के खैबो मसीत में सोइबो लेइबो को एकु न देइबो को दोउ

भाजपा के लोगों को यह सब समझ में नहीं आएगा.

उनके तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में तनिक-सा भी कुछ सांस्कृतिक होता, तो तुलसीदास और रामकथा के पुनर्पाठ का आग्रह करते.

जैसा कि राममनोहर लोहिया ने किया था. लोहिया ‘रामायण’ के प्रशंसक थे, रामचरित मानस के नहीं.

उनके लिए रामकथा हमारी राष्ट्रीय पौराणिकता का एक ऐसा गौरव है जिस पर हमें थोड़ा गुमान है.

लोहिया ने शबरी को राम के गर्लफ्रेंड के रूप में रखा और बंदी हनुमान के मर्म को समझने की कोशिश की.

दिनरात जातपात के व्याकरण सजाने वाले समाजवादी भी जब लोहिया को नहीं समझ सके, तो ये भाजपाई क्या समझेंगे?

बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर को मैं शाबासी देना चाहूंगा कि उन्होंने जातपात से बजबजाते बिहारी समाज में, कुछ बेहतर सोच केलिए बल तो दिया!

काश ! बिहार की युवा पीढ़ी एक सम्यक और विशद विमर्श के तहत रामायण और तुलसीदास को परिभाषित करती.

इससे समाज को संवारने और उसे सांस्कृतिक आभा से मंडित करने की प्रेरणा मिलेगी.

साभार सहित- प्रेमकुमार मणि