खुल गए भगवान बदरीनाथ के कपाट, बड़ी संख्या में श्रद्धालु रहे मौजूद

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बदरीनाथ के बारे में मान्यता है कि यहां पर 6 महीने ग्रीष्म काल में मनुष्य और 6 महीने शीतकाल में देवता पूजा करते हैं। देवताओं के प्रतिनिधि के तौर पर नारदजी शीतकाल में बदरीनाथ की पूजा करते हैं और कपाट बंद हो जाने पर अखंड ज्योति को नारदजी जलाए रखते हैं।

बदरीनाथ के कपाट खुलने पर यहां अखंड ज्योति के दर्शन का बड़ा ही महत्व है। श्रद्धालु अलौकिक ज्योति के दर्शन के लिए बड़ी ही श्रद्धा और विश्वास के साथ यहां आते हैं। ऐसी मान्यता है कि जो इस अखंड और अलौकिक ज्योति के दर्शन करता है वह पाप मुक्त होकर मोक्ष का भागी बन जाता है।

बदरीनाथ के कपाट खुलने पर भगवान योग बदरी पर चढ़ा हुआ घृत कंबल श्रद्धालुओं में प्रसाद के तौर पर वितरित कर दिया जाता है। बदरीनाथ में स्थिति भगवान बदरीनाथ की मूर्ति को स्वयंभू यानी स्वयं प्रकट हुआ माना जाता है जो योग मुद्रा में विराजमान हैं। शीतकाल के दौरान भगवान बदरीनाथ की पूजा श्रद्धालु नृसिंह मंदिर जोशीमठ और पांडुकेश्वर में करते हैं।

भगवान की मूर्ति की पूजा को लेकर एक मान्यता यह है कि मूर्ति का स्पर्श कोई भी नहीं कर सकता है। मूर्ति को लेकर दक्षिण भारत के पुजारी जिनको रावल कहा जाता है वही इस मूर्ति को स्पर्श कर सकते हैं। मंदिर के रावल के लिए नियम है कि वह जब तक रावल रहेंगे ब्रह्मचारी रहेंगे।

बदरीनाथ के रावल को माता पार्वती का स्वरूप भी माना जाता है। अगर किसी कारण रावल मंदिर में नहीं होते हैं तो उनकी अनुपस्थिति में डिमरी ब्राह्मण ही बदरीनाथ की पूजा कर सकते हैं, क्योंकि रावल के बाद इन्हें ही पूजा का अधिकार प्राप्त है।

बदरीनाथ की मूर्ति की खास बातें

बदरीनाथ मंदिर में भगवान विष्णु के साथ भगवान के नर-नारायण रूप की भी पूजा होती है क्योंकि यहां भगवान ने नर-नारायण के रूप में तपस्या की थी। मंदिर के गर्भगृह में श्रीहरि विष्णु के साथ नर-नारायण की ध्यानावस्था में मूर्ति स्थित है। भगवान की मूर्ति शालिग्राम पत्थर से बनी है जिसकी ऊंचाई करीब 1 मीटर है। ऐसी मान्यता है कि बदरीनाथ धाम में स्थिति शालिग्राम की मूर्ति को आदि शंकराचार्य ने 8वीं सदी के आसपास नारद कुंड से निकालकर मंदिर के गर्भगृह में स्थापित किया था। बदरीनाथ के विग्रह को भगवान श्रीविष्णु की आठ स्वयंभू प्रतिमाओं में से एक माना गया है।

रावलों को मिला है पूजा का अधिकार

बदरीनाथ और केदारनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी केरल के नंबूदरी ब्राह्मण होते हैं और इनको रावल कहा जाता है और यह आदि शंकराचार्य के वंशज माने जाते हैं। केरल के नंबूदरी ब्राह्मण से पूजा करने की यह व्यवस्था आदि शंकराचार्य ने स्वयं बनाई थी। इसलिए पूजा का अधिकार भी उन्हीं के कुल को यानी रावलों का मिला है। अगर वह किसी कारण मंदिर में नहीं होते हैं तो डिमरी ब्राह्मण यह पूजा करते हैं।

बदरीनाथ धाम में रावलों को भगवान के रूप में पूजा जाता है। उनको देवी पार्वती का स्वरूप भी मानते हैं। मान्यता है कि जिस दिन मंदिरों के कपाट खुलते हैं, उस दिन माता पार्वती की तरह श्रृंगार करते हैं लेकिन उस अनुष्ठान को हर कोई नहीं देख सकता।

Compiled: up18 News