रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को गिफ्ट के बाद शुरू हुई चर्चा: आखिर मंगोलियाई घोड़े क्यों हैं इतने अहम?

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दौरे के आख़िरी दिन मंगोलिया के राष्ट्रपति उखनागिन खुरेलसुख ने तोहफ़े के रूप में उन्हें एक मंगोलियाई घोड़ा भेंट किया. राजनाथ सिंह ने इस घोड़े का नाम तेजस रखा है.

सात साल पहले जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंगोलिया दौरे पर गए , तो उन्हें भी वहां के तत्कालीन प्रधानमंत्री चिमेद सैखनबिलेग ने उपहार स्वरूप एक मंगोलियाई घोड़ा दिया था. पीएम मोदी ने इस घोड़े का नाम कंथक रखा था. कंथक राजकुमार सिद्धार्थ के भी प्रिय घोड़े का नाम रहा है.

भारत से आए नेताओं को मंगोलिया दौरे पर घोड़े गिफ़्ट करने की कहानी यहीं से शुरू और यहीं पर ख़त्म नहीं होती.

नई दिल्ली के नेहरू स्मारक संग्रहालय में मंगोलियाई घोड़े के साथ लगी देश के पहले प्रधानमंत्री की तस्वीर भी इस बात की तस्दीक करती है कि पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ मंगोलिया के तत्कालीन प्रमुख ने नेहरू को तीन मंगोलियाई घोड़े तोहफ़े में दिए थे.

ये तस्वीर 16 दिसंबर 1958 को ली गई थी और उपलब्ध जानकारियों के मुताबिक़ भेंट में मिले इन्हीं तीन मंगोलियाई घोड़ों में से एक के साथ नेहरू इस तस्वीर में नज़र आ रहे हैं.

भारत ही नहीं दुनिया के दूसरे अन्य बड़े नेताओं ने भी जब मंगोलिया का दौरा किया या फिर मंगोलिया के नेताओं ने किसी महत्वपूर्ण देश की यात्रा की, तो विशेष तोहफ़े के रूप में उन्हें मंगोलियाई घोड़े ही भेंट किए गए.

जैसे 2019 में मंगोलिया के तत्कालीन राष्ट्रपति बट्टूलगा खाल्टमा जब डोनाल्ड ट्रंप से आधिकारिक मुलाकात करने अमेरिका पहुंचे तो तोहफ़े में उनके 13 वर्षीय बेटे बैरन के लिए एक वहां का घोड़ा ले गए थे. ट्रंप ने इस घोड़े का नाम विक्ट्री रखा था.

मंगोलियाई घोड़े इतने अहम क्यों हैं?

मंगोलिया में एक कहावत काफ़ी प्रचलित है कि मंगोलों का जन्म ही घोड़े की काठी पर होता है. इस देश की आबादी तीस लाख से थोड़ी अधिक है और देश में घोड़ों की संख्या भी लगभग तीस लाख ही है. यानी एक औसत निकालें तो हर नागरिक के पास अपना एक घोड़ा है. यही कारण है कि मंगोलिया को घोड़ों का देश कहा गया है और मंगोलों को दुनिया के सबसे बेहतरीन घुड़सवार होने का तमगा हासिल है.

जेएनयू में सेंटर फॉर इनर एशियन स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर शरद कुमार सोनी बताते हैं कि मंगोलों को अपनी दो चीज़ों पर बहुत गुमान है. पहला कि वो चंगेज़ ख़ान के वंशज हैं और दूसरा गुमान उनको अपनी संस्कृति पर है, जो ‘घोड़ों’ के इर्द-गिर्द केंद्रित है.

चंगेज़ ख़ान मंगोल के शासक थे. इतिहासकार बताते हैं कि 13वीं सदी की शुरुआत में मंगोल घोड़े और एक ख़ास किस्म के धनुष के सहारे ही चंगेज़ ख़ान और मंगोल की सेना ने एशिया के एक बड़े हिस्से पर अपना क़ब्ज़ा जमाया था. इतिहास में इतने बड़े हिस्से पर आज तक किसी शासक का क़ब्ज़ा नहीं रहा.

वहीं मंगोलिया विश्व का इकलौता देश है जो ‘हॉर्स कल्चर’ यानी घोड़ा संस्कृति पर आधारित है.

प्रोफ़ेसर सोनी कहते हैं, ”ज़्यादातर मंगोल अब भी घुमंतू समाज का हिस्सा हैं. उन्होंने अभी भी अपनी ग्रामीण परंपराओं को सजीव रखा है. मुख्य रूप से पांच घरेलू प्रजातियों का प्रजनन कर वे अपना जीवनयापन करते हैं. घोड़े, मवेशी, ऊंट, भेड़ और बकरियां. इनमें घोड़े उनके लिए सबसे बेशकीमती होते हैं.”

यही कारण है कि जब भी किसी महत्वपूर्ण देश के प्रतिनिधि मंगोल पहुंचते हैं, तो उन्हें तोहफ़े के रूप में अपनी सबसे बेशकीमती चीज़ यानी घोड़ा सौंपते हैं.
हालांकि मंगोल घोड़ों का प्रयोग केवल यात्रा के लिए नहीं करते. वे घोड़े के दूध का इस्तेमाल खाने-पीने में भी करते हैं. घोड़ों के बाल से वे रस्सी बनाते हैं, उनके चमड़ों से बूट और उनकी हड्डियों से वाद्य यंत्र. ठंड में मंगोल घोड़े का मीट भी खाते हैं. घोड़े के दूध को सड़ाकर वे एक ख़ास किस्म की शराब बनाते हैं, जिसे ‘ऐराग’ कहा जाता है.
किसी पसंदीदा घोड़े की मौत हो जाने पर मंगोल उसे सम्मानजानक तरीके से दफ़नाते हैं. आमतौर पर घोड़े के सिर को एक ओवू पर रख दिया जाता है.

मंगोलियाई संस्कृति में ओवू पवित्र पत्थरों के एक ढेर को कहते हैं और वो इसे पूजते हैं.

अगर खाने के लिए घोड़े को मारा जाता है, तो घोड़े की पवित्रता का ख़याल रखते हुए उसकी खोपड़ी को खुले में छोड़ देने की परंपरा है.

साल 1911 में मंगोलिया की यात्रा करने वाली लेखिका एलिज़ाबेथ किमबॉल केंडल ने मंगोल नागरिकों के विषय में एक महत्वपूर्ण बात कही थी. इसका ज़िक्र प्रोफ़ेसर सोनी भी करते हैं.

एलिज़ाबेथ लिखती हैं, “किसी मंगोल नागरिक की सराहना करनी हो तो उन्हें घोड़े पर सवार देखिए, क्योंकि वे ज़मीन पर पैर नहीं रखते. अपने टट्टू (छोटे क़द का घोड़ा) के बिना मंगोल केवल आधा मंगोल है, लेकिन अपने टट्टू के साथ, वह दो पुरुषों के समान है.”

मंगोलिया की आधिकारिक न्यूज़ एजेंसी मोन्टसेम में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, मंगोलिया सोवियत संघ के लिए घोड़ों का एकमात्र आपूर्तिकर्ता था. युद्ध के मोर्चे पर खड़े हर पांच घोड़ों में से एक घोड़ा मंगोलियाई था.

मंगोल और घोड़ों के प्रति उनके लगाव से जुड़ी इतनी कहानियां हैं कि अमेरिका की मशहूर अदाकारा जूलिया रॉबर्ट्स ने साल 1999 में उनके इस रिश्ते को समझने के लिए मंगोलिया की यात्रा की

घुमंतू मंगोल लोगों के साथ उन्होंने हफ़्तों गुज़ारें, उसे रिकॉर्ड किया. बाद में डॉक्युमेंट्री की शक्ल में उनकी इस यात्रा का हासिल आम लोगों के बीच पहुंचा.

मंगोलियाई घोड़े की ख़ासियत क्या है?

हरियाणा के हिसार स्थित राष्ट्रीय अश्व अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉक्टर यश पाल बताते हैं कि मंगोलियाई नस्ल के घोड़ों की सबसे ख़ास बात ये है कि ये काफ़ी मज़बूत होते हैं. दूसरे घोड़ों की तुलना में इनकी सहन शक्ति अधिक होती है.

ज़्यादातर यूरोपीयन नस्ल के घोड़ों की तरह मंगोलियाई घोड़ों को रोज़ाना चारे की ज़रूरत नहीं पड़ती. वे कम पानी पीकर भी लंबा सफ़र तय कर सकते हैं.

मंगोलिया में घोड़ों को अस्तबल में रखने का भी प्रचलन नहीं है. ज़्यादातर घोड़े खुले में बंधे रहते हैं, चाहे गर्मी हो या ठंड.

आमतौर पर घोड़ों की ऊंचाई चौदह हाथ से ऊपर होती है. अगर घोड़े की ऊंचाई इससे कम होती है तो उसे ‘पोनी’ कहा जाता है. मंगोलियाई नस्ल के घोड़े न तो ज़्यादा छोटे और न ही ज़्यादा ऊंचे होते हैं इसलिए न तो इन्हें पोनी ही कह सकते हैं, न ही घोड़े.

‘दी टेल ऑफ हॉर्स: ए हिस्ट्री ऑफ इंडिया ऑन हॉर्सबैक’ किताब की लेखिका यशस्विनी चंद्र कहती हैं कि भले ही मंगोलियाई नस्ल के घोड़े ऊंचाई में छोटे होते हैं लेकिन उनके कद से उनकी ताक़त का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता.

अगर मंगोलियाई घोड़े न होते तो चंगेज़ ख़ान शायद ही एशिया के इतने बड़े हिस्से पर कब्ज़ा जमा पाते.

मंगोलियन घोड़े और बाकी दूसरी नस्ल के घोड़ों की चाल में भी फ़र्क है.

इसे समझाते हुए डॉक्टर यशपाल कहते हैं, ”घोड़े जब चलते हैं तो उनकी चाल का एक पैटर्न होता है. घोड़े की चाल को अंग्रेज़ी में ‘गेट्स’ कहते हैं. आमतौर पर घोड़ों की कुल चार चालें होती हैं – वॉक, ट्रॉट, कैंटर और गैलप. लेकिन मंगोलियाई घोड़ों की कुल पांच चालें होती हैं.

पांचवीं चाल ही इन्हें बाकी घोड़ों से अलग खड़ा करती हैं. मंगोलियाई घोड़ों की पांचवी चाल को ‘रनिंग वॉक’ कहते हैं.” यही वजह है कि मंगोलियाई घोड़े बिना थके लंबी दूरी तय कर पाते हैं.

मंगोल डर्बी: विश्व की सबसे लंबी घुड़दौड़

गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स के मुताबिक़ दुनिया में सबसे लंबी और मुश्किल घुड़दौड़ का आयोजन मंगोलिया (मंगोल डर्बी) करता है.

साल 2009 से हर साल अगस्त के महीने में पूर्वी मंगोलिया के खेंती प्रांत के बाइंडर ज़िले में बड़े स्तर पर इसका आयोजन होता है.

चंगेज ख़ान की प्राचीन डाक प्रणाली पर आधारित ये 1000 किलोमीटर लंबी दौड़ है. माना जाता है कि इस तरह की दौड़ की मदद से चंगेज़ ख़ान साम्राज्य के किसी भी कोने से संदेश प्राप्त कर सकता था.

दौड़ में हिस्सा लेने वाले घुड़सवार 1000 किलोमीटर की यात्रा करते हैं लेकिन इस लंबी यात्रा में उनके घोड़े बदलते रहते हैं. नियम कहता है कि घुड़सवार हर 40 किलोमीटर या उससे भी कम दूरी पर अपने घोड़े बदल सकते हैं.

11 जुलाई 1921 को मंगोलिया आज़ाद हुआ था. इसके बाद से हर जुलाई के महीने में यहां नादाम फेस्टिवल का आयोजन किया जाता है. इस फेस्टिवल में भी बड़े स्तर पर घुड़दौड़ कराई जाती है.

घुड़दौड़ मंगोल संस्कृति का एक अहम हिस्सा है. 6 साल से 12 साल के बच्चे भी घुड़दौड़ करते हैं और इन्हें ध्यान में रखते हुए विशेष आयोजन भी किए जाते हैं.

भारतीय घोड़े और उनकी नस्लें

लेखिका यशस्विनी चंद्र बताती हैं, ”भारत में शुरू से ही घोड़ों का महत्व रहा है. वैदिक संस्कृति में हम देख सकते हैं कि कितने महत्वपूर्ण घोड़े थे. ऋगवेद में भी घोड़ों का काफ़ी ज़िक्र मिलता है. फिर भारत के पौराणिक इतिहास में ‘अश्वमेध यज्ञ’ का भी कई बार उल्लेख है.”

बात महाभारत के युद्ध में घोड़ों के रथ पर सवार अर्जुन की करें या महाराणा प्रताप के घोड़े ‘चेतक’ की. राजस्थान के लोक देवता पाबूजी राठौड़ का घोड़ा ‘कालमी’ हो या राजकुमार सिद्धार्थ का प्रिय घोड़ा ‘कंथक’, घोड़े प्राचीन और आधुनिक भारत के इतिहास और संस्कृति का भी अभिन्न हिस्सा रहे हैं.

डॉक्टर यशपाल बताते हैं कि फ़िलहाल भारत में घोड़ों की कुल सात नस्लें हैं. इनमें मारवाड़ी, काठियावाड़ी, कच्छी सिन्धी, मणिपुरी, भूटिया, जांस्कारी और स्पीति शामिल हैं. इनमें शुरुआती तीन घोड़े की नस्ले हैं और बाद की चार पोनी (कद में छोटे घोड़े) की. भारत में कभी मंगोलियाई घोड़ों का वैसे कोई क्रेज़ नहीं रहा लेकिन उनकी मज़बूती और सहनशीलता का ज़िक्र कई जगह मिलता है.

-एजेंसी