5G को लेकर डर और डर की कहानियां..

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2020 की शुरुआत में जब कोरोना महामारी अपने पैर फैला रही थी, दुनिया के कई हिस्सों से 5जी मोबाइल टावरों पर हमलों की ख़बरें आ रही थीं.

2020 के अप्रैल और मई के दो महीनों में ब्रिटेन में 77 मोबाइल टावरों में आग लगा दी गई. नीदरलैंड्स, इटली, बेल्जियम, साइप्रस , फ्रांस – लगभग पूरे यूरोप में इस तरह की घटनाएं हुईं.

इसकी वजह थी एक अफ़वाह कि 5जी तकनीक का नाता कोरोना वायरस के फैलने से है, जो उस वक्त सोशल मीडिया के ज़रिए तेज़ी से फैली. ये पहली बार नहीं था जब तकनीक को लेकर साज़िशों की कहानियां कही जा रही थीं.

ऐसे में सवाल यह है कि 5जी मोबाइल तकनीक से लोगों को ख़ौफ़ क्यों है और तथ्य एवं साक्ष्य के बावजूद लोग आसानी से इन अफवाहों पर यक़ीन क्यों कर लेते हैं?

रेडियो फ्रीक्वेंसी का इस्तेमाल

3जी, 4जी की तरह 5जी भी एक मोबाइल इंटरनेट तकनीक है, इसे नेक्स्ट जेनेरेशन तकनीक कहा जा रहा है. लेकिन इसमें ख़ास क्या है?

दरअसल, 5जी न केवल एक साथ अधिक यूज़र्स को सपोर्ट करता है बल्कि अधिक डेटा भी हैंडल कर सकता है. आमतौर पर 4जी में रिस्पॉन्स टाइम 30 मिलीसेकंड का होता है, वहीं 5जी में ये एक मिलीसेकंड होता है.

“मैच हो या म्यूज़िक कंसर्ट, 4जी में आपको दिक्कत आती है. लोग लगातार वीडियो शेयर करते हैं और इंटरनेट ट्रैफिक अधिक होता है, ऐसे में आपका फ़ोन इसे हैंडल नहीं कर पाता लेकिन 5जी तकनीक इस तरह के प्रेशर को संभालने के लिए ही बनी है.”

इसकी वजह है हायर फ्रीक्वेन्सी. जहां 4जी छह गीगाहर्ट्ज़ से कम की फ्रीक्वेंसी का इस्तेमाल करता है वहीं 5जी 30 से 300 गीगाहर्ट्ज़ की फ्रीक्वेंसी काम में लेता है.

इस तकनीक का सबसे बड़ा फायदा ये है कि ये ड्राइवरलेस कार को सपोर्ट करती है. ये ऐसी कारें हैं जो एक दूसरे से कम्युनिकेट करती हैं. सड़क पर अपनी स्थिति के अलावा ये आगे-पीछे से आने वाली चीज़ों के बारे में जान पाती हैं, सड़कों-गलियों के मैप, ट्रैफिक लाइटें और सड़क पर दिए संकेत पढ़ पाती हैं. दूसरे कई क्षेत्रों में भी इससे फायदा मिल सकता है, जैसे मेडिकल डिवाइसेस, अस्पताल, एंबुलेंस सभी एक दूसरे से बेहतर संपर्क कर सकते हैं लेकिन 5जी की रेंज कम होती है और अच्छी कवरेज के लिए चाहिए बेहतर नेटवर्क.

2020 की एक रिपोर्ट के अनुसार मुंबई और दिल्ली में 5जी इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने का खर्च दस हज़ार करोड़ और आठ हज़ार सात सौ करोड़ रुपये तक हो सकता है. अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि पूरी दुनिया में 5जी नेटवर्क बिछाने का खर्च खरबों में होगा.

क्या हो अगर इतना खर्च कर जो नेटवर्क बने उसे स्वास्थ्य के लिए ख़तरा बताया जाए? इस बारे में जानकार क्या कहते हैं?

“विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि शराब पीने या प्रोसेस्ड मीट खाने से कैंसर का ख़तरा अधिक है. 2014 की एक रिपोर्ट में संगठन ने कहा था कि मोबाइल फ़ोन के इस्तेमाल से इंसान के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ता.”

लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन की इस रिपोर्ट के बावजूद 5जी के ख़तरों से जुड़ी ख़बरें सोशल मीडिया पर भरी पड़ी हैं. मोबाइल फ़ोन कोई नई चीज़ नहीं, लेकिन ये भी सच है कि 5जी को लेकर लोगों का भरोसा अभी बन नहीं पाया है.

डर और डर की कहानियां 

यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में विज्ञान और तकनीक के असोसिएट प्रोफ़ेसर जैक स्टिलगो कहते हैं कि मोबाइल फ़ोन को लेकर चिंता इस तकनीक के विकास के साथ जुड़ी है.

वो कहते हैं, “90 के दशक की शुरुआत से इस तरह की अफवाहें सुनने को मिलने लगी थीं. कुछ लोगों का कहना था कि कान पर फ़ोन लगा कर रखने से कैंसर हो सकता है. लोग मोबाइल फ़ोन कंपनियों को कोर्ट में घसीटने लगे क्योंकि उनका मानना था कि नई तकनीक का असर स्वास्थ्य पर पड़ रहा है. कोर्ट में इस तरह के मामले खारिज कर दिए गए, लेकिन हां, इससे चर्चा ज़रूर शुरू हो गई”

ये वो वक्त था जब मोबाइल फ़ोन तकनीक अपने शुरुआती दौर में ही थी. 1973 में मोटोरोला ने पहला मोबाइल फ़ोन बनाया था, लेकिन पहली बार 1983 में आम लोगों ने फ़ोन का इस्तेमाल किया.

1993 में टेलीविज़न पर एक लाइव कार्यक्रम में शामिल एक व्यक्ति ने कहा कि उनकी पत्नी को मोबाइल फ़ोन रेडिएशन के कारण ब्रेन ट्यूमर हुआ है. उन्होंने अपनी पत्नी की मौत के लिए तीन कंपनियों को ज़िम्मेदार ठहराया और उन्हें कोर्ट में चुनौती दी.

जैक कहते हैं- “पहली पीढ़ी के मोबाइल फ़ोन्स को लेकर भ्रामक कहानियां गढ़ी जा रही थीं, इस तकनीक पर शक किया जा रहा था. ये शीत युद्ध का दौर था और अफ़वाहें फैल रही थीं कि इसका इस्तेमाल लोगों की जासूसी के लिए और उनके दिमाग पर नियंत्रण करने के लिए किया जाता है.”

इतिहास इस बात का गवाह है कि नए आविष्कारों को लेकर लोगों के मन में डर हमेशा रहा है.

जब पहले पहल रेल चलनी शुरू हुई तो लोगों का कहना था कि तेज़ गति से चलने से बीमारियां होती हैं. एक मेडिकल एक्सपर्ट जॉन ई एरिकसन ने कहा कि यात्रा के दौरान लगातार झटके लगने और हिलते रहने से रीढ़ की हड्डी पर असर होता है. इस स्थिति को उन्होंने रेलवे स्पाइन कहा.

1862 में मेडिकल जर्नल लैन्सेट ने रेल यात्रा और इससे जुड़ी बीमारियों को लेकर ‘द इंफ्लूएंस ऑफ़ रेलवे ट्रैवलिंग ऑन पब्लिक हेल्थ’ नाम से एक रिपोर्ट छापी और कहा कि व्यक्ति पर रेल यात्रा के तनाव का असर होता है. जर्नल ने कहा बार-बार यात्रा करने वालों को सावधानी बरतनी चाहिए.

जैक कहते हैं, “मौजूदा वक्त में हम कोरोना टीके को लेकर लोगों में जो हिचकिचाहट देख रहे हैं उसका इतिहास भी टीकाकरण के इतिहास से ही जुड़ा है. 19वीं सदी के आख़िर में चेचक के टीकाकरण के विरोध में दंगे तक हुए थे.”

1918 में जब अमेरिका और ब्रिटेन में स्पैनिश फ्लू फैलना शुरू हुआ तो लोगों का कहना था कि जर्मनी में बनी एक दवा के ज़रिए बीमारी के विषाणु फैलाए जा रहे हैं. ये पहले विश्व युद्ध का दौर था जिसमें अमेरिका जर्मनी के ख़िलाफ़ लड़ा था. ऐसे में इस अफवाह की वजह समझी जा सकती है. उस वक्त कंपनी को अमेरिका में विज्ञापन देना पड़ा था कि दवा का उत्पादन पूरी तरह से अमेरिकियों के हाथों में है.

लेकिन मोबाइल फ़ोन के आने से क्या बदला, इस तकनीक का विरोध क्यों?

जैक कहते हैं, “शुरूआती दौर में जब मोबाइल फ़ोन (1983) आया उस वक्त इसे लेकर नियमन की कमी रही. बिजली के तार और माइक्रोवेव अवन तकनीक (1947) पहले से ही थी और नियामकों का मानना था कि नई तकनीक में कुछ नया नहीं है. अगर ये शरीर के टिशू को गर्म नहीं करता तो इससे ख़तरा नहीं. लेकिन कुछ ऐसे समूह थे जिनका दावा था कि मोबाइल फ़ोन के इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन के साइइफेक्ट हो सकते हैं.”

सवाल ये है कि अगर चिंता की कोई ख़ास वजह नहीं बताई तो लोगों के मन में संदेह क्यों उठा. क्योंकि इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम पर माइक्रोवेव फ्रीक्वेंसी और मोबाइल तकनीक में इस्तेमाल होने वाली फ्रीक्वेन्सी आसपास होते हैं.

जैक समझाते हैं कि माइक्रोवेव में कम फ्रीक्वेंसी रेडिएशन का इस्तेमाल हाई पावर पर होता है जिससे खाना गर्म होता है. लेकिन मोबाइल फ़ोन तकनीक में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि रेडिएशन से गर्मी न पैदा हो.

वो कहते हैं, “एक्स-रे और गामा-रे की तरह ज़्यादा एनर्जी, ज़्यादा फ्रीक्वेंसी वाला रेडिएशन एटम से इलेक्ट्रॉन को बाहर धकेल सकता है, जिससे कैंसर हो सकता है. इसे आयोनाइज़िंग रेडिएशन कहते हैं. लेकिन मोबाइल फ़ोन और माइक्रेवेव रेडिएशन नॉन-आयोनाइज़िंग रेडिएशन की श्रेणी में आते हैं. इनसे किसी तरह के ख़तरे की अब तक पुष्टि नहीं हुई है.”

मतलब ये कि 4जी के मुक़ाबले 5जी फ्रीक्वेंसी ज़्यादा ज़रूर है, लेकिन इतनी नहीं कि इंसानी शरीर के टिशू को नुक़सान पहुंचाए. ये मोबाइल फ़ोन और टावर दोनों पर ही लागू होता है.

और अगर ऐसा है तो 5जी तकनीक को लेकर अफवाहें क्यों? जैक स्टिलगो कहते हैं कोई चीज़ निश्चित तौर पर सुरक्षित है, ये साबित करना मुश्किल होता है.

दुष्प्रचार और सोशल मीडिया 

वायर्ड पत्रिका के जेम्स टेम्पर्टन बताते हैं कि कैसे एक लेख में कही गई साजिश की कहानी यानी कांस्पीरेसी थ्योरी दुनिया भर में फैल गई.

22 जनवरी 2020 को बेल्जियम के एक अख़बार ने एक इंटरव्यू छापा जिसमें दावा किया गया कि “5जी ख़तरनाक है और इसका नाता कोरोना वायरस से हो सकता है.” ये एक डॉक्टर का इंटरव्यू था जिनका कहना था कि उन्होंने कोई फैक्ट चेक नहीं किया है.

जेम्स कहते हैं, “5जी का विरोध कर रहे ग्रुप्स ने इसे फेसबुक पर शेयर किया. ये ग्रूप्स पहले भी दावा कर रहे थे कि कोरोना वायरस का नाता 5जी से है लेकिन इसके समर्थन में उनके पास कोई दलील नहीं थी. अब अचानक उन्हें ये लेख मिल गया. सोशल मीडिया के ज़रिए ये तेज़ी से फैला और दूसरे देशों तक पहुंचा.”

आज की तारीख में सोशल मीडिया केवल अपनी बातें साझा करने की जगह नहीं है. इसका इस्तेमाल संस्थाएं और सरकारें अधिक लोगों तक पहुंचने और उन्हें प्रभावित करने के लिए करती हैं.

जेम्स कहते हैं कि 5जी को लेकर रूसी सरकार समर्थित रशिया टुडे टेलीविज़न भी ऐसा ही कुछ करता रहा है.
वो कहते हैं, “कथित तौर पर वैज्ञानिक साक्ष्य के हवाले से टेलीविज़न रिपोर्ट करता रहा है कि 5जी घातक है. इसके कई वीडियोज़ को यूट्यूब पर लाखों बार देखा गया है. एक वीडियो में एक टेकनॉलॉजी संवाददाता कहती हैं कि ये जान भी ले सकता है. ”

जेम्स कहते हैं कि महामारी के दौर में इस तरह की ख़बरें अधिक आने लगीं.

वो कहते हैं, “एक और कॉन्सपीरेसी थ्योरी के अनुसार महामारी के दौरान लॉकडाउन लगाया गया क्योंकि उस वक्त 5जी नेटवर्क बिछाने का काम किया जाना था. एक और अफवाह ये थी कि ये डीप स्टेट की साजिश का हिस्सा है ताकि लोगों को वैक्सीन देकर इसके ज़रिए उन्हें कंट्रोल किया जाए.”

डीप स्टेट कथित तौर पर ऐसे नेटवर्क को कहते हैं जो नीतियों या सोच को प्रभावित करने के लिए काम करता है.

जेम्स कहते हैं, “इनमें से कोई थ्योरी सही हो, इसके वैज्ञानिक साक्ष्य मौजूद नहीं है. ये ख़तरनाक झूठ हैं. 5जी को लेकर कई अफवाहें इंटरनेट पर फैली हैं- जैसे 5जी सिग्नल परमाणु रेडिएशन की तरह घातक है और 5जी रोग प्रतिरोधक शक्ति को कम करता है. लेकिन इसके कोई प्रमाण नहीं है.”

वो कहते हैं कि महामारी के दौरान लोग परेशान थे, वो मुश्किलों का समाधान चाहते थे और साजिशों की इन कहानियों में उन्हें समाधान मिला.

वो कहते हैं, “लोग यकीन करने लगे थे कि टावर तोड़ने से सब कुछ ठीक हो जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं होता, क्योंकि इस दलील का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं.”

ऐसी भ्रामक कहानियों पर हमें अचंभा नहीं होना चाहिए क्योंकि इंसान का अस्तित्व जब से है तब से साजिशों की कहानियां भी कही-सुनी जाती रही हैं.

झूठ पर यकीन क्यों करते हैं लोग?

प्रोफ़ेसर यान विला वेन प्रेओयार एमस्टरडैम के वीयू यूनिवर्सिटी में बिहेव्योरल साइंटिस्ट हैं. वो कहते हैं कि कॉन्सपीरेसी थ्योरी कुछ मुल्कों की बात नहीं, हर जगह पर ऐसी कहानियां हैं और सदियों से इंसान इन पर भरोसा करता रहा हैं.

वो कहते हैं, “अमेज़न के जंगलों के यनोमामी आदिवासी ये नहीं मानते थे कि प्राकृतिक कारणों से अधिक मौतें हो सकती है. बीमारियों से मौत होने पर वो कहते थे कि दुश्मन ने उनके गांव पर जादूटोना किया है. दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति थाबो एमबिकी का मानना था कि पश्चिमी देशों की बनाई एचआईवी एड्स की दवा लोगों को बीमार रखने की साजिश है”

इस तरह की कहानियां तेज़ी से फैलती हैं. लोग इन पर यकीन करते हैं क्योंकि वो बुरी घटना के लिए किसी को ज़िम्मेदार ठहराना चाहते हैं.

प्रोफ़ेसर प्रेओयार कहते हैं, “मेडिकल कॉन्सपीरेसी थ्योरी के मामलों में आप देखेंगे कि लोग उस दलील को सही ठहराने की पूरी कोशिश करते हैं जिस पर वो यकीन करते हैं. उन्हें लगता है कि वो सही कर रहे हैं. वो अपनी दलील का समर्थन करने वाले साक्ष्यों को ही खोजते हैं.”

प्रोफ़ेसर कहते हैं कि इंटरनेट के ज़माने में लोगों के लिए अपनी तरह के और लोगों को ढ़ूंढ़ना आसान हुआ है और अपुष्ट ख़बरें अधिक तेज़ी से फैली हैं. वो कहते हैं कि टीकाकरण विरोधी अभियान के पीछे, ये एक बड़ी वजह है.

वो कहते हैं, “अगर आप अस्सी के दशक में होते और टीके को लेकर आपके मन में संदेह होता तो आप डॉक्टर के पास जाते और वो आपको सही सलाह देता. लेकिन आज के दौर में लोग अपना वक्त और पैसा बर्बाद नहीं करना चाहते. वो इंटरनेट पर देखते हैं और उन्हें वहां टीकाकरण विरोधी अभियान की एकदम प्रोफ़ेशनल दिखने वाली वेबसाइट मिलती हैं जहां वो इससे जुड़ी सभी तरह की भ्रामक जानकारियां पढ़ते हैं.”

लेकिन कॉन्सपीरेसी थ्योरी तब अधिक ख़तरनाक हो जाती हैं जब ये लिखे शब्दों से आगे निकल कर हरकतों में तब्दील हो जाती हैं.

प्रोफ़ेसर कहते हैं “इन पर यकीन करने वाले रक्षक की तरह बर्ताव करने लगते हैं. वो 5जी टावर तोड़ते हैं और उन्हें लगता है कि वो समाज का भला कर रहे हैं. यही इस सोच की विडंबना है कि व्यक्ति को लगता है कि वो सही कर रहा है, लेकिन असल मायनों में वो समाज को नुकसान पहुंचा रहा होता है.”

महामारी के दौरान कई देशों में 5जी टावरों पर हमले ऐसे वक्त हुए जब लोगों के लिए मोबाइल फ़ोन एक-दूसरे से संपर्क बनाए रखने का अहम साधन था.

ये बात समझी जा सकती है कि कई लोग 5जी रेडिएशन को ख़तरनाक मानते हैं. लेकिन अब तक इसके कोई वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं मिले हैं. और जब तक कोई ठोस वैज्ञानिक प्रमाण न मिलें, तब तक क्या ऐसी किसी भी दलील पर यकीन करना सही होगा?

-Compiled by up18 News