जनसँख्या के बूढ़े होने की तरफ बढ़ते कदम…

अन्तर्द्वन्द

थॉमस रॉबर्ट माल्थस ने लगभग सवा दो सौ साल पहले जब अपनी जनसँख्या नीति को प्रतिपादित किया था तभी से मानव जाति आक्रांत है जनसँख्या के विस्फोट के भय से ।भारत भी इसी भय से भयभीत रहा है और वह समझ भी नहीं पाया कि जनसँख्या के समुचित प्रबंधन से, उसके सकारात्मक परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं जिसे जनांकिकीय लाभांश कहते हैं । किन्तु बूढ़ी होती जनसँख्या नहीं अपितु नौजवान जनसँख्या ही सक्षम होती है इस लाभांश को पैदा करने में ।अतः यह जानने की आवश्यकता है कि हम नौजवान बने हुए हैं या तेजी से बूढ़े होने की डगर पर बढ़ चले हैं। लेकिन पहले जानें इसकी सम्पूर्ण अवधारणा को ।

बूढ़ी होती जनसँख्या का अर्थ है कि कुल जनसँख्या में उम्रदराज होते लोगों का अनुपात बढ़ रहा हो ।ऐसी स्थिति तब पैदा होती है जब लोंगो के कम बच्चे पैदा होते हैं या वे ज्यादा समय तक जीवित रहते हैं अर्थात जीवन प्रत्याशा बढ़ती जाती है । जीवन प्रत्याशा बढ़ती है बेहतर जीवन शैली अपनाने से । बेहतर पाष्टिक भोजन,व्यायाम, स्वास्थ की बढ़ती सुविधाओं, दवाईयों की उपलब्धता आदि हमारे जीवन को सुखमय और दीर्घ बनाने में पूरा योगदान देती हैं और यह सब उत्पन्न होता है हमारी उस चाहत और सोच के कारण जिसमे आर्थिक विकास करना सर्वोच्च लक्ष्य बन जाता है ।

इक्कीसवी सदी की सरकारों की सोच, रीतियाँ-नीतियाँ और कदम भी इस लक्ष्य को परवान चढ़ाने में मददगार दिखती हैं । विकास हमारी जन्म दर को भी प्रभावित करने लगता है । शिक्षा के प्रसार और परिवार नियोजन के साधनों की जानकारी, उपलब्धता और उपयोग, बच्चों की संख्या को सीमित करने लगता है।

महिलाओं द्वारा काम करने की उत्कंठा, जीवन जीने की लागतों का बढ़ना आदि कम बच्चे पैदा करने की चाहत को प्रोत्साहित करते हैं । वस्तुतः व्यक्ति और समाज दोनों की सोच परिवर्तित होने लगती है परिवार को सीमित करने की तरफ । अब समझने की आवश्यकता है की क्या होता है जब हमारे बच्चों की संख्या सीमित होने लगती है या सीमित होती जनसँख्या से विकास पर कैसा प्रभाव पड़ सकता है? क्या विश्व लम्बे समय से यह नहीं चाहता रहा है कि हमारे कम बच्चे हों? जैसे कि कम बच्चे होने मात्र से ही हमारी सभी समस्याओं का समाधान हो जायेगा । लेकिन ऐसा होता दिखता नहीं है । आइये इसको समझें।

बच्चों की संख्या सीमित करने की प्रक्रिया में, जनसँख्या के बूढ़े होने की समस्या जन्म ले लेती है । बुढ़ापा, मनुष्य जीवन की शान है क्योंकि ज्ञान, अनुभव और संस्कार का गागर,सागर बन छलकता है किन्तु व्यक्ति, समाज और देश के ऊपर एक दबाव भी बनता है क्योंकि समाज और देश को उनका सहारा बनना पड़ता है । वो अब उत्पादक नहीं रह जाते । उनको सहारे की आवश्यकता हो जाती है ।कार्यशील जनसँख्या पर बोझ बढ़ता है। जैसे विश्व जनसँख्या में 65 वर्ष से अधिक आयु समूह का अनुपात सन 1950,सन 2000 और सन 2017 में क्रमसः 5, 7 और 13 प्रतिशत था और इसके सन 2050 में बढ़ कर 16 प्रतिशत हो जाने कि संभावना है । इसी दौरान, कुल जनसँख्या में बच्चों का अनुपात घटता जा रहा है । तो बूढ़ी होती जनसँख्या की परवरिश की चिंता तो उत्पन्न होगी ही और करनी भी होगी। किन्तु अब एक बूढ़े, वरिष्ठ नागरिक की परवरिश के लिए कम कार्यशील जनसँख्या ही उपलब्ध होती है । जैसे जापान में एक पेंशनर को सहारा देने के लिए सन 1990 में 5.8 कार्यशील जनसँख्या उपलब्ध थी । वह सन 2000 में 3.9 रह गई और सन 2025 में और घट कर 2.1 मात्र रह जाने की संभावना है ।तो कार्यशील जनसँख्या के कन्धों पर अधिक लोगों की देख रेख का जिम्मा आ जाता है और स्थिति शोचनीय बन जाती है । अब आइये भारत की स्थिति को देखें।

भारत विश्व कि दूसरी सर्वाधिक जनसँख्या वाला देश है और एक लम्बे समय से यहाँ जनसँख्या तेजी से बढ़ती रही है । हमारी जनसँख्या सन 2021 में 136.9 करोड़ (अनुमानित) थी जबकि सन 1951 में यह 36.1 करोड़ थी ।तो सत्तर साल में हमने लगभग 100 करोड़ और आबादी जोड़ा । जनसँख्या बढ़ना, घटना अथवा स्थिर रहना जन्म और मृत्यु दरों और उनके अंतर पर निर्भर करता है ।वस्तुतः हम इस दौरान जनसँख्या विस्फोट के दौर से गुजरते रहे हैं । किन्तु अब एक नई रुझान भी दिखाई दे रही है जिसमें भारत में कुल प्रजनन दर (टीऍफ़आर) घट रही है । किन्तु क्या होती है टीऍफ़आर और क्या है इसका महत्व ? आइये पहले इसको समझा जाय ।

प्रजनन दर का अर्थ है की प्रत्येक स्त्री अपने पूरे प्रजनन काल में कुल कितने बच्चे पैदा कर सकती है । अब यदि टीऍफ़आर 2.1 है तो इसे जनसँख्या का प्रतिस्थापन दर कहते हैं और किसी देश की जनसँख्या स्थिर रहेगी । यदि टीऍफ़आर 2.1 से ज्यादा है तो जनसँख्या बढ़ेगी और इसके विपरीत यदि टीऍफ़आर 2.1से कम है तो जनसँख्या घटेगी।

भारत में टीऍफ़आर सन 1950-55, सन 1975-80, सन 1995-2000, सन 2015-20 में क्रमसः 5.9, 5.0, 3.5, 2.2 थी । नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे-5 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में टीऍफ़आर सन 2019-21 में और कम होकर 2.0 ही रह गई है । स्पष्ट है कि भारतीय महिलायें पूर्व की तुलना में अब कम बच्चों को जन्म दे रही हैं । वस्तुतः अपनी दादी माँ एवं माताओं की तुलना में आज की महिलाओं को कम बच्चे हो रहे हैं। एक अन्य तथ्य यह भी है कि सन 2015-20 में भारत सहित तीसरी दुनिया के देशो में टीऍफ़आर (2.2) उतनी ही रही जितनी की इंग्लैंड में सन 1950 में थी । लेकिन यह भी समीचीन है कि विकसित देशो की तुलना में तीसरी दुनिया के देशो ने टीऍफ़आर को घटाने में काफी कम समय लिया हैं । जैसे टीऍफ़आर को 5 से 3 तक लाने में ब्रिटेन की महिलाओं को 82 साल लगे (सन1828 से सन 1910) । किन्तु भारत को महिलाओं को मात्र 28 साल (सन 1977 से 2005) ही लगे । स्पष्ट है कि भारत की महिलाओं में अपने बच्चों की संख्या को सीमित करने की जागृति तेजी से आई है ।

प्रजनन दर की ये प्रवृत्तियाँ भारत की कुल जनसँख्या को भी प्रभावित करेंगी । सन 2100 तक देश की आबादी 34 प्रतिशत घट जाएगी। यूएन के मुताबिक, सन 2020 में भारत की जनसंख्या 138 करोड़ थी जो सन 2100 में घटकर 91 करोड़ हो जाएगी। प्रजनन दर की ये प्रवृत्तियाँ भारत के माल्थसवादीओ को ज्यादा प्रसन्नता का अहसास कराएंगी।

तो क्या जनसँख्या की इन प्रवृतियों अथवा जनसँख्या के घटने से हमारी सभी समस्याओं का समाधान हो जायेगा ? ऐसा लगता नहीं है ।

वस्तुतः एक समस्या के समाधान की प्रक्रिया में दूसरी गंभीर समस्या ने जन्म ले लिया है । यह है भारत में जनसँख्या के निकट भविष्य में बूढ़े होने की सम्भावन और जनांकिकीय लाभांश प्राप्त करने के स्वप्न का एक दिवा स्वप्न बन कर रह जाना । आइये समझे ।

आज का भारत अभी भी युवाओं का भारत है । किन्तु कुल प्रजनन दर में गिरावट से जनसँख्या की आयु संरचना परिवर्तित हो रही है । जनसँख्या की संरचना में 0-14 आयु वर्ग बच्चों का माना जाता है । 15 से 64 आयु वर्ग कार्यशील जनसँख्या का होता है ।. 65 साल से अधिक आयु वर्ग बूढ़ों का होता है । बच्चे और बूढ़े कार्यशील जनसँख्या पर आश्रित होते हैं। अब जबकि भारत में प्रजनन दर घट गई है तो बच्चों के वर्ग समूह की जनसँख्या कम होने लगेगी । दूसरी तरफ प्रत्याशित आयु बढ़ने से बूढ़ों का प्रतिशत कुल जनसँख्या में बढ़ने लगेगा । साथ ही कार्यशील जनसँख्या का प्रतिशत भी घटने लगता है । तो उत्पादक वर्ग सीमित होता जाता है और बूढ़ों का प्रतिशत बढ़ने से आश्रितों का भार बढ़ता जाता है । यही भारत के साथ हो रहा है । सन 2010 में जनसँख्या कि आयु संरचना में 0-14, 15-64 और 65 साल से अधिक का प्रतिशत क्रमसः 30.81, 64.11 और 5.08 था जो सन 2020 में परिवर्तित होके क्रमसः 26.16, 67.27 एवं 6.57 प्रतिशत हो गया । स्पष्ट है की बूढ़ों का प्रतिशत बढ़ा है और भविष्य में और बढ़ेगा।

बच्चों का आयु वर्ग सिकुड़ने लगा है और भविष्य में नौजवान जनसँख्या का प्रतिशत भी घटेगा । तो उत्पादन कौन करेगा ? आय बढ़ाने में मददगार कौन होगा ? किन्तु फिलहाल भारत एक जवान देश है। भारत की आधी जनसँख्या 25 वर्ष से कम आयु की है और 65 प्रतिशत जनसँख्या, 35 वर्ष आयु से कम की है । देश में सन 2020 में 10 से 14 उम्र वर्ग के लोगों की तादाद सबसे ज्यादा थी। सन 2050 आते-आते भारत की आबादी बूढ़ी होने लगेगी। जनसंख्या में 40 साल से ऊपर के लोगों की तादाद सबसे ज्यादा होगी। उस वक्त तक भारत में 40-44 उम्र वर्ग के लोग सबसे ज्यादा होंगे। मौजूदा सदी के अंत तक संभावना है कि भारत की कुल आबादी में सबसे ज्यादा तादाद 60 से 64 साल आयु वर्ग समूह के लोगों की होगी ।

तो इन प्रवृतियों के कुछ गंभीर परिणाम भी होंगे । कम होती कार्यशील जनसँख्या को ज्यादा आश्रित जनसँख्या के लिए सहारा बनना पड़ेगा या बूढ़ी जनसँख्या को ही लम्बे दौर तक अपना सहारा खुद बनने के लिए तैयार होना होगा । दोनों ही परिस्थितियाँ शोचनीय होंगी । हम जनांकिकीय लाभांश प्राप्त करने के अवसर का फायदा नहीं उठा पाए हैं क्योंकि बेरोजगारी तेजी से बढ़ी है और सरकार के कौशल विकास का नारा भी एक नारा ही रह गया है । तो नौजवान से बूढ़ी होती जनसँख्या के लिए विकास विहीन या धीमीं अर्थव्यवस्था कैसे संसाधन जुटा पायेगी? बूढ़ो के लिए सरकार और समाज कैसे सामाजिक सुविधाओं की पोटली बड़ी कर पायेंगी ? ऐसी स्थिति में हमें अब अपनी प्रजनन दर घटाने की नीति पर पुनर्विचार करना पड़ेगा । हम दो-हमारे एक की जगह हम दो हमारे दो की नीति ही ज्यादा श्रेष्ठ है, मानना पड़ेगा ।

देश के पाँच राज्यों (बिहार,मेघालय, उत्तर प्रदेश,झारखण्ड और मणिपुर )और मुस्लिम महिलाओं में प्रजनन दर अभी भी देश की औसत प्रजनन दर से ज्यादा है ।तो सोचना होगा की क्या इन्हे अब भी अपनी प्रजनन दर को और घटाने की आवश्यकता हैं ? संभवतः नहीं ।

(लेखक का आभार उन लेखकों, प्रकाशकों एवं संस्थाओ को है जिनकी रिपोर्टो एवं लेखन सामग्री का उपयोग इस आलेख को तैयार करने में किया गया है)

(लेखक विमल शंकर सिंह, डी.ए.वी.पी.जी. कॉलेज, वाराणसी के अर्थशास्त्र विभाग में प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष रहे हैं)

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