स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की एक स्टडी है कि पुरुष करते हैं 42 घंटे और औरतें करती हैं 112 घंटे। घर से निकलकर नौकरी करने जाने वाली औरतों के केस में पुरुष हफ्ते में 51 घंटे काम करते हैं और औरतें 126 घंटे। पुरुषों से करीब तीन गुना ज्यादा।
फिर भी औरतों को मिलने वाला उस श्रम का प्रतिदान पुरुषों से 70 गुना कम है। पूरी दुनिया में औरतें पुरुषों से 70 गुना कम पैसा कमाती हैं। उनसे 76 गुना कम संपत्ति पर मालिकाना हक रखती हैं।
औरतें सबसे ज्यादा काम करती हैं और सबसे कम पैसा पाती हैं, क्योंकि औरतों द्वारा किए जा रहे श्रम का एक बड़ा हिस्सा बेगार है। परिवार के लिए, पति के लिए, बच्चों के लिए, सास-ससुर के लिए। उस श्रम का उसे कोई मूल्य नहीं मिलता।
थोड़ा गौरवगान मिल जाता है। औरत तो अन्नपूर्णा हो, औरत देवी है, औरत मां है औरत से घर है, औरत महान है।
सबके लिए मुफ्त में अपनी हड्डियां गलाने वाली और बदले में ढेला भी न मांगने वाली तो महान ही होगी। मालिकों के लिए सबसे महान वो कर्मचारी होता है जो सबसे कम तनख्वाह में भी बैल की तरह रात-दिन जुटा रहे। हक मांगने लगे, सैलरी बढ़ाने की बात करने लगे तो गले की हड्डी हो जाता है।
ये जितने तथ्य, आंकड़े ऊपर दिए गए हैं, इसमें से कुछ भी नया नहीं है और न पहली बार कहा गया है। पूरी दुनिया में पिछले 30 सालों में ऐसी 3000 से ज्यादा स्टडीज हो चुकी हैं, जो बताती हैं कि हमारे परिवारों और विवाह संस्था के भीतर घरेलू श्रम को लेकर कितनी गैरबराबरी है।
ये गैरबराबरी औरतों को मानसिक और शारीरिक रूप से बीमार कर रही है।
हद तो तब हो गई, जब कोविड महामारी के दौरान पति-बच्चों ने ऑफिस और स्कूल जाना छोड़ घर में ही डेरा लगा लिया था और औरतों के घरेलू श्रम का अनुपात रातों-रात और कई गुना बढ़ गया था। ये भी यूएन वुमेन की स्टडी है, हमारा भावातिरेक नहीं।
यूएन वुमेन के मुताबिक औरतों का काम लॉकडाउन के दौरान 17 गुना बढ़ गया था। कल्पना करिए, जो औरत सामान्य स्थिति में भी हफ्ते के सात दिन रोज 16 घंटे काम कर रही थी, महामारी ने उसके काम में 17 फीसदी का इजाफा कर दिया।
-एजेंसी