वज्रनाभि मथुरा के राजा और यादव वंश के नेता थे जो कि अनिरुद्ध के पुत्र, प्रद्युम्न के पोते और कृष्ण के परपोते थे। उन्होंने कृष्ण के बारे में सुना तो बहुत कुछ था, इसलिए वे अक्सर सोचते थे कि उनके विख्यात पूर्वज वास्तव में कैसे दिखते होंगे। दुर्भाग्यवश, उस समय ब्रज में कृष्ण को स्वयं किसी ने भी नहीं देखा था।
इसलिए वज्रनाभि ने कुरुक्षेत्र में गंगा के तट पर स्थित हस्तिनापुर शहर जाकर कृष्ण के बारे में पूछताछ की। अर्जुन के पोते और अभिमन्यु के पुत्र राजा परीक्षित बोले, ‘जब वे यहां आए थे, तब मैं बहुत छोटा था।’ तब परीक्षित की विधवा मां उत्तरा जो अब अपने बुढ़ापे के कारण छड़ी के सहारे खड़ी थीं, ने कहा ‘मुझे कृष्ण याद हैं।’ उन्होंने सबको बताया कि कैसे कृष्ण ने परीक्षित की जान बचाई थी। कुरुक्षेत्र के युद्ध के अंत में द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वत्थामा कौरवों की हार के कारण उदास था। क्रोध में उसने गलती से यह सोचते हुए कि वह पांडवों को मार रहा है, सभी उपपांडवों को नींद में मार डाला। इस बात का पता चलने पर उसने पांडवों पर ब्रह्मास्त्र चला दिया। इसके प्रत्युत्तर में अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र चलाया।
इस डर से कि ब्रह्मास्त्रों के टकराने से विश्व नष्ट हो जाएगा, व्यास ने दोनों योद्धाओं को अपने-अपने अस्त्र वापस बुलाने का आदेश दिया। अर्जुन ने तो यह कर दिया, लेकिन अश्वत्थामा को ब्रह्मास्त्र वापस बुलाने का पर्याप्त ज्ञान नहीं था। इसलिए उसने पांडवों के अंतिम वंशज परीक्षित को मारने के लिए ब्रह्मास्त्र को उत्तरा के गर्भ की ओर मोड़ दिया। तब कृष्ण ने गर्भ में पल रहे परीक्षित को उस ब्रह्मास्त्र से सुरक्षित बचा लिया। इसके बाद उत्तरा ने कृष्ण का वर्णन किया।
उत्तरा द्वारा कृष्ण का वर्णन इतना भव्य था कि वज्रनाभि को कृष्ण की सुंदरता को पत्थरों में उकेरने के लिए कई कलाकारों को नियुक्त करना पड़ा। वज्रनाभि ने कृष्ण का वर्णन उत्तरा जैसे ही जुनून भरी आवाज़ में कलाकारों के समक्ष दोहराया। लेकिन कृष्ण की सुंदरता इतनी भव्य, इतनी पारलौकिक थी कि कोई भी कलाकार उसे अपनी मूर्ति में पूरी तरह से उकेर नहीं पाया। किसी मूर्ति में उनकी उंगलियों की सुंदरता थी, किसी में उनकी पादांगुलियों की सुंदरता तो किसी मूर्ति में उनकी हंसी की सुंदरता दिख रही थी।
वज्रनाभि ने सभी प्रतिमाओं की आराधना की। जैसे-जैसे समय बीता, वैसे-वैसे भक्त इन मूर्तियों को भारत के विभिन्न प्रांतों में ले गए। अब हम इन मूर्तियों को अलग-अलग नामों से जानते हैं: वृंदावन के बांके बिहारी, जो बांसुरी पकड़े त्रिभंग मुद्रा में नर्तक की तरह खड़े हैं; गुजरात में डाकोर के चार भुजाओं वाले रणछोड़ राय, जो युद्ध के मैदान से पीछे हट गए; उदयपुर में नाथद्वारा के श्रीनाथजी जो गोवर्धन पर्वत को ऊपर उठाए हैं; ओडिशा के साक्षी गोपाल जो अपने भक्तों के लिए साक्षी बनकर खड़े हैं; महाराष्ट्र के पंढरपुर के विट्ठल, जो अपने भक्तों के लिए कमर पर हाथ धरे रुके हैं।
दक्षिण भारत की मूर्तियों में कर्नाटक में उडुपी के कृष्ण हैं, जो चरवाहों की लाठी को पकड़े हुए हैं; आंध्र प्रदेश में तिरुमलाई के बालाजी, जो लक्ष्मी के लिए सात पहाड़ियों पर प्रतीक्षा कर रहे हैं, तमिलनाडु में श्रीरंगम के रंगनाथ, जो क्षीरसागर पर विष्णु की तरह विराजमान हैं और केरल में गुरुवायुरप्पन, जो चार भुजाओं वाला शिशु है। ये प्रतीक हिंदू धर्म की भागवत संस्कृति के आधारस्तंभ हैं।
क्या यह कहानी सच है? भक्तों के लिए यह अवश्य सच है। जब भी वे किसी मंदिर में कृष्ण की पवित्र छवि को देखते हैं, तो उन्हें लगता है कि उन्होंने कृष्ण की अतींद्रिय सुंदरता का एक अंश देखा है और उन्हें संतोष मिलता है। इतिहासकार इस कहानी को तथ्य नहीं मानेंगे, क्योंकि इतिहास विश्वास पर नहीं बल्कि प्रमाण पर आधारित है। उनके लिए यह केवल सांस्कृतिक प्रतिमाएं हैं।
इसी तरह दुनियाभर में अन्य पवित्र व्यक्तियों से जुड़ीं जगहें भी हैं। कुछ जगहों में बुद्ध के पदचिह्न हैं तो कुछ और जगहों पर बुद्ध के दांत और उनके बाल जैसे अवशेष हैं। यरुशलम में ऐसे चर्च हैं जो इस बात को चिह्नित करते हैं कि ईसा मसीह को कब दफनाया गया था। इनमें से किसी भी जगह का दावा ऐतिहासिक रूप से सिद्ध नहीं किया जा सकता। लेकिन ये जगहें आस्था के चिह्न हैं, जो अनुयायियों के जीवन को सार्थक बनाती हैं।
-देवदत्त पटनायक
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