धार्मिक कट्टरता, राजनीति और वर्तमान मीडिया कवरेज

Cover Story अन्तर्द्वन्द
डॉ. ललित कुमार

धार्मिक कट्टरता और राजनीति की पटकथा ज्यादा पुरानी तो नहीं है, लेकिन समय-समय पर इस पटकथा में लगातार बदलाव होते रहते हैं। यह पटकथा नफरती भाषणों, हिंसा और जातिवाद पर आधारित होती हैं। राजनीति में धर्म ने जब-जब एंट्री की है तब-तब राजनीति इससे प्रभावित हुई है। धार्मिक कट्टरता द्वारा नफरती हिंसा का जो बीज 90 के दशक में बोए गए, वर्तमान में उसका फल राजनीतिक शक्तियों को मिलता हुआ दिख रहा है। धर्म चाहे कोई भी हो वह कभी हिंसा की बात नहीं करता, बल्कि धर्म का काम लोगों को सदाचारी और मानवता का पाठ पढ़ाना है, जबकि राजनीति का मतलब लोगों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए सबके हित में होकर काम करना है, अब सवाल यही उठता है कि क्या यह सब बातें सिर्फ किताबों तक ही सीमित है? या फिर इसको अमलीजामा पहनाया जाना चाहिए.

मसलन धर्म के आसरे जो भी राजनीतिक शक्तियां सत्ता पर विराजमान है। उन्हें इस बात की जरा भी परवाह नहीं है कि पूरे देश में धर्म के नाम पर जो खेल खेला जा रहा है, आने वाले वक्त में उसके परिणाम कितने घातक होंगे इसका अंदाजा शायद ही किसी को हो। उनका मकसद सिर्फ धर्म को सर्वोपरि मानकर सत्ता की कुर्सी पाना है। इसलिए वे धर्म के प्रति हिंसा को उग्र रूप देने में लगे हैं। जिसके चलते न जाने कितने बेगुनाहों को इसका शिकार होना पड़ता है। राजनीति और धर्म प्रत्येक समुदाय को सबसे ज्यादा प्रभावित करते है, जो कभी भी एक दूसरे से अलग हो ही नहीं सकते। बहरहाल देश में फैली इस कट्टरता का जिम्मेदार कौन? सरकार, मीडिया या धर्म के वो ठेकेदार जो दिन-रात लोगों के दिमाग में नफरत का जहर फैला रहे हैं। धार्मिक कट्टरता के आसरे सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ावा देने वाली शक्तियां ही इस देश में नफरती हिंसा के जिम्मेदार हैं। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय समाज में धर्म ने जिस तरह की मानसिकता को जन्म दिया है। उससे राज्य दर राज्य और शहर दर शहर एक समुदाय दूसरे समुदाय को मारने मरने पर उतारू हैं.

अमेरिका और इंग्लैंड जैसे पश्चिमी देशों ने जो किया वह ध्यान देने योग्य है। याद कीजिए 90 के दशक को, जब इराक के खिलाफ युद्ध छेड़ा जा रहा था तब विकसित देशों के जरिए भारत सहित 16 देशों की गठबंधन सेनाएं इराक के खिलाफ मैदान में उतरी थी। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों ने इसकी शुरुआत की और इनकी वजह से इराक पर हमला हुआ। दुनिया को लग रहा था कि यह युद्ध तानाशाही के खिलाफ है, लेकिन उस वक्त सद्दाम के खिलाफ खूब प्रचार हुआ । कहा जाता था कि वह बहुत खतरनाक नेता है, लेकिन ऐसा साबित हो नहीं सका और उसके फौरन बाद अलकायदा जैसे तमाम संगठनों का उदय होता हैं, जो दुनिया भर में कत्लेआम जैसी घटनाओं को अंजाम देते हैं। यह सब घटनाएं सिर्फ उस प्रतिक्रिया का ही परिणाम थी, जिन्होंने जिहाद के नाम पर लोगों को मारना शुरू कर दिए ।

नफरती हिंसा को बढ़ावा देने में भारतीय मीडिया जिस मुस्तैदी के साथ धार्मिक कट्टरता को कवर करने में दिन-रात लगा है। उनकी टीवी स्क्रीन से सामाजिक सरोकार के मुद्दे लगभग गायब हो चलें हैं, क्योंकि टीवी चैनलों को लगने लगा है कि यह मुद्दा उनकी टीआरपी बढ़ाने का सबसे आसान तरीका है। लोग धर्म पर आधारित खबरों को ज्यादा तवज्जो देने में लगे हैं । इसलिए दिन-रात टीवी स्क्रीन पर छिटपुट घटनाओं का रनडाउन ‘फटाफट’ और ‘नॉन स्टॉप’ जैसी खबरों में सिमटकर रह गया है। क्योंकि रोजाना शाम होते ही न्यूज़ पैकेज धार्मिक ख़बरों के इर्दगिर्द घूमते रहते हैं, कहीं नफरती बयानबाजी तो कहीं सांप्रदायिक हिंसा, तो कहीं एक विशेष समुदाय के घर पर बुलडोजर से होती कार्यवाही। ऐसी तमाम ख़बरों को देखकर टीवी का दर्शक बड़े रोचक ढंग से मीडिया में दिखाई जाने वाली धार्मिक अपसंस्कृति को अपनाता जा रहा हैं, यानी टीवी का दर्शक खुद यह तय नहीं कर पा रहा हैं कि उसके लिए कौनसी खबर सही है और कौनसी गलत?

धार्मिक कट्टरता और धार्मिक राजनीति को मीडिया कवरेज किस तरीके से फेक न्यूज़ के रूप में परोस रहा हैं आज के समय में यह बड़ा सवाल हो चला हैं। क्योंकि हमारे समाज और पूरी दुनिया में धर्म सदियों काल से अस्तित्व में है। इसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलू भी हो सकते हैं, लेकिन ये हमेशा से एक साथ चलते आए हैं। इतिहास गवाह है कि अलग-अलग कालखंडों में दुनिया में युद्ध, हिंसात्मक और नरसंहार जैसी प्रवृत्तियों के साथ-साथ दंगों या कत्लेआम का इतिहास लिखने वाले लेखकों का भी मानना है कि इंसानियत का खून बहाने वाले ऐसे घटनाक्रम के पीछे सिर्फ धार्मिक कट्टरता की आर्थिक नीति सबसे बड़ा कारण रही है। यह बात सही है कि धार्मिक कट्टरता कभी सामाजिक उत्थान, शिक्षा, रोजगार और आर्थिक विकास का पैमाना कभी तय नहीं कर सकती, बल्कि यह समुदायों के बीच धर्म की एक लंबी रेखा खींचने का काम करती है।

धार्मिक कट्टरता कभी भी और कहीं भी नफरती हिंसा को बढ़ावा देने में लगी रहती है। आज अगर पूरी दुनिया में नजर डाले हैं, तो इससे यह साफ हो जाता है कि धर्म और पंथ से जुड़ी कट्टरता या उग्रता वर्तमान समय में लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगी है, जो इंसानियत का खून बहाने में जरा भी नहीं घबराते। धार्मिक कट्टरता की चपेट में आने वाले शिक्षा और रोजगार की आर्थिक नीतियों के ऊपर कभी भी मुखर होकर नहीं बोलते, बल्कि वह हमेशा धार्मिक पोंगापंथियों के बीच फंसकर उस गहरी खाई में फंसते चले जाते हैं। यही कारण है कि आज धार्मिक कट्टरता मनुष्य के सामने एक बड़ी चुनौती बनकर उभरी है।

इसमें कोई अपवाद नहीं है कि मीडिया सूचना या संप्रेषण का माध्यम बनकर रह गया है, बल्कि यह लोगों के विचार और उनकी सोच के निर्धारण का भी जरिया बन गया है, जो यह तय करने में लगा है कि लोगों को क्या सोचना चाहिए और क्या नहीं? यानी जबरदस्ती उन पर विचारों को थोपने की जो प्रक्रिया मीडिया के जरिए की जा रही है, वह भारतीय समाज के लिए कहीं न कहीं एक बड़ा खतरा बनता हुआ दिख रहा है। भारत में धार्मिक उग्रता का विस्फोट पिछले कुछ वर्षों में जिस तेजी से उभरा है, उससे अब यही लगने लगा है कि यह और लंबा चलने वाला है। क्योंकि धार्मिक कट्टरता का लाभ आने वाले समय में उन राजनीतिक शक्तियों को मिलने वाला है जिन्होंने इसकी नींव रखी। भारतीय मीडिया लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की दुहाई देता हुआ हमेशा नजर आता है, लेकिन अब यह आदमखोर बन चुका है, जो जाति या धर्म विशेष दूसरे समुदाय के प्रति नफरती संचार को बढ़ावा देने में कोई कसर नही छोड़ रहा हैं। इसलिए ऐसी पत्रकारिता से बचना बेहद जरूरी है, वरना यह देश जल्द ही दंगल का मैदान बन सकता है। इसमें कोई दोराय नहीं है कि धार्मिक कट्टरता से लेकर जातीय हिंसा तक में मीडिया का ही हाथ होता है। सच मानिए तो मीडिया ने कभी सामाजिक सरोकार के मुद्दों को तवज्जो ही नही दी। वह हमेशा हिंसात्मक प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने में लगा रहता है।

आज हम देख रहे हैं कि भारत का वर्तमान मीडिया लगातार इस तरह की कवरेज को बड़ी दिलचस्पी के साथ कवर करने में लगा है। मीडिया में इस तरह की खबरें सुबह से लेकर शाम तक धार्मिक और नफरती भाषणों से भरी होती है। क्योंकि उनके पास धार्मिक कट्टरता का कंटेंट प्रचुर मात्रा में होता है। जिसे वह समय-समय पर प्रसारित करने में जरा भी नहीं घबराते। उनको मालूम है कि टेलीविजन ही एक ऐसा माध्यम है, जो लाखों करोड़ों लोगों को पल भर में सूचना संप्रेषित करता है। इसलिए वह इसी माध्यम के आसरे धार्मिक उन्मादी खबरों को बड़े जोश-खरोश के साथ देश दुनिया के सामने प्रस्तुत करने में लगे हैं। लेकिन इस तरह की खबरों को एक संप्रदाय से दूसरे संप्रदाय के बीच बेतुकी होती ज़बानी जंग लगातार टीवी चैनलों में होती फालतू की बहसों से दर्शकों को भ्रमित करने का काम किया जा रहा हैं।

वर्ष 2002 गुजरात दंगों (सांप्रदायिक) के मीडिया कवरेज का जब पहली बार भारतीय मीडिया द्वारा लाइव टेलीकास्ट किया गया, जो पूरी तरह से धर्म पर आधारित था। इसके बाद पूरी दुनिया में धर्म को लेकर एक लंबा विमर्श भारत में चलता है, जिसके चलते भारतीय मीडिया को कटघरे में खड़ा करने का काम किया जाता है। क्योंकि उसने ऑब्जेक्टिवली उस दंगे को दिखाया था। भारतीय मीडिया में सब्जेक्टिव और ऑब्जेक्टिव जो भी क्वालिटेटिव परिवर्तन आज देखने को मिलते हैं। वह पिछले 20-22 सालों में केवल प्रॉफिट गेनर के रूप में सामने आया है, वह तस्वीरों को कॉमेडीटी के रूप में ट्रांसफार्म करके हर घटना को अपने अनुसार चलाता है या दिखाता हैं, फिर चाहे वह धार्मिक उन्माद हो या चाहे वह कट्टरता हो, यानी उसे वह अलग-अलग कोण से बेचने का काम करता है, तो जाहिर है कि मीडिया उसको कई एंगल से दिखाएगा ही।

कोविड-19 के समय में भी तब्लीगी जमात के लोगों पर मीडिया में बड़े जोर शोर से यह कवरेज किया जा रहा था कि तब्लीगी लोगों द्वारा पूरे देश में कोरोना फ़ैलाने में बड़ी भूमिका रही हैं, जबकि एएनआई न्यूज़ एजेंसी के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट में दी गई अर्जी पर दलील देते हुए वकील एजाज मकबूल ने कहा कि मीडिया इस पूरे मामले को सांप्रदायिक रूप देने में लगा है। मीडिया में इस तरह की रिपोर्टिंग नफरती भावनाओं को बढ़ावा दे रही है। जैसे ‘संघ के ज्ञान से कट्टरता पर लगाम?, गर्दन काट कट्टरता पर मुस्लिमों का आंदोलन कब तक?, मदरसों में ही दी जा रही है सर काटने की तालीम!, मोदी विरोध के लिए संघीय ढांचे पर प्रहार! और हिंदुस्तान का खाओगे… देश को ही देहलाओगे’ आदि जैसी खबरें मीडिया में रोजाना प्राइम टाइम के जरिए टीआरपी बटोरने के लिए जनता को बेवकूफ बनाने में लगी है। इसके साथ-साथ उदयपुर और अमरावती में जिस तरह से गर्दन रेतकर हत्याएं की गई, वह सब नफरती हिंसा को बढ़ावा देने का ही नतीजा रही हैं। नुपुर शर्मा के मामले में पहले ही भारतीय मीडिया पूरे विश्व में अपनी साख गवां चुकी हैं, इसलिए मीडिया को अब यह खेल खेलना बंद कर देना चाहिए। अन्यथा आने वाले समय में लोगों को आम आदमी के मुद्दों से दूर होती मीडिया के ख़िलाफ़ सड़कों पर आकर आंदोलन करना पड़ेगा।

(लेखक श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, भिलाई में पत्रकारिता के सहायक प्रोफेसर हैं)

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