भारत में धर्मों का जनसँख्या खाता और जनसँख्या नीति

अन्तर्द्वन्द

विश्व, आज भी जनसँख्या विस्फोट के दौर से गुजर रहा है। विश्व जनसँख्या दिवस पर जारी यूएन की रिपोर्ट बताती है कि 15 नवम्बर, 2022 को विश्व की जनसँख्या 8 बिलियन हो जाएगी और सन 2030 एवम सन 2050 में इसके बढ़ कर क्रमसः 8.5 बिलियन और 10.4 बिलियन हो जाने की संभावना है । तो पृथ्वी पर जन समुदाय का सैलाब हिलोरे मार रहा होगा । लेकिन आज की ही जनसँख्या क्या जन सागर से कम है ? एक ही सकारात्मक तथ्य यह है कि विश्व प्रजनन दर घट रही है । विश्व की महिलाओं के उनके पूरे प्रजनन काल में अब कम बच्चे (सन 1950 में 5 बच्चों की तुलना में सन 2021 में 2.3) पैदा हो रहे हैं। इसके और घट कर सन 2050 में 2.1 रह जाने की संभावना है । स्पष्ट है कि विश्व की महिलाएं कम बच्चे पैदा करने की राह पर चल निकलीं हैं ।

भारत कहाँ खड़ा है इस रिपोर्ट में?

रिपोर्ट बताती है कि भारत सन 2023 में चीन को पीछे छोड़ते हुए विश्व का सर्वाधिक जनसँख्या वाला राष्ट्र बन जायेगा । तो हममें से अनेकों के लिए यह गौरव का विषय नहीं होगा क्या? भारत माता के असंख्य सन्तान, भारत को देशों के बीच सिरमौर नहीं बना देंगे? लेकिन दूसरी तरफ, माल्थसवादी इस प्रवृत्ति से निराशा के सागर में डूबते उतराते दिखाई देंगे । ऐसा क्यों होगा? क्योंकि असंख्य जन समूह कि अगणित समस्याएं भी होंगी।

समस्याएं, भूख, गरीबी, असमानता, बेरोजगारी, संसाधनों और निवेश की कमी बन कर क्या भारत को नहीं डसेंगी ? क्या भारत की बढ़ती जनसँख्या, बूढ़े होने की डगर पर अब अग्रसर नहीं है और जनसांख्यिकीय लाभांश का अवसर, बेरोजगारी के संजाल में फँस कर समाप्त नहीं हो रही है ? वस्तुतः बढ़ती जनसँख्या, एक तरफ तो अनगिनत अवसरों को जन्म देने में सहायक होती है तो दूसरी तरफ गंभीर कष्टों का द्वार भी खोल देती है । बढ़ती जनसँख्या के खतरे और भी हैं । अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक प्रश्न अनावश्यक और अनावश्यक चिंताए, आवश्यक बन कर उभरने लगतीं हैं और देश उनके भॅवर जाल में फ़सने लगता है, जैसा कि अभी हो रहा है ।

सन 2014 से ही प्रधान मंत्री मोदी, देश को जनसांख्यिकीय लाभांश उठाने के लिए प्रेरित करने वालों के पुरोधा बनने की कोशिस में हैं । भारत की नौजवान जनसँख्या के सहारे विश्व अर्थव्यवस्था में पैर ज़माने, लाभांश उठाने और धाक ज़माने की कल्पना रही है । सोच थी कि 21 सदी भारत की होगी । यह स्वप्न इसी नौजवान और कौशल विकास से पूर्ण जनसँख्या के सहारे ही परवान चढ़ना था । यद्यपि यह भी सच है कि यह स्वप्न अब दिवा स्वप्न बनने की राह पर है क्योंकि सरकार और समाज असफल रहे हैं इस सोच को अमली जामा पहनाने में । लेकिन क्या हम स्वप्न देखना भी बंद कर दें जो कि सफलता प्राप्त करने की पहली सीढ़ी होती है। किन्तु इन वास्तविक चिंताओं का स्थान अब भारत की जनसँख्या के नए और चुभते हुए, किन्तु कम आवश्यक प्रश्नों और पहलुओं ने ले लिया है ।

मुख्य मंत्री योगी ने विश्व जनसँख्या दिवस पर जनसँख्या नियंत्रण सम्बन्धी अपनी चिंता जाहिर की थी । उन्होंने जनसँख्या नियंत्रण को तो आवश्यक माना किन्तु कहा की इससे जनसांख्यिकीय असंतुलन की स्थिति भी पैदा न हो पाए। उन्होंने कहा कि ऐसा न हो की एक वर्ग विशेष की आबादी तो तेजी से बढ़ जाय और जो यहाँ के मूल निवासी हैं उनकी आबादी कम हो जाय । उनका मानना था कि जिन देशों की जनसँख्या ज्यादा है, वहाँ जनसांख्यिकीय असंतुलन चिंता का विषय बनता जा रहा है। इससे धर्मों की जनसांख्यिकीय पर विपरीत असर पड़ता है जिसके कारण एक समय के बाद वहाँ अव्यवस्था, अराजकता जन्म लेने लगतीं है । अब उनके इस मन्तब्य और दृष्टिकोण को समझने, विश्लेषण करने के पहले भारत के महत्वपूर्ण धर्मों की जनसँख्या खाते की पड़ताल भी करने की जरूरत है जिससे उनके कथन का वास्तविक विश्लेषण हो सके और बेहतर जनसँख्या नीति के सम्बन्ध में हम सोच सकें ।

मजहबी उन्माद और घाव के दंश को झेलने के बावजूद भी भारत आज़ादी के बाद भी अनेक धर्मों का तीर्थ स्थल बन कर उभरा है । हम सब अपने अपने मजहबों को मानने, मनाने के बावजूद भी जिंदगी जीने में भारतीय ही रहे हैं। आर्थिक-सामाजिक संरचना,जुड़े रहने का महत्वपूर्ण सेतु रही है। बेरोक-टोक प्राकृतिक विधान के अनुरूप अपनी सन्तानों को समय पर जन्म देकर भारत माँ की गोद में हम सब समर्पित करते रहे हैं बिना समझे कि हम कौन से धर्मावलम्बी हैं या की हमे अपने मजहब की तादाद बढ़ानी है। लेकिन वास्तविक जगत में तो हम हैं ही विभिन्न मजहबों को मानने वाले और इसलिए प्रश्न भी उठते रहे हैं की आजादी के पश्चात कौन से वर्गों ने जनसँख्या विकास में तेज छलांग लगाई है और किन्होंने देश के विकास के लिए अपने पर नियंत्रण लगाया है ।इस बहस ने अब जोर भी पकड़ लिया है क्योंकि योगी जी ने अपनी चिंता भी प्रकट कर दी है ।

सन 1951 में भारत की जनसँख्या 36.1 करोड़ थी जो सन 2011 में बढ़ कर 121 करोड़ और सन 2021 में 138 करोड़ (अनुमानित) हो गई । सन 1951 में विभिन्न धर्मावलम्बिओं की जनसँख्या थी -हिन्दू 30.5 करोड़ (84.1%), मुस्लिम 3.54 करोड़ (9.8%), क्रिस्चियन 0.83 करोड़ (2.3%), सिख 0.63 करोड़ (1.89%), बौद्ध (0.74%) और जैन (0.46%)। सन 2011 में हिन्दू, इस्लाम और क्रिस्चियन धर्मों को मानने वालों की जनसँख्या क्रमसः थी- 96.6 करोड़ (79.8%), 17.2 करोड़ (14.2%) और 2.78 करोड़ (2.30%) ।

सन 2021 में एक अनुमान के अनुसार भारत की जनसँख्या 137.2 करोड़ थी जिसमें हिन्दू, मुस्लिम , क्रिस्चियन और सिख धर्मों की जनसँख्या क्रमसः थी 109 करोड़ (79.4% ), 20 करोड़ (14.57%), 3.12 करोड़ (2.27%) एवं 2.37 करोड़ (1.7%) थी । तो सभी धर्मों की जनसँख्या बढ़ी है इन सत्तर वर्षों में किन्तु जहाँ अन्य धर्मों और विशेष रूप से हिन्दुओं का आबादी में प्रतिशत(4 से5%) घटा है वहीं मुस्लिम आबादी का प्रतिशत काफी (4 से 5%) बढ़ा है । एक अन्य अनुमान के अनुसार सन 2050 में भारत की आबादी में हिन्दू घट कर 77 प्रतिशत, क्रिस्चियन 2 प्रतिशत और मुस्लिम मतावलम्बी बढ़ कर 18 प्रतिशत हो जायेंगे ।

अब देखा जाय इन सभी मजहबों के बढ़ने की रफ़्तार कैसी थी ?

भारत की जनसँख्या विकास दर विशेष रूप से सन 1990 के पश्चात धीमी पड़ गई है । यह वृद्धि दर सन 1951-61 की दशाब्दी में 2.16 प्रतिशत प्रतिवर्ष थी जो की सन 2001-2011 की दशाब्दी में घट कर 1.77 प्रतिशत प्रतिवर्ष हो गई । इन्हीं समयावधीओ में यह दर हिन्दुओं के लिए घट कर क्रमसः 2.07 एवं 1.67 प्रतिशत प्रतिवर्ष और क्रिश्चियन्स की 2.90 और 1.57 प्रतिशत प्रतिवर्ष थी । मुस्लिम आबादी की बढ़ने की रफ़्तार आजादी के बाद शुरू में कम हुई और सन 1971-81 तक घटी (3.27 प्रतिशत से 3.07 प्रतिशत प्रतिवर्ष) किन्तु सन 1981-91 की दशाब्दी में यह तेजी से बढ़ कर 3.29 प्रतिशत प्रतिवर्ष हो गई जो कि आजादी के समय की वृद्धि दर से भी ज्यादा थी । किन्तु इस दशाब्दी के पश्चात उनकी आबादी में बढ़ने की रफ़्तार में कमी आई है और अब सन 2001-2011 की दशाब्दी में जनसँख्या वृद्धि दर घट कर 2.47 प्रतिशत प्रतिवर्ष हो गई है । तो हम कह सकते हैं की जनसँख्या वृद्धि दर को घटाने के मामले में मुस्लिम धर्मावलम्बी, हिन्दुओं की तुलना में वर्षों पीछे हैं। लेकिन एक सकारात्मक पहलू यह है की उन्होंने अपनी वृद्धि दर को रोकने की कोशिश शुरू कर दी है और मुस्लिम वर्ग की स्त्रियों में भी अन्य सभी धर्मों की महिलाओँ की ही तरह प्रजनन दर में कमी लाने की सोच बलवती हुई है ।

नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे-5 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में कुल प्रजनन दर सन 2019-21 में कम होकर 2.0 ही रह गई है । इस दौरान हिन्दू महिलाओं में प्रजनन दर 1.94 रही । जबकि क्रिश्चियन, सिख, जैन, बौद्ध महिलाओं में यह क्रमसः 1.88, 1.61, 1.6,1.39 थी ।इसी समयावधि में मुस्लिम महिलाओं की प्रजनन दर 2.2 रही । तो सभी वर्गों की महिलाओं को अब कम बच्चे पैदा हो रहे हैं जिससे माल्थसवादी प्रसन्न होंगे । कारण क्या है ? विवाह की औसत आयु बढ़ी है । शिक्षा का प्रसार हुआ है । परिवार नियोजन के साधनों के उपयोग में वृद्धि हुई है । इन सभी परिवर्तनों से मुस्लिम महिलाएं अछूती नहीं रह सकती हैं । बदलाव अपरिहार्य है ।

धर्मों के उपरोक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि जनसँख्या असंतुलन की स्थिति है । जनसँख्या वृदि दर और कुल प्रजनन दर अभी भी मुसलमानों में राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है । दूसरी तरफ, हिन्दुओं में जनसँख्या वृद्धि दर और प्रजनन दर तेजी से घट रही है तो कालांतर में अव्यवस्था फ़ैल सकती है । किन्तु सिक्के का दूसरा पहलू भी है । यदि हम मजहबी चश्में से इन प्रश्नों को न देखें और देश कि जनसँख्या की संरचना का विवेचन करें तो जनसँख्या सम्बन्धी दूसरी तस्वीर और दूसरी तरह का भय दिखाई देगा। क्या है वह? भारत की जनसँख्या अब निकट भविष्य में स्थिर हो जाएगी और सन 2100 तक घट कर 91 करोड़ (यूएन रिपोर्ट) हो जाने की संभावना है । तो जनसँख्या में और कमी लाने का कोई भी प्रयास जैसा की अभी हो रहा है और विभिन्न प्लेटफॉर्मो (मंचों) द्वारा मांग भी हो रही है, भविष्य में अनेकों संकटों जैसे जनसँख्या का घटना और बूढ़ी होना, जनसांख्यिकीय लाभांश न कमा पाना, कुछ वर्गों (विशेष रूप से सामान्य वर्ग)के समाप्त होने के खतरे का पैदा हो जाना आदि उत्पन्न नहीं हो जायेगा ? क्या यह सच नहीं कि मुस्लिम महिलाओं की प्रजनन दर को छोड़ दें तो अन्य धर्मों कि महिलाओं की प्रजनन दर, जनसँख्या प्रतिस्थापन दर (2.1) की तुलना में भयावह रूप में कम हो गई है । तो क्या मुस्लिम महिलाओं की थोड़ी ऊंची प्रजनन दर (2.2) ने भारत के औसत प्रजनन दर को, प्रतिस्थापन दर के करीब रखने में सहायता नहीं की है और जनसँख्या के घटने से उत्पन्न होने वाली भयावह समस्याओं को नहीं रोका है? वस्तुतः वे धन्यवाद् कि ही पात्र हैं की जानें-अनजाने ही सही उन्होंने इस समस्या को विकट होने से रोके रखा है । अब यदि असंतुलन बढ़ा है तो योगी जी क्या करेंगे? क्या आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को निर्देश देंगे कि वे हिन्दू महिलाओं को ज्यादा बच्चे पैदा करने की सलाह दें और केवल मुस्लिम महिलाओं में ही जन्म निरोध के साधनों को बांटा करें। और क्या मुस्लिम धर्म भिन्न महिलायें अधिक संतान पैदा करने की उनकी सलाह मानेंगी ? लगता तो नहीं है क्योंकि सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ तो उन्हें अपने बच्चों की संख्या को सीमित करने के लिए बाध्य कर रही हैं । तो जनसँख्या नीति बनाते समय अब समझाना होगा की जनसँख्या का एक सीमा के बाद घटना देश के लिए ज्यादा घातक होगा और अव्यवस्था, काम करने वालों की कमी से ज्यादा फैलेगी बनिस्बत धर्मों के असंतुलित विकास से। अतः हम दो, हमारे दो अपनाना ही होगा ।

(लेखक का आभार उन लेखकों, प्रकाशकों एवं संस्थाओ को है जिनकी रिपोर्टो एवं लेखन सामग्री का उपयोग इस आलेख को तैयार करने में किया गया है)

(लेखक विमल शंकर सिंह, डी.ए.वी.पी.जी. कॉलेज, वाराणसी के अर्थशास्त्र विभाग में प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष रहे हैं)