TRP के खेल में फंसी मीडिया: स्वच्छ पत्रकारिता तोड़तीं जा रही दम

अन्तर्द्वन्द

स्वतंत्रता की प्राप्ति के दौरान तत्कालीन हिंदी पत्रकारिता ने भी स्वंतंत्रता के आंदोलन में महती भूमिक निभाई थी , मशहूर कवियत्री महादेवी वर्मा ने कहा था “पत्रकारों के पैरों के छालों से इतिहास लिखा जाता है” यानि पत्रकार हर इतिहास में अपना विशिष्ठ स्थान रखते हैं।

स्वतंत्रता के पूर्व पत्रकारिता ने न केवल ब्रिटिश हुकूमत से टक्कर ली बल्कि लोगों को अपनी आजादी को पाने के लिए प्रेरित और जागरुक किया और उस समय अख़बारों की ताकत इतनी हो गयी थी कि अकबर इलाहाबादी का शेर उस पर प्रासंगिक हो गया था “न खींचो कमान न निकालो तलवार, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो” लेकिन कहते हैं न वक्त के साथ हर चीज बदल जाती है और पत्रकारिता भी इससे अछूती भला कैसे रह सकती थी सो उसने भी अपने स्वरुप में बदलाव लाना शुरू कर दिया लेकिन दुखद तथ्य तो ये है कि जो बदलाव पत्रकारिता में आया वो पाठकों और दर्शकों की उम्मीदों के विपरीत रहा l कई बरस पहले तक प्रिंट मीडिया ही वजूद में था उसके बाद दूरदर्शन आया, सरकारी का नियंत्रण होने के कारण वो स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता नहीं कर पाया धीरे से निजी चैनल ने पत्रकारिता के आँगन में प्रवेश किया और पाठकों को एक नए अनुभव का अहसासु हुआ , ख़बरों को चित्रों के साथ देखना यद्पि दूरदर्शन ने सिखला दिया था लेकिन निजी न्यूज़ चैनल्स ने उसे और भी व्यापक बनाया , धीरे धीरे कारपोरेट घरानों ने पत्रकारिता के संसार में अपनी भागीदारी शुरू की उन्हें लगा कि पत्रकारिता के माध्यम से वे सरकार पर अपना दवाब बना कर अपने दीगर कामों को आसानी से चला सकेंगे और यहीं से शुरू हुआ पत्रकारिता का पतन बड़े बड़े वेतन में रखे गए संपादक पत्रकारिता कम और लाइजिनिंग के काम में जुट गए l

ऐसे में स्वतंत्रता के पहले के सम्पादकों के बारे में जो बात कही जाती थे वो कैसी थी इस बात का अंदाजा इस विज्ञापन से लगाया जा सकता है जो उस वक्त “स्वरज्य अखबार” के संपादक के लिए निकाला गया था जिसमें कहा गया था “स्वराज्य अखबार को संपादक चाहिए, वेतन दो सूखी रोटियां एक गिलास ठण्डा पानी और हर सम्पादकीय पर जुर्माना या जेल” क्या आज ऐसे विज्ञापन और संपादक के कल्पना की जा सकती है नहीं l दरअसल वर्तमान में अखबार या न्यूज़ चैनल को चलाना किसी आम पत्रकार के बस की बात नहीं है l अखबार ही आज की तारीख में एक ऐसा उत्पाद है जो अपनी लागत से कम कीमत पर बिकता है, एक सोलह पृष्ठीय रंगीन अखबार की दस रूपये से लेकर बारह रूपये तक पड़ती है और वो बिकता है चार या पांच रूपये में, ऐसे में हर अखबार पर पांच या छह रूपये का घाटा कोई आम पत्रकार कैसे उठा सकता है, यही कारण है कि अधिकतर पत्रकारिता उद्योगपतियों, बिल्डरों, नेताओं और काली कमाई करने वाले लोगों के हाथों में जा चुकी है पहले “पत्रकारिता घराने” हुआ करते थे जो पीढ़ियों से पत्रकारिता में साक्रिय थे लेकिन बाद में उन्होंने भी दम तोड़ दिया और उनके स्वच्छ पत्रकारिता करने वाले अखबार पूंजीपतियों के हाथों चले गए l

वर्तमान पत्रकारिता को इस आधार पर देखा जा सकता है “जनोन्मुखी पत्रकारिता” , “सेठाश्रित पत्रकारिता” और “राजाश्रित पत्रकारिता” देखने में हमें लगता है कि जनता की समस्याओं को अखबार या चैनल्स उठाते हैं, भृष्टाचार के खिलाफ भी कलम चलते हैं स्टिंग आपरेशन भी करते हैं लेकिन ये तब तक ही संभव है जब तक अखबार का मालिक यानि सेठ इसकी इजाजत देता हैं जिस दिन उसका हुक्म आ जाता हैं कि अमुक के खिलाफ नहीं लिखना है या नहीं दिखाना हैं उस दिन से पत्रकार की कलम रुक जाती है लेकिन सेठ के सामने भी समस्या ये है कि वो भी “राजा”यनि “सरकार” पर आश्रित है इसलिए सरकारों से पंगा मोल लेना कोई नहीं चाहता क्योकि विज्ञापनों का सबसे बड़ा सोर्स सरकार ही होती है ऐसे में यदि सरकार की निगाह टेढ़ी हो जाये तो न केवल उसके विज्ञापन बंद हो जाते हैं बल्कि सेठो के दीगर धंधो को भी नुकसान पंहुच सकता है l

इधर प्रिंट मीडिया के अलावा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी पत्रकारिता का कबाड़ा कर रखा है नेशनल कहे जाने वाले न्यूज़ चैनल्स में से एकाध को छोड़ दिया जाए तो बाकी तमाम चैनल्स सरकार की भटैती और विपक्ष को कमजोर करने के अजेंडे पर काम कर रहे हैं उसमें काम करने वाले पत्रकारों और एंकर्स की ये मजबूरी है, पहले अख़बारों में, चैनल्स में पत्रकार हुआ करते थे अब उनकी हैसियत एक बाबू की होकर रह गयी है , अब अख़बारों को संपादक नहीं बल्कि प्रबंध संपादक की ज्यादा आवश्यकता हैl वो जमाना चला गया जब अखबार या पत्रिकाएं संपादक के नाम से पहचानी जाती थी चाहे वो “धर्मयुग” के संपादक धर्मवीर भारती हों, सारिका के संपादक कमलेश्वर हों, साप्ताहिक हिंदुस्तान के श्याम मनोहर जोशी हों, ब्लिट्ज के संपादक आरके करंजिया हों, रविवार के संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह हों करंट के संपादक अयूब सैयद हों, दिनमान के संपादक रघुवीर सहाय हों र इंडियन एक्सप्रेस के सम्पादक अरुण शोरी हों या जनसत्ता के संपादक प्रभाशा जोशी, आज है ऐसा कोई संपादक जिसके नाम से वे अखबार या पत्रिका जानी जा सके, नहीं है l

निश्चित रूप से ये पत्रकारिता का नया दौर है प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया. सभी चैनल्स में टीआरपी पाने की होड़ है क्योकि ये टीआरपी उसके विज्ञापनों की रीढ़ की हड्डी है सरकारों के करीब कैसी आया जाए, इसकी भी स्पर्धा चल रही है, चैनल्स में काम करने वालों को एक अजेंडा थमा दिया जाता है ताकि वे उससे इतर कोई बात न करें और न ही दिखाएं , प्रिंट मीडिया के भी वो ही हाल हैं अखबार चलाने के लिए करोडो रूपये चाहिए और करोड़ों रुपया वो ही खर्च कर सकता है जो उद्योगपति हो जिसके कई तरह के धंधे हों ऐसी स्थिति में निष्पक्ष पत्रकारिता की उम्मीद नहीं की जा सकती लेकिन ये भी कहा जाता है कि जब रात बहुत गहरी हो जाती है तो समझिये कि सुबह होने वाली है यही आशा कलमजीवियों को ज़िंदा रखे हुए हैं।

– चैतन्य भट्ट