मेक इन इंडिया का जोर: दीपावली पर बाजार में देसी लाइट्स और ग्रीन पटाखों की धूम

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देश के जितने भी लाइसेंस प्राप्त डीलर हैं, उन्हें केवल ग्रीन पटाखे बनाने की इजाजत मिली है. सिंथेटिक पटाखे बनाने पर पाबंदी है. हालांकि यह पाबंदी पूरी तरह से अमल में नहीं दिखती क्योंकि सिंथेटिक पटाखे अभी भी दिख जाते हैं. हालांकि देश की नामी पटाखा कंपनियां ग्रीन पटाखे बना रही हैं. इससे अर्थव्यवस्था को दोहरा लाभ हो रहा है. एक तो प्रदूषण 30 परसेंट तक घट जाता है और दूसरा नुकसान पहुंचाने वाले केमिकल संसाधनों को बर्बाद नहीं करते. इन केमिकल के प्रभाव को रोकने के लिए सरकार को करोड़ों रुपये खर्च करने होते हैं. ग्रीन पटाखे इस खर्च को बचाने में मदद करते हैं.

स्थानीय कारीगरों को फायदा

इस तरह के पटाखे स्थानीय स्तर पर छोटे-छोटे कारीगर भी बनाते हैं. इनमें फूलझड़ी, फ्लावर पॉट्स, चरखी, आकाशी यानी कि स्कॉई सॉट्स या रॉकेट और पेंसिल शामिल हैं. इसे बनाने वालों को सिंथेटिक पटाखे बनाने वाले बिजनेस से अधिक फायदा हो रहा है. ऐसे पटाखे स्थानीय और बडे़ स्तर पर बनाए जा रहे हैं जिनकी कीमतें सिंथेटिक पटाखे से 50 से 60 परसेंट अधिक होती है. इससे मैन्युफैक्चरर्स को पहले से अधिक फायदा मिल रहा है.

दूसरी ओर, ग्रीन पटाखे का कच्चा माल अधिकांश मेक इन इंडिया के तहत तैयार होता है जिसका फायदा बनाने वालों को मिलता है. ग्रीन पटाखे का कच्चा माल सिंथेटिक पटाखे की तुलना में 40 से 50 परसेंट महंगा होता है.

देसी लाइट बनाने का धंधा जोरों पर

इसी तरह दिवाली लाइट्स यानी कि लड़ियों का बिजनेस भी पहले से बढ़ा है. सरकार ने अनुरोध किया था कि त्योहारों पर अपने देसी प्रोडक्ट की इस्तेमाल करें जिसके बाद लोगों ने चाइनीज लाइटों या मूर्तियों का बहिष्कार शुरू कर दिया. इसके बाद देश में ही मेक इन इंडिया अभियान के तहत लाइटों का कारोबार बड़े पैमाने पर शुरू हुआ है. लाइट बनाने का बिजनेस बहुत अधिक पूंजी की मांग नहीं करता और कोी व्यक्ति घर बैठे कम लागत में यह काम शुरू कर सकता है.

-एजेंसी


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