जानिए क्यों हैं दुनियाभर में Goblin Mode की चर्चा, जो बना वर्ड ऑफ द ईयर

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कब और कैसे हुआ वायरल

पहली बार गॉब्लिन मोड शब्द कोविड-19  के समय चलन में आया. जब लॉकडाउन खत्म हुआ और लोगों ने घर से बाहर निकलना शुरू किया, तब यह शब्द उन लोगों के लिए इस्तमाल किया जाने लगा जिन्हें लॉकडाउन के बाद का जीवन रास नहीं आ रहा था. फरवरी 2022 में एक मजाकिया ट्वीट के जरिए ये शब्द फिर से ट्रेंड में आया और सोशल मीडिया में खूब वायरल हुआ. जिसके बाद गॉब्लिन मोड ने मैगजीन और अखबारों में भी अपनी जगह बना ली.

एक पात्र था गॉब्लिन

बचपन में कहानियों में एक गंदा, बदबूदार, वेताल जैसा कोई पिशाच होता था जो हमेशा बुरे काम करता था उसे ‘गॉब्लिन’ कहते थे। 100 से भी ज़्यादा वर्ष पुरानी एक फ्रांसीसी कहानी में तीन छोटे बच्चों की दादी उन्हें हिदायत देकर जाती हैं कि घर के बाहर मत निकलना वहां ‘गॉब्लिन’ घूम रहा है। भेष बदलकर तुम्हें उठा ले जाएगा। पर बच्चों ने दादी की नहीं मानी और बाहर खेलने निकल गए। वहां ‘गॉब्लिन’ खच्चर का रूप धर के तैयार था। उसने बच्चों को पीठ पर बिठाकर घुमाने का न्योता दिया। बच्चों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। और भी कुछ बच्चों को बुलाकर बिठा लिया। गॉब्लिन उन सबको समुद्र की तरफ़ ले गया, बच्चे बड़े ख़ुश थे, तालियां बजा रहे थे। दादी ने रास्ते में देख लिया। वो भयभीत होकर चिल्लाने लगीं। उनके पीछे भागकर उन्हें रोकने लगीं। बच्चे दादी को चिढ़ाने लगे, गॉब्लिन के कान मरोड़कर कहने लगे- और तेज़, और तेज़। गॉब्लिन फर्राटे भरता हुआ समुद्र के भीतर चला गया और उसने सारे बच्चों को बीचों-बीच जाकर डुबो दिया। बूढ़ी दादी किनारे खड़ी रोती रह गईं। यह कहानी बच्चों के लिए क्यों लिखी गई थी, यह तो नतीजे से ज़ाहिर ही है।

बदलाव ने लिया विद्रोह का रूप

जीवन जीने का यह ढंग, एक तरीक़े से महामारी के दौर में उपजा माना जा सकता है। तब किसी को भी प्रस्तुति या सामाजिक मान्य तरीक़े से जीने की परवाह न करने की छूट मिली थी। ‘घर में ही तो रहना है’ वाला रवैया था। बाद में, इसके विपरीत ढंग सोशल मीडिया पर लोकप्रिय होने लगे, ख़ूब व्यवस्थित जीवन जीना, साफ़-सुथरे व शानदार ढंग से ख़ुद को प्रस्तुत करना। सामाजिक व आर्थिक हालात से लोगों की शिकायतें बननी शुरू हो चुकी थीं। महामारी ने बिगाड़ने में समय नहीं लगाया लेकिन संभलने में समय लगना था, बस इसी दौरान ‘गॉब्लिन’ वाला विद्रोही रवैया सिर उठाने लगा। सोशल मीडिया पर जितना ज़िक्र व्यवस्थित जीवनशैली का होता, उतना ही ‘गॉब्लिन’ वाले ब्लॉग्स तारीफ़ें बटोरते। इसका नतीजा इस तथ्य में देखा जा सकता है कि यह शब्द ‘ऑक्सफोर्ड वर्ड ऑफ़ द ईयर’ के रूप में चुना गया। इसको 93 प्रतिशत वोट मिले थे।

गॉब्लिन’ का मानवीय अवतार दिखता कैसा है?

‘पूरा दिन सोफ़े या बिस्तर पर अलसाते हुए, किसी वेब सीरीज़ को म्यूट पर चलाए रखना, सोशल मीडिया पर भी लगातार उंगलियां चलाना, बिना थाली में परोसे जाने की परवाह किए सीधे ही कुछ भी खाते रहना, पाजामे में घूमना और बिना आईना देखे, यूं ही बिखरे हाल घर के पास के स्टोर से पैकेटबंद सामान लाकर फिर घर में पड़े-पड़े टीवी या मोबाइल देखना।’ यह केवल एक शक्ल है। आपको इसके और रूप देखने को मिल सकते हैं।

कर्महीनता यानी अवसाद

हम अब इस ‘गॉब्लिन’ को आदर्श मानकर सहर्ष डूबने चले हैं? मैंने कई लोगों से चर्चा की। उनका जवाब था, ‘नहीं मैम, यह जीवनशैली तो तनावमुक्तों का विषय है।’ मुझे फिर भी ‘गॉब्लिन मोड’ आकर्षित नहीं कर पाया। कर्मण्येवाधिकारस्ते… कर्म ही जीवन है, गीता की इस गूंज के बीच पले-बढ़े हम, जब मनोविज्ञान की पढ़ाई करने विदेश गए तब भी हमने यही पाया कि मानव मन के स्वस्थ होने का एक सबसे बड़ा लक्षण है ‘काम के प्रति उसका उत्साह।’ अवसाद को पहचानने का एक मुख्य लक्षण है काम से मन हट जाना। ऐसे में ‘गॉब्लिन मोड’ का ट्रेंड बनाना कितना घातक हो सकता है, यह हम समझ सकते हैं। जो व्यक्ति अवसाद से ग्रसित है और वो या उसके दोस्त, परिवार वाले यह समझ बैठें कि यह तो केवल गॉब्लिन मोड में है, तो उसे सही इलाज नहीं मिल पाएगा।

आराम कौन नहीं चाहता

हम सबमें एक ‘अंदरूनी गॉब्लिन’ मौजूद है, जो सिर्फ़ मज़े से रहना चाहता है। वो हमें निरंतर उकसाता है किसी भी नियम, क़ानून और बंधन को न मानने के लिए। गॉब्लिन मोड का सर्जन भले ही सोशल मीडिया पर हो रहे अत्यधिक प्रदर्शन के तनाव की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ हो पर अपने अंदर के ‘गॉब्लिन’ के हाथ हम अपने जीवन का रिमोट नहीं दे सकते।

कर्म है, तो सेहत है

श्रीकृष्ण के अलावा इस युग के कई मनोवैज्ञानिकों ने कर्म की प्रधानता पर अथक चिंतन और शोध किया। चाहे वो विक्टर फ्रैंकल हों या मार्टिन सेलिगमैन, सभी जीवन के उद्देश्य को, प्रयोजन को, मानसिक स्वास्थ्य और आनंद से जोड़ते हैं। जीवन कठिन है पर इन्हीं कठिनाइयों के बीच जीवन को जीने लायक़ बनाया जा सकता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मन और बुद्धि का सामंजस्य बिठाकर, अपने विवेक से निरंतर कर्म करने में ही जीवन सार्थकता है।

यह बात ज़रूर है कि समाज या सोशल मीडिया के अत्याधिक दबाव में ख़ुद से अपनी क्षमता के बाहर अपेक्षा करना और तनावपूर्ण जीवन जीना भी उतना ही हानिकारक है। पर उसका समाधान यह भी नहीं है कि ‘गॉब्लिन मोड’ जैसे ट्रेंड के वशीभूत होकर हम जीवन को जीना ही छोड़ दें और उसे जीवनशैली का नाम दे दें।

स्वयं को पहचानकर, अपनी प्रतिभा और रुचि के अनुसार अपने जीवन के लक्ष्य तय करना और उनको प्राप्त करने के लिए प्रतिबद्ध होकर कार्य करना बंधन नहीं अपितु जीवन का सार है। ऐसा करते हुए अपने मन की भी उपेक्षा ना हो, शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य भी उत्तरोत्तर निखरता जाए, ऐसी जीवनशैली का ‘समग्र मोड’ सदा का ट्रेंड बन आए।

Compiled: up18 News