जमानत देने का आधार क्या हो…जानिए सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस

Cover Story

इस फैसले के बाद जस्टिस अय्यर ने 1978 में गुदीकांति नरसिंह महुलु केस में यह बात दोहराई थी। 1980 में सुप्रीम कोर्ट ने गुरुबख्स सिंह बनाम पंजाब केस में कहा था कि जमानत को दंडात्मक उपाय के तौर पर खारिज नहीं किया जाना चाहिए। जमानत का उद्देश्य यह है कि आरोपी की ट्रायल के दौरान उपस्थिति सुनिश्चित हो। जमानत को सजा के तौर पर नहीं देखा जा सकता।

सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस

7 अक्टूबर 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने चार्जशीट के बाद जमानत के मामले में गाइडलाइंस तय किए थे। कोर्ट ने कहा था कि वैसे मामले जिसमें सात साल तक सजा का प्रावधान है छानबीन के दौरान अगर गिरफ्तारी नहीं हुई है और आरोपी ने छानबीन के दौरान सहयोग किया है, तो चार्जशीट के बाद कोर्ट उसके नाम समन जारी करेगा। इसे ‘ए कैटिगरी’ बताया गया है।

आरोपी खुद या वकील के जरिए पेश हो सकता है। पेशी न होने पर कोर्ट जमानती वॉरंट जारी कर सकता है। जमानती वॉरंट के बाद भी पेश नहीं होने पर गैरजमानती वॉरंट जारी किया जा सकता है। कोर्ट में पेश होने पर जमानत की अर्जी पर सुनवाई के दौरान अंतरिम जमानत मिल सकती है या अर्जी पर फैसला होने तक कस्टडी में लिया जा सकता है।

ये भी आधार

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ऐसे मामले जिनमें 50 फीसदी से ज्यादा सजा मुजरिम काट चुका है, तो इस आधार पर जमानत दी जा सकती है। उम्रकैद और फांसी के मामले या सात साल से ज्यादा सजा के मामले को ‘बी कैटिगरी’ में रखा गया है। ‘कैटिगरी सी’ में मनी लॉन्ड्रिंग से लेकर एनडीपीएस और गैर-कानूनी गतिविधियों के मामले में जमानत अर्जी पर फैसला केस के मेरिट के हिसाब से होगा। ‘कैटिगरी डी’ में आर्थिक अपराध को रखा गया है।

जमानती-गैरजमानती अपराध क्या हैं

कानूनी जानकार नवीन शर्मा बताते हैं कि अपराध दो तरह के होते हैं जमानती और गैर-जमानती। जमानती अपराध मामूली किस्म के होते हैं। मारपीट, धमकी, लापरवाही से गाड़ी चलाना, लापरवाही से मौत आदि से संबंधित मामला जमानती अपराध की श्रेणी में आता है। इस तरह के मामले में थाने से ही जमानत दिए जाने का प्रावधान है।

अपराध जो गंभीर किस्म के हैं जैसे-लूट, डकैती, हत्या, हत्या का प्रयास, गैर इरादतन हत्या, रेप, अपहरण, फिरौती के लिए अपहरण आदि के मामले गैर-जमानती अपराध हैं। इस तरह के मामले में कोर्ट के सामने तमाम तथ्य पेश किए जाते हैं और फिर कोर्ट जमानत का फैसला लेती है।

चार्जशीट न होने पर बेल

कानूनी जानकार और सीनियर एडवोकेट रमेश गुप्ता बताते हैं कि चाहे मामला बेहद गंभीर ही क्यों न हो लेकिन समय पर पुलिस चार्जशीट दाखिल न करे, तब भी आरोपी को जमानत दी जा सकती है। मसलन, ऐसा मामला जिसमें 10 साल या उससे ज्यादा सजा का प्रावधान हो तो गिरफ्तारी के 90 दिनों के भीतर चार्जशीट दाखिल करना जरूरी है।

इस दौरान चार्जशीट दाखिल नहीं की जाती है तो आरोपी को सीआरपीसी की धारा-167 (2) के तहत जमानत दिए जाने का प्रावधान है। 10 साल कैद की सजा से कम वाले मामले में 60 दिनों के भीतर चार्जशीट दाखिल करनी होती है। ऐसा नहीं करने पर जमानत का प्रावधान है।

रेगुलर और अग्रिम बेल

किसी आरोपी के खिलाफ ट्रायल कोर्ट में केस पेंडिंग होता है, तो वह सीआरपीसी की धारा-439 के तहत अदालत से जमानत की मांग करता है। ट्रायल कोर्ट या हाई कोर्ट केस की मेरिट आदि के आधार पर अर्जी पर फैसला लेता है। आरोपी को अंतरिम जमानत या रेगुलर बेल दी जाती है।

इसके लिए आरोपी को मुचलका भरना होता है और जमानत के लिए दिए गए निर्देशों का पालन करना होता है। आरोपी को अंदेशा हो कि किसी मामले में वह गिरफ्तार हो सकता है, तो बचने के लिए धारा-438 के तहत अग्रिम जमानत की मांग कर सकता है। कोर्ट जब किसी आरोपी को जमानत देता है तो वह उसे पर्सनल बॉन्ड के अलावा जमानती पेश करने के लिए कह सकता है।

जमानती और बॉन्ड

जमानती आमतौर पर रिश्तेदार या फिर नजदीकी हो सकते हैं। जितनी रकम का वह जमानती है उस रकम का बॉन्ड भरना होता है। उस एवज में कोर्ट में दस्तावेज पेश करने होते हैं। इसके बाद कोर्ट जमानती का दस्तखत लेता है और आरोपी को जमानत दे देता है।

-एजेंसी