काफल को उत्तराखंड के राजकीय फल का दर्जा हासिल है. पिछले कई सालों से ये गरीब और निम्न आय वर्ग के लोगों की रोजी रोटी का भी जरिया बन रहे हैं. बाजारों में इसकी कीमत 400 रुपये प्रति किलो तक मिल रही है.
बेड़ू पाको बारामासा, हो नरैण काफल पाको चैता मेरी छैला. उत्तराखंड का सर्वाधिक लोकप्रिय लोक गीत है. आपको पता है इस गीत में जिस काफल का जिक्र किया गया है, वो आखिर है क्या. दरअसल काफल पहाड़ों में होने वाला जंगली फल है, जिसका मजा आप गर्मियों में ही ले सकता है. ये गहरे लाल रंग का होता है और इसका स्वाद खट्टा-मीठा होता है. उत्तराखंड के अलावा ये हिमाचल प्रदेश में मिलता है.
काफल की क्या है खासियत?
काफल की बात करें तो जंगल में इसके पेड़ होते हैं. मार्च की शुरुआत में इस फल पर फूल आते हैं और मई-जून में इसके फल तैयार हो जाते हैं. इसके बाद इन्हें खाने के लिए तोड़ा जाता है. स्थानीय लोग इसे पिसे हुए नमक के साथ बड़े चाव से खाते हैं. पर्यटकों को भी काफल अपनी तरफ आकर्षित कर रहे हैं.
इस फल की विशेषता इसके औषधीय गुण हैं. ये फल पेट की बीामरियों का रामबाण माना जाता है. पेट से जुड़ी कई बीमारियों के इलाज के लिए फायदेमंद है. इसके अलावा डायबिटीज, ब्लड प्रेशर के मरीजों को भी इसे खाने से फायदा मिलता है. इसी वजह से लोग पूरे साल इस फल का इंतजार करते हैं.
काफल का क्या है इतिहास?
काफल का वैज्ञानिक नाम मिरिका एस्कुलेंटा है. ये पेड़ हिमालयी क्षेत्रों में पाया जाता है. हजारों साल से उत्तराखंड के जंगलों में काफल का पेड़ उग रहा है. उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में ये काफी ज्यादा मात्रा में पाया जाता है. इसके अलावा ये हिमाचल प्रदेश और नॉर्थ ईस्ट के पहाड़ी इलाकों में होता है. नेपाल के कई इलाकों में भी काफल का पेड़ पाया जाता है, जहां इसके नाम अलग-अलग है. उत्तरांखड की बात करें तो ये यहां की संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा है.
-एजेंसी
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