भारत लैंगिक समानता के मोर्चे पर बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका , म्यांमार, भूटान देशों से भी ज्यादा पिछड़ा
अनुसूचित जाति की महिलाएं शिक्षा के अभाव, आर्थिक नुकसान, सामाजिक अधिकार-सशक्तिकरण, घरेलू हिंसा भेदभाव झेलती हैं
आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है, जिसकी उत्पत्ति विभिन्न सामाजिक समूहों के पुरुषों और उनकी महिलाओं के मध्य शक्ति के स्रोतों – आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक- के असमान बंटवारे से होती रही है. इसी आर्थिक और सामाजिक विषमता के गर्भ से किसी भी देश में सदियों से भूख-कुपोषण, आतंकवाद, विच्छिन्नतावाद और परस्पर संघर्ष की स्थिति पैदा होती रही है. वर्तमान में इस समस्या से भारत जैसा पीड़ित देश विश्व में शायद ही कोई और हो! किन्तु, भारत के राजनेताओं और बुद्धिजीवियों के लिए शायद यह कोई बड़ा मसला ही नहीं है, इसलिए हर ओर इस पर ख़ामोशी नजर आती है. बहरहाल इस समस्या पर अगर जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग अर्थात सवर्ण समुदायों के नेता और बुद्धिजीवी चुप्पी साधे रहते हैं तो इसलिए कि इसके जनक तथा इसका लाभान्वित वर्ग वे ही हैं. लेकिन ताज्जुब की बात तो यह है कि इससे सर्वाधिक आक्रांत बहुजन वर्ग के बुद्धिजीवी भी प्रायः निर्लिप्त रहते हैं. ताज्जुब इसलिए और होता क्योंकि खुद बाबा साहेब डॉ आंबेडकर ने 25 नवम्बर, 1949 को सांसद के केन्द्रीय कक्ष से इसके निकटतम भविष्य के मध्य इसे ख़त्म करने का जोरदार आह्वान किया था, पर, यह ख़त्म होने के बजाय बढ़ते-बढ़ते आज चरम बिंदु पर पहुँच चुकी है. बहरहाल भारत में भीषणतम रूप में फैली मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या के चौकाने वाले दो पक्ष नजर आते हैं. इनमें सबसे बड़ा एक पक्ष यह है कि इससे लाभान्वित होने वाले देश की सकल जनसंख्या के 7.5 प्रतिशत सवर्ण हैं, जो शासकों द्वारा इस समस्या के खात्मे की दिशा में सम्यक प्रयास न किये जाने के कारण लगभग 80 से 85 प्रतिशत शक्ति के स्रोतों का भोग कर रहे हैं.
इसका दूसरा और सबसे स्याह पक्ष यह है कि देश की आधी आबादी अर्थात महिलाएं इससे सर्वाधिक पीड़ित है. भारत की आधी आबादी इससे किस कदर पीड़ित है, इसका अनुमान पिछले वर्ष आई ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट से लगाया जा सकता है.
लैंगिक समानता के मोर्चे पर : पडोसी मुल्कों से भी पीछे भारत
वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम(डब्ल्यूईएफ ) द्वारा अप्रैल 2021 में प्रकाशित ‘ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट- 2021’ में भारत की स्थिति देखकर दुनिया स्तब्ध रह गयी थी. उस रिपोर्ट से पता चला था कि भारत लैंगिक समानता के मोर्चे पर बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका , म्यांमार, भूटान इत्यादि अपने दुर्बल प्रतिवेशी देशों से भी ज्यादा पिछड़ गया है. 2006 से वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम(डब्ल्यूईई) द्वारा प्रकाशित की जा रही ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट में स्वास्थ्य, शिक्षा, अर्थव्यवस्था और राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं और पुरुषों के मध्य सापेक्ष अंतराल में हुई प्रगति का आकलन किया जाता है. यह आंकलन चार आयामों- पहला, अर्थव्यवस्था में महिलाओं की हिस्सेदारी और महिलाओं को मिलने वाले मौके; दूसरा, महिलाओं के स्वास्थ्य की स्थिति; तीसरा, महिलाओं की शिक्षा और चौथा, राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी- के आधार पर किया जाता है ताकि इस वार्षिक रिपोर्ट के आधार पर प्रत्येक देश स्त्री और पुरुषों के मध्य बढती असमानता की खाई को पाटने का सम्यक कदम उठा सके.
2021 में जो रिपोर्ट आई, उसमे दक्षिण एशियाई देशों में भारत का प्रदर्शन सबसे खराब रहा. भारत रैंकिंग में 156 देशों में 140वें स्थान पर रहा, जबकि बांग्लादेश 65वें, नेपाल 106वें, पाकिस्तान 153वें, अफगानिस्तान 156वें, भूटान 130वें और श्रीलंका 116वें स्थान पर रहा. रिपोर्ट में नंबर एक पर आइसलैंड, दो पर फ़िनलैंड, तीसरे पर नार्वे , चौथे पर न्यूजीलैंड और पांचवें पर स्वीडेन रहा. इससे पहले 2020 में भारत 153 देशों में 112वें स्थान पर था, जो इस बात संकेतक है कि वर्तमान हिंदुत्ववादी सरकार में यह समस्या नयी- नयी ऊंचाई छूती जा रही है.
भारत के लगातार पिछड़ते जाने के कारणों पर प्रकाश डालते हुए ग्लोबल जेंडर गैप- 2021 की रिपोर्ट में कहा गया था ,’ इस साल भारत का जेंडर गैप 3% बढ़ा है. अधिकांश कमी राजनीतिक सशक्तीकरण उप-सूचकांक पर देखी गई है, जहां भारत को 5 प्रतिशत अंक का नुकसान हुआ हैं. 2019 में महिला मंत्रियों की संख्या 23.1% से घटकर 9.1% हो गई है. पेशेवर और तकनीकी भूमिकाओं में महिलाओं की हिस्सेदारी घटकर 2% रह गई। वरिष्ठ और प्रबंधकीय पदों पर भी महिलाओं की हिस्सेदारी कम है. इनमें से केवल 6% पद महिलाओं के पास हैं और केवल 8.9% फर्म महिला शीर्ष प्रबंधकों के पास हैं. भारत में महिलाओं द्वारा अर्जित आय पुरुषों द्वारा अर्जित की गई केवल 1/5वीं है. इसने भारत को वैश्विक स्तर पर बॉटम 10 में रखा है. महिलाओं के खिलाफ भेदभाव, स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत को निचले पांच देशों में स्थान दिया गया है.
आर्थिक असमानता के ख़त्म होने में लगेंगे 257 साल!
ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट- 2021 में एक बेहद चौकाने वाला अध्ययन भी आया है, जिसमें बतलाया गया है कि पूरे विश्व में लैंगिक समानता का लक्ष्य पाने में 135 वर्ष लग जायेंगे. इस सिलसिले में डब्ल्यूईएफ की ओर से कहा था , ‘‘पहले यह माना जा रहा था कि लिंग असमानता को खत्म होने में 108 साल लग जाएंगे. लेकिन जिस तरह विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है, अब कहा जा रहा है कि भेदभाव खत्म होने में 99.5 साल लगेंगे. हालांकि देश में शिक्षा, स्वास्थ्य, काम और राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं और पुरुषों में अभी भी असमानता है. हालांकि, 2018 में स्थिति थोड़ी बेहतर हुई थी.’’ डब्ल्यूईएफ ने कहा था,’ राजनीति में महिलाओं की स्थिति में काफी सुधार देखा जा सकता है. राजनीतिक असमानता को खत्म होने में करीब 95 साल लगेंगे। पिछले साल कहा जा रहा था कि इसमें 107 साल लग सकता है. दुनिया भर में महिलाओं का लोअर-हाउस (नीचले सदन) में 25.2% और मंत्री पदों पर 21.2% हिस्सेदारी है. जबकि पिछले साल यह 24.1% और 19% थी। हालांकि, आर्थिक असमानता में अभी भी काफी खाई है. पिछले साल की 202 साल की अपेक्षा अब आर्थिक असमानता खत्म होने में 257 साल लगेंगे.’
रिपोर्ट के मुताबिक, इसमें सबसे बड़ी चुनौती है क्लाउड कंप्यूटिंग, इंजीनियरिंग, डेटा और एआई जैसे क्षेत्रों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का कम होना. डब्ल्यूईएफ ने 2006 में जेंडर गैप को लेकर जब पहली बार रिपोर्ट पेश की थी, उस समय भारत 98वें स्थान पर था. तब से भारत पिछड़ते जा रहा है. चार मानकों में तीन पर भारत पिछड़ गया है. भारत राजनीतिक सशक्तीकरण में 18वें स्थान पर है. जबकि स्वास्थ्य के मामले में 150वें, आर्थिक भागीदारी और अवसर के मामले में 149वें और शिक्षा पाने के मामले में 112वें स्थान पर है. वर्ष 2021 में डब्ल्यूईएफ ने कहा था कि भारत में महिलाओं के लिए आर्थिक अवसर (35.4%) बेहद सीमित हैं. यह पाकिस्तान में 32.7%, यमन में 27.3%, सीरिया में 24.9% और इराक में 22.7% है कंपनियों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व वाले देशों में भी भारत (13.8%) काफी पीछे है। चीन (9.7%) में स्थिति बदतर है.
भारतीय महिलाओं की आर्थिक असमानता ख़त्म होने में लगेंगे : 300 साल से अधिक!
पिछले साल की वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम की ओर से जो ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट प्रकाशित हुई, उसमे सबसे चौकाने वाली जो बात कही गयी थी वह यह थी कि अब आर्थिक असमानता खत्म होने में 257 साल लगेंगे. बहरहाल यह कयास उन देशों की महिलाओं को ध्यान में रखकर लगाया गया था , जो लैंगिक समानता के मामले में भारत से काफी आगे हैं. ऐसे में अगर विश्व के दूसरे देशों में महिलाओं की आर्थिक असमानता ख़त्म होने में 257 वर्ष लगेंगे तो भारत जैसे अनग्रसर देश को, जो लैंगिक समानता के मोर्चे पर म्यांमार, भूटान, नेपाल, बांग्लादेश इत्यादि जैसे आर्थिक रूप से कमजोर देशों से भी पीछे है, शर्तिया तौर पर 300 साल से भी ज्यादा लग जायेंगे, यह मानकर चलना चाहिए. वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम के इस घोषणा के आईने कि हमारी महिलाओं को आर्थिक समानता अर्जित करने में 300 साल से अधिक लग जायेंगे
मोदी सरकार के साथ, महिला अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले संगठनों, तमाम राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों की नींद हराम हो जानी चाहिए थी. क्योंकि, इस घोषणा ने साबित कर दिया था कि भारतीय महिलाओं की आर्थिक असमानता देश ही नहीं संभवतः दुनिया की भी सबसे बड़ी समस्या है, जिसके सामने बाकी समस्याएं बहुत छोटी हैं. लेकिन इसे लेकर देश में कोई हलचल नहीं हुई . यहाँ तक कि पिछले दिनों पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में किसी दल ने भूले से भी इसकी ओर संकेत नहीं किया और आज भी इसे लेकर चारों ओर ख़ामोशी है!
आर्थिक असमानता का सर्वाधिक शिकार अतिदलित, जबकि न्यूनतम शिकार अग्रसर सवर्ण समाज की महिलाएं!
बहरहाल अगर विश्व में सर्वाधिक आर्थिक विषमता की शिकार भारत की आधी आबादी है तो यहाँ इससे सर्वाधिक पीड़ित जहां अति दलित- आदिवासी समुदाय की महिलाएं हैं तो अग्रसर सवर्ण समाज की महिलाएं सबसे कम! क्योंकि सवर्ण समुदाय सबसे समृद्ध समाज है जिसका शक्ति के स्रोतों पर 80 से 85 प्रतिशत कब्ज़ा है, जिसका कुछ लाभ उस समाज की महिलाओं को मिलना तय है. अगर सबसे समृद्ध सवर्ण है तो सबसे दरिद्र दलित और आदिवासी समाज है, जिस कारण इन समुदायों की महिलाएं आर्थिक असमानता का सर्वाधिक शिकार हैं.
दलित- आदिवासी अधिकारों के लिए कार्यरत संस्था नैक्डोर के एक अध्ययन के मुताबिक,’ भारत के उच्च पितृसत्तात्मक और जाति आधारित समाज में दलित / अनुसूचित जाति (एससी) महिलाएँ, जाति, वर्ग और लिंग का तिगुना भार वहन करती हैं. भारतीय समाज के सबसे निचले सामाजिक क्रम पर तैनात होने के कारण, अनुसूचित जाति की महिलाएं शिक्षा के अभाव, आर्थिक नुकसान, सामाजिक अधिकार-सशक्तिकरण, घरेलू हिंसा, राजनीतिक अदर्शन और यौन उत्पीड़न सहित कई तरह के भेदभाव झेलती हैं.
भारत में दलित महिलाओं की आबादी 9.79 करोड़ है जो भारत की कुल दलित आबादी का 48.59% है. भारत में कुल महिला आबादी 58.7 करोड़ है जिसमें 16.68% दलित महिला आबादी है. इनमें से 7.4 करोड़ महिलायें ग्रामीण और 2.3 करोड़ महिलाये शहरी क्षेत्र में वास करतीं हैं. सामान्य महिलाओं की तुलना में दलित महिलाओं के लिंग अनुपात में सुधार हुआ है
राष्ट्रीय जनगणना के अनुसार दलित पुरुषों की तुलना में दलित महिलाओं का लिंग अनुपात 1000 पुरुषों के मुकाबले 945 है. आदिवासी या आदिवासी महिलाएं भारतीय समाज में आबादी के सबसे शोषित और वंचित वर्गों में से एक हैं. ये सबसे अधिक हाशिए पर हैं और इन्हें अत्यधिक भयावह अत्याचार का सामना करना पड़ता हैं. उन्हें अक्सर आदिम और असभ्य माना जाता है. प्राकृतिक आवास, जंगल के साथ आजीविका और पारंपरिक बंधन और रीति-रिवाजों के प्रमुख स्रोत के रूप में निकटता के कारण, उन्हें कभी-कभी अन्य मनुष्यों के साथ भी नहीं माना जाता है और उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता है. उन्हें क्रमशः जाति-आधारित भेदभाव और सभ्यतागत अधीनता के आधार पर व्यवस्थित मानव अधिकारों के उल्लंघन के अधीन किया जाता है.
भारत में 2011 के जनगणना के अनुसार अनुसूचित जनजाति की महिलाओं की जनसंख्या, राष्ट्रीय जनगणना में 5.18 करोड़ है जो कि भारत की कुल आदिवासी आबादी का 49.74% है. 2011 की राष्ट्रीय जनगणना के अनुसार, भारत में कुल महिला जनसंख्या 58.7 करोड़ है, जिसमें 8.83% आदिवासी महिलायें हैं. इनमें से 4.6 करोड़ ग्रामीण और लगभग 52 लाख महिलाएं शहरों में वास करती हैं. सामान्य महिलाओं की तुलना में आदिवासी महिलाओं का लिंग अनुपात में सुधार हुआ है. राष्ट्रीय जनगणना के अनुसार आदिवासी पुरुषों की तुलना में आदिवासी महिलाओं का लिंग अनुपात 1000 पुरुषों के मुकाबले 990 है’.
इसमें ज्यादे मगजपच्ची की जरुरत नहीं कि भारत में आर्थिक और सामाजिक असमानता का सर्वाधिक शिकार महिलायें हैं और महिलाओं में भी सर्वाधिक शिकार क्रमशः दलित और आदिवासी महिलाएं! यदि सवर्ण समुदाय की महिलाओं को आर्थिक समानता अर्जित करने में 300 साल लग सकते हैं तो दलित-आदिवासी महिलाओं को 350 साल से अधिक लग सकते हैं. बहरहाल भारतीय महिलाओं को 300 वर्षो के बजाय आगामी कुछेक दशकों में आर्थिक समानता दिलाना है तो इसके लिए अबतक आजमाए गए उपायों से कुछ अलग करना होगा. इस मामले में मेरे पास एक नया विचार है. अपने विचार से अवगत कराने के पहले इस दिशा में वर्तमान में भारत सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयासों की जानकारी दे देना चाहूँगा
ग्लोबल जेंडर गैप – 20 21 के रिपोर्ट के आईने में : मोदी सरकार का प्रयास
मोदी सरकार द्वारा प्रचारित एक खबर के मुताबिक भारत सरकार ने भारत में लैंगिक अंतर को पाटने, पुरुषों और महिलाओं के बीच असमानता को कम करने, महिलाओं के स्वास्थ्य में सुधार, उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को बढ़ाने और विभिन्न क्षेत्रों में भागीदारी को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है. सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के सभी पहलुओं में लैंगिक अंतर को दूर करने के लिए भारत सरकार द्वारा की गई कुछ प्रमुख पहल इस प्रकार हैं:
आर्थिक भागीदारी
बेटी बचाओ बेटी पढाओ बालिकाओं की सुरक्षा, अस्तित्व और शिक्षा सुनिश्चित करता है; किशोरियों के लिए योजना का उद्देश्य 11-18 आयु वर्ग की लड़कियों को सशक्त बनाना और पोषण, जीवन कौशल, गृह कौशल और व्यावसायिक प्रशिक्षण के माध्यम से उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार करना है; कामकाजी महिला छात्रावास कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करता है; राष्ट्रीय शिशु गृह योजना यह सुनिश्चित करती है कि महिलाओं को बच्चों को एक सुरक्षित, सुरक्षित और उत्तेजक वातावरण प्रदान करके लाभकारी रोजगार प्राप्त हो; प्रधानमंत्री आवास योजना का उद्देश्य महिला के नाम पर भी आवास उपलब्ध कराना है; प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना का उद्देश्य महिलाओं सहित बड़ी संख्या में भारतीय युवाओं को बेहतर आजीविका हासिल करने के लिए उद्योग-प्रासंगिक कौशल प्रशिक्षण लेने में सक्षम बनाना है; दीन दयाल उपाध्याय राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन कौशल विकास में महिलाओं के लिए अवसर पैदा करने पर केंद्रित है, जिससे बाजार आधारित रोजगार प्राप्त हो सके; सुकन्या समृद्धि योजना – इस योजना के तहत बैंक खाते खोलकर लड़कियों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाया गया है; कौशल उन्नयन और महिला कयर योजना एमएसएमई का एक विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम है जिसका उद्देश्य कयर उद्योग में लगी महिला कारीगरों का कौशल विकास करना है; प्रधान मंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम एक प्रमुख क्रेडिट-लिंक्ड सब्सिडी कार्यक्रम है जिसका उद्देश्य गैर-कृषि क्षेत्र में सूक्ष्म उद्यमों की स्थापना के माध्यम से स्वरोजगार के अवसर पैदा करना है; प्रधान मंत्री मुद्रा योजना सूक्ष्म / लघु व्यवसाय को संस्थागत वित्त तक पहुंच प्रदान करती है!
शिक्षा
समग्र शिक्षा योजना में अन्य बातों के साथ-साथ सभी स्कूलों में लिंग पृथक शौचालय और लड़कियों की भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए शिक्षकों के संवेदीकरण कार्यक्रम, रानी लक्ष्मी बाई आत्मारक्षा प्रशिक्षण और विशेष आवश्यकता वाली बालिकाओं के लिए वजीफा का प्रावधान है;शैक्षिक रूप से पिछड़े ब्लॉकों में वंचित समूहों की लड़कियों के लिए कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय (केजीबीवी) खोले गए हैं.विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) और अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) विभिन्न फेलोशिप/छात्रवृत्ति योजनाओं को लागू कर रहे हैं. लिंग समानता, महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता, लड़कियों की शिक्षा आदि के क्षेत्रों में अनुसंधान और पाठ्यक्रम विकसित करने के लिए विभिन्न विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में 159 महिला अध्ययन केंद्र स्थापित किए गए हैं. आईआईटी में स्नातक कार्यक्रमों में लिंग संतुलन में सुधार करने के लिए, वर्ष 2018-19 से छात्राओं के लिए 5039 अतिरिक्त सीटें सृजित की गई हैं.
स्वास्थ्य और पोषण
सरकार ने पोषण संबंधी सामग्री, वितरण, आउटरीच और परिणामों को मजबूत करने के लिए मिशन पोषण 2.0 की घोषणा की है, जिसमें विकासशील प्रथाओं पर ध्यान केंद्रित किया गया है जो स्वास्थ्य, स्वास्थ्य और रोग और कुपोषण के प्रति प्रतिरोधक क्षमता का पोषण करते हैं.प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना का उद्देश्य गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं को मातृत्व लाभ प्रदान करना है. प्रजनन, मातृ, नवजात, बच्चे, किशोर स्वास्थ्य प्लस पोषण (आरएमएनसीएएच+एन) का कार्यान्वयन आयुष्मान भारत-स्वास्थ्य और कल्याण केंद्रों (एबी-एचडब्ल्यूसी) के माध्यम से स्वास्थ्य संवर्धन सहित व्यापक प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की शुरुआत.जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम (जेएसएसके) सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थानों में प्रसव कराने वाली गर्भवती महिलाओं और इलाज के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थानों में पहुंचने वाले बीमार शिशुओं के लिए जेब से खर्च को खत्म करने के लिए. जननी सुरक्षा योजना (जेएसवाई) गर्भवती महिलाओं को संस्थागत प्रसव को प्रोत्साहित करने के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करती है. सुरक्षित मातृत्व आश्वासन (सुमन) बिना किसी कीमत के सुनिश्चित, सम्मानजनक, सम्मानजनक और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा प्रदान करेगा और सेवाओं से इनकार के लिए जीरो टॉलरेंस प्रदान करेगा. हर महीने की 9 तारीख को गर्भवती महिलाओं को व्यापक और गुणवत्तापूर्ण एएनसी प्रदान करने के लिए प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान (पीएमएसएमए) लेबर रूम और मैटरनिटी ऑपरेशन थिएटर में देखभाल की गुणवत्ता में सुधार के लिए लक्ष्य पहल. प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना महिलाओं को सशक्त बनाती है और मुफ्त में एलपीजी सिलेंडर उपलब्ध कराकर उनके स्वास्थ्य की रक्षा करती है.
राजनीतिक भागीदारी
जमीनी स्तर पर महिलाओं को राजनीतिक नेतृत्व की मुख्यधारा में लाने के लिए, सरकार ने पंचायती राज संस्थानों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित की हैं. निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों सहित पंचायत हितधारकों का क्षमता निर्माण महिलाओं को शासन प्रक्रियाओं में प्रभावी रूप से भाग लेने के लिए सशक्त बनाने के उद्देश्य से किया जाता है.
उपरोक्त जानकारी महिला एवं बाल विकास मंत्री श्रीमती स्मृति ईरानी जुबिन लोकसभा में एक लिखित प्रश्न के उत्तर में दी थी .
लैंगिक समानता पाने का अनूठा विचार!
मोदी सरकार द्वारा लैंगिक समानता के मोर्चे पर जो उपरोक्त कार्य किया जा रहा है, उससे भारत में लैंगिक समानता अर्जित करना एक सपना ही बना रहेगा. कमसे कम कम आर्थिक और शैक्षिक मोर्चे पर तो दलित, आदिवासी, पिछड़े वंचित वर्गों की महिलाओं को समानता दिलाने में सदियों लग जाना तय है. ऐसे में यदि कुछेक दशकों के मध्य हम इच्छित लक्ष्य पाना चाहते हैं तो इसके लिए हमें अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में दो उपाय करने होंगे . सबसे पहले यह करना होगा कि अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में सवर्णों को उनकी संख्यानुपात में लाना होगा ताकि उनके हिस्से का औसतन 70 प्रतिशत अतिरक्त (सरप्लस ) अवसर वंचित वर्गो, विशेषकर आधी आबादी में बंटने का मार्ग प्रशस्त हो. दूसरा उपाय यह करना होगा कि अवसर और संसाधन प्राथमिकता के साथ आधी आबादी के हिस्से में जाय. चूंकि अति दलित महिलाएं असमानता का सर्वाधिक और अग्रसर सवर्ण महिलाएं न्यूनतम शिकार हैं, इसलिए ऐसा करना होगा कि सवर्णों का छोड़ा 70 प्रतिशत अतिरिक्त अवसर सबसे पहले अतिदलित महिलाओं को मिले. इसके लिए अवसरों के बंटवारे के पारंपरिक तरीके से निजात पाना होगा. पारंपरिक तरीका यह है कि अवसर पहले जेनरल अर्थात सवर्णों के मध्य बंटते हैं, उसके बाद बचा हिस्सा वंचित अर्थात आरक्षित वर्गो को मिलता है . यदि हमें 300 वर्षो के बजाय आगामी कुछ दशकों में लैंगिक समानता अर्जित करनी है तो अवसरों और संसाधनों के बंटवारे के रिवर्स पद्धति का अवलंबन करना होगा.
हमें भारत के विविधतामय प्रमुख सामाजिक समूहों- दलित, आदिवासी, पिछड़े, धार्मिक अल्पसंख्यकों और जेनरल अर्थात सवर्ण – को दो श्रेणियों -अग्रसर अर्थात अगड़े और अनग्रसर अर्थात पिछड़ों- में विभाजित कर, सभी सामाजिक समूहों की अनग्रसर महिलाओं को प्राथमिकता के साथ 50 प्रतिशत हिस्सेदारी देने का प्रावधान करना होगा .इसके तहत संख्यानुपात में क्रमशः अति दलित और दलित; अनग्रसर आदिवासी और अग्रसर आदिवासी; अति पिछड़े और पिछड़े ; अनग्रसर और अग्रसर अल्पसंख्यकों तथा अनग्रसर और अग्रसर सवर्ण महिलाओं को संख्यानुपात में अवसर सुलभ कराने का अभियान युद्ध स्तर पर छेड़ना होगा. इस सिलसिले में निम्न क्षेत्रों में क्रमशः दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक और सवर्ण समुदायों की अनग्रसर अर्थात पिछड़ी महिला आबादी को प्राथमिकता के साथ 50 प्रतिशत हिस्सेदारी सुलभ कराना सर्वोत्तम उपाय साबित हो सकता है-:
1-सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की, सभी प्रकार की नौकरियों व धार्मिक प्रतिष्ठानों;
2-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जानेवाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप;
3-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जानेवाली सभी वस्तुओं की खरीदारी;
4-सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों,पार्किंग,परिवहन;
5-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जानेवाले छोटे-बड़े स्कूलों, विश्वविद्यालयों,तकनीकि-व्यावसायिक शिक्षण संस्थाओं के संचालन,प्रवेश व अध्यापन;
6-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों,उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जानेवाली धनराशि;
7- देश –विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ)को दी जानेवाली धनराशि;
8-प्रिंट व् इलेक्ट्रोनिक मिडिया एवं फिल्म-टीवी के सभी प्रभागों;
9-रेल-राष्ट्रीय मार्गों की खाली पड़ी भूमि सहित तमाम सरकारी और मठों की खली पड़ी जमीन व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए अस्पृश्य-आदिवासियों में वितरित हो एवं
10-ग्राम-पंचायत, शहरी निकाय, संसद-विधासभा की सीटों; राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट;विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों;विधान परिषद-राज्यसभा;राष्ट्रपति,राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि…
यदि हम उपरोक्त क्षेत्रों में क्रमशः अनग्रसर दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक, और सवर्ण समुदायों की महिलाओं को इन समूहों के हिस्से का 50 प्रतिशत भाग सुनिश्चित कराने में सफल हो जाते हैं तो भारत 300 वर्षों के बजाय 30 वर्षों में लैंगिक समानता अर्जित कर विश्व के लिए एक मिसाल बन जायेगा. तब मुमकिन है हम लैंगिक समानता के चार आयामों में से तीन आयामों- पहला, अर्थव्यवस्था में महिलाओं की हिस्सेदारी और महिलाओं को मिलने वाले मौके; दूसरा, महिलाओं की शिक्षा और तीसरा , राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी- में आइसलैंड, फ़िनलैंड, नार्वे, न्यूलैंड, स्वीडेन इत्यादि को भी पीछे छोड़ दें.उपरोक्त तीन आयामों पर सफल होने के बाद वेअपने स्वास्थ्य की देखभाल में स्वयं सक्षम हो जाएँगी. यही नहीं उपरोक्त क्षेत्रों के बंटवारे में सर्वाधिक अनग्रसर समुदायों के महिलाओं को प्राथमिकता के साथ 50 प्रतिशत हिस्सेदारी देकर लैंगिक असमानता के साथ भारत से मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या के खात्मे में तो सफल हो ही सकते हैं, इसके साथ ही भारत में भ्रष्टाचार को न्यूनतम बिन्दू पर पहुचाने , लोकतंत्र के सुदृढ़ीकारण, नक्सल/ माओवाद के खात्मे, अस्पृश्यों को हिन्दुओं के अत्याचार से बचाने, आरक्षण से उपजते गृह-युद्ध को टालने , सच्चर रिपोर्ट में उभरी मुस्लिम समुदाय की बदहाली को खुशहाली में बदलने, ब्राह्मणशाही के खात्मे और सर्वोपरि विविधता में एकता को सार्थकता प्रदान करने जैसे कई अन्य मोर्चों पर भी फतेह्याबी हासिल कर सकते हैं।
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