हिमाचल प्रदेश का अद्भुत भीमाकाली मंदिर शक्‍तिपीठ, जहां गिरा था माता सती का कर्ण

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सराहन बुशहर राज्य के पूर्व शासकों की राजधानी थी। बुशहर राजवंश पहले कामरो से राज्य को नियंत्रित करते थे। बाद में राज्य की राजधानी शोणितपुर में स्थानांतरित कर दी गई। उसके बाद राजा राम सिंह ने रामपुर को अपनी राजधानी बनाया।

इतिहासकार मानते हैं कि किन्नौर देश पुराणों में वर्णित कैलाश था, जो शिव का निवास स्थान था। सोनितपुर में अपनी राजधानी के साथ यह पूर्व रियासत किन्नौर के पूरे क्षेत्र तक विस्तारित थी जहां कभी-कभी भगवान शिव ने स्वयं को किरात के रूप में प्रच्छन्न किया था। आज तत्कालीन सोनितपुर को सराहन के नाम से जाना जाता है। भगवान शिव के प्रबल भक्त बाणासुर, पुराण युग के दौरान महान अभिमानी दानव राजा बालि और विष्णु भक्त प्रहलाद के महान पौत्र के सौ पुत्रों में से एक थे, जो इस रियासत के शासक थे।

भीमाकाली मंदिर के बाहरी हिस्से में सूक्ष्म लकड़ी का काम

सराहन से जुड़ी दंतकथा भीमाकाली से पूर्व की है। ऐसा कहा जाता है कि बाली पुत्र बाणासुर इस क्षेत्र का शासक था। उसकी पुत्री उषा भगवान कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध से, प्रत्यक्ष देखे बिना ही प्रेम करने लगी थी। उषा ने अनिरुद्ध को अपने स्वप्न में देखा था तथा तब से उसे अपने हृदय में बसा लिया था। उसने अपनी सखी चित्रलेखा को इस विषय में बताया। उषा द्वारा दी गयी जानकारी से सखी चित्रलेखा ने अनिरुद्ध का चित्र रेखांकित किया तथा अपनी सखी के लिए उसे खोजने निकल पड़ी। वह अनिरुद्ध को खोजकर उसे निद्रामग्न अवस्था में ही उठाकर सराहन ले आयी। यह ज्ञात होते ही श्रीकृष्ण जी ने बाणासुर से युद्ध की घोषणा कर दी। अंत भला तो सब भला, इस कहावत को चरितार्थ करते हुए, अंत में उषा एवं अनिरुद्ध का विवाह संपन्न हुआ। ऐसा माना जाता है कि तब से निरंतर उन्ही के वंशज इस क्षेत्र में शासन करते आ रहे थे। किन्तु 20वीं सदी में भारत के स्वतन्त्र होते ही सराहन के साथ साथ देश के सभी क्षेत्रों की राजशाही समाप्त कर दी गयी।

हिमाचल प्रदेश में ज्योरी से ऊपर चढ़ते हुए हम सराहन नामक इस छोटे से पर्वतीय गाँव में पहुँचते हैं। भीमाकाली मंदिर इस गाँव के अस्तित्व का केंद्र बिंदु है। सराहन जाते समय आप मनभावी सतलुज से दूर अवश्य जाते हैं किन्तु हिमालय के श्रीखंड पर्वत श्रंखला के अप्रतिम दृश्यों के समीप पहुँच जाते हैं।

इसी सराहन में  बुशहर राज्य के शासकों के देवी माता भीमाकाली देवी को समर्पित एक प्राचीन मंदिर है और  हिन्दू धर्म के 51 शक्तिपीठों में से एक है।

शिमला से लगभग 180 किमी दूरी पर स्थित इस मंदिर के बारे में पौराणिक कथा प्रचलित है, जिसके अनुसार देवी के प्रकट होने की घटना दक्ष-यज्ञ के दौरान मिलती है, जब सती का कान इस स्थान पर गिरा था और तब से यह पीठ – स्थन के रूप में पूजा स्थल बन गई थी। वर्तमान में एक कुंवारी के रूप में इसे शाश्वत देवी का प्रतीक माना जाता हे जो नए भवन के शीर्ष मंजिला पर संरक्षित है। उसके नीचे हिमालय की पुत्री देवी पार्वती के रूप में, भगवान शिव के दिव्य संघ के रूप में विराजित है।

मंदिर के परिसर में भगवान श्री रघुनाथजी, नरसिंहजी और पाताल भैरव जी (लंकरा वीर) – संरक्षक देवताओं को समर्पित तीन और मंदिर हैं।

भीमाकाली मंदिर की स्थापत्य कला बेजोड़ है 

भीमाकाली मंदिर परिसर में अनेक मंदिर हैं। उत्कृष्ट रूप से उत्कीर्णित प्रवेश द्वार से होते हुए आप मंदिर परिसर के भीतर पहुँचते हैं। दाहिनी ओर आप एक शैल संरचना देखेंगे जिसका ऊपरी भाग उत्कीर्णित काष्ठ द्वारा निर्मित है। बाईं ओर प्राचीन शैल मंदिर हैं। समक्ष यात्रियों के लिए एक जलपान गृह एवं विश्राम गृह हैं। सर्वप्रथम मैंने एक लघु शैल मंदिर का दर्शन किया जो एक शिवालय था। यह रामपुर के नरसिंह मंदिर के समान था। नागर स्थापत्य शैली में निर्मित इस मंदिर के शिखर के चारों ओर काष्ठ का गलियारा है जिस पर ढलुआ छत है।

काष्ठ गलियारे पर उत्कीर्णित प्रतिमाएं साधारण हैं तथा पौराणिक ग्रंथों में दर्शाए गए संकेतों व चिन्हों के अनुरूप हैं। वहीं शिखर पर प्रतिमाओं की उत्तम नक्काशी की गयी है जिनमें त्रिमूर्ति विशेष है। प्रांगण में खड़े होकर चारों ओर देखें तो आपको शिलाओं एवं काष्ठ का उत्कृष्ट एवं सुडौल समागम दृष्टिगोचर होगा जो एक दूसरे के सौंदर्य को दुगुना करते प्रतीत होते हैं। शिलाएं कठोरता एवं पार्थिवता प्रदान करते हैं, वहीं काष्ठ सम्पूर्ण संरचना को लावण्यता तथा कलाकारी के लिए उपयुक्त कोमलता प्रदान करते हैं।

Compiled: up18 News