आगरा: इमाम हुसैन की शहादत को याद करने के लिए रखे गए ताजिये आज कर्बला में सुपुर्द ए खाक किए जा रहे हैं। शहर भर में जगह-जगह से ताजिए के जुलूस निकल रहे हैं। मुस्लिम समाज के लोग सभी परंपरा को निभाते हुए अपने अपने ताजिए को सुपुर्द ए खाक करने के लिए ले जा रहे हैं। भारी संख्या में मुस्लिम समाज के लोग जुलूस में शामिल हुए। सबसे पहले पाय चौकी इमामबाड़े का ताजिया उठा। इसके जुलूस में लोग काले कपड़े पहन कर शामिल हुए और इमाम हुसैन और उनके 72 अनुयायियों की शहादत को याद किया।
यहां रखा जाता है फूलों का ताजिया
मोहर्रम के पाक महीने के 10वें दिन ताजियेदारी की रस्म अदा होती है। इसके तहत फब्बारा स्थित कटरा दबकैयान पाय चौकी के इमामबाड़े में शहर का सबसे बड़ा और ऐतिहासिक ताजिया रखा गया। इसे देखने के लिए हजारों की भारी भीड़ जियारत करने पहुँची। कटरा दबकैयान पाय चौकी के इमामबाड़े में रखे जाने वाला फूलों का ताजिया सबसे बड़ा ताजिया होता है। यह फूलों का ताजिया लगभग 324 वर्ष पुराना है।
इस परंपरा को पीढ़ी दर पीढ़ी निभाया जा रहा है। इसकी एक खासियत हैं। इसे सजाने के लिए फूल अजमेर से मंगाए जाते हैं। इसकी गुम्बद चांदी की होती है वहीं, सुपुर्द-ए-खाक के जुलूस के लिए सबसे पहले पाय चौकी इमामबाड़े का सबसे बड़ा ताजिया उठता है। उसके बाद शहर के तमाम छोटे-बड़े ताजिये कर्बला के लिए कूच करते हैं। मोहर्रम के पाक माह में शहर में हजारों की संख्या में ताजिये रखे जाते हैं।
ताजगंज थाना क्षेत्र के मलको गली स्थित इमामबाड़े में ताजिए के रूप में ताबूत को रखा जाता है। एक ही समुदाय के दो पक्ष मिलकर इस ताबूत को रखते हैं। यह ताबूत भी ताजिया के रूप में ही रखा जाता है। क्षेत्र में बरसों पुरानी यह परंपरा निभाई जा रही है। बड़ी बात यह है कि जब ताजियों का जुलूस निकलता है तो ताजगंज थाने पर इस ताबूत को ले जाया जाता है। जब यह ताबूत वहां पहुंच जाता है तब ताजिए दार और सभी ताजिया इस ताबूत को सलामी देने के बाद ही आगे के लिए रवाना होते हैं।
ताबूत को लेकर होता था झगड़ा
ताजगंज थाना क्षेत्र के मलको गली में जो ताबूत रखा जाता था उसको लेकर सुन्नी और शिया मुस्लिम समाज में झगड़ा देखने को मिलता था लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। दोनों ने एक दूसरे पर पुष्प वर्षा की और एक साथ ताबूत को लेकर ताजगंज थाने पर पहुंचे। अक्सर दोनों पक्ष इस पर अपना हक जताते थे।
क्यों रखे जाते है ताजिये
मोहर्रम इस्लामिक वर्ष का पहला महीना होता है। इसे महीने की 10वीं तारीख को मनाया जाता है। इसे “आशूरा” भी कहा जाता है। इसे शिया मुस्लिम समुदाय के लोग गम के रूप में मनाते हैं। इस दिन इमाम हुसैन और उनके 72 अनुयायियों की शहादत को याद किया जाता है। पूरी दुनियां के मुसलमान मुहर्रम की नौ और दस तारीख को रोजा रखते हैं और मस्जिदों और घरों में इबादत करते हैं।
लगभग 1400 साल पहले तारीक-ए-इस्लाम मे कर्बला की जंग हुई थी। यह जंग जुल्म के खिलाफ, इंसाफ के लिए लड़ी गयी थी। इस्लाम धर्म के पवित्र मदीना से कुछ दूर “शाम” में मुआविया नामक शासक का दौर था। मुआविया की मृत्यु के बाद शाही वारिस के रूप में यजीद की दुष्टता मौजूद थीं। वह शाम की गद्दी पर बैठाया गया। यजीद चाहता था कि, उसके गद्दी पर बैठने की घोषणा इमाम हुसैन करे क्योंकि इमाम हुसैन पैगम्बर मोहम्मद साहब नवासे थे। शाम में इमाम हुसैन का प्रजा पर गहरा प्रभाव था। यजीद को इस्लामी शासक मानने से हजरत मोहम्मद के घराने ने साफ इंकार कर दिया था। इस बात से यजीद बेतहाशा नाराज था।
इमाम हुसैन ने यजीद के जुल्मो को देख कर अपने नाना हजतर मोहम्मद साहब का शहर मदीना छोड़ने का फैसला ले लिया। उनकी मदीना शहर छोड़ने के बाद यजीद की फौज ने उन्हें घेर लिया और युद्ध के लिए ललकारा। सात मोहर्रम में भीषण गर्मी के दौरान इमाम हुसैन के पास जितना भी राशन था वह सब खत्म हो गया। इसके तहत 7 मोहर्रम से लेकर 10 तक इमाम हुसैन अपने अनुयायियों के साथ भूखे-प्यासे रहें। 10 मोहर्रम को इमाम हुसैन की तरफ से एक-एक कर अनुयायियों ने यजीद की फौज से लोहा लिया लेकिन सभी मारे गए। आखिरी में इमाम हुसैन दुपहर की नमाज अदा करने के बाद कर्बला के युद्ध मे कूद पड़े। जहां इमाम हुसैन शहादत को प्राप्त हुए। इसी कुर्बानी की याद में मोहर्रम मनाया जाता है। इसी कारण मोहर्रम का माह गम का माह भी कहा जाता है।