अपराधियों पर राजनीति: गंभीर अपराधों को लेकर कितनी पक्षपाती होती जा रही है हमारी दृष्टि

अन्तर्द्वन्द

गंभीर अपराधों को लेकर हमारी दृष्टि कितनी पक्षपाती होती जा रही है, इसका ताजा उदाहरण बिहार में आनंद मोहन सिंह की रिहाई पर सामने आया है। पूर्व सांसद और राजनेता आनंद मोहन सिंह को 1994 में नौकरशाह और गोपालगंज के तत्कालीन कलेक्टर जी. कृष्णैया की हत्या के मामले में दोषी ठहराया गया था। जी. कृष्णैया की कथित रूप से आनंद मोहन सिंह द्वारा उकसाई गई भीड़ ने हत्या कर दी थी। गैंगस्टर से राजनेता बने सिंह को 2007 में बिहार की एक निचली अदालत ने मौत की सजा सुनाई थी। हालांकि, पटना हाईकोर्ट ने इसे आजीवन कारावास में बदल दिया था, उस आदेश को 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा था।

लेकिन हाल ही में बिहार सरकार ने जेल नियमों में कुछ संशोधन किए हैं, जिसके बाद मंगलवार को 27 कैदियों की रिहाई की अधिसूचना जारी की गई है और रिहा होने वालों में पूर्व सांसद आनंद मोहन सिंह का नाम भी है। अधिसूचना में कहा गया है कि, ‘20 अप्रैल को बिहार राज्य दंड छूट परिषद की बैठक के आलोक में 14 साल की वास्तविक सजा या 20 साल की सजा काट चुके कैदियों की रिहाई के लिए निर्णय लिया गया। इससे पहले इस महीने की शुरुआत में बिहार सरकार ने ड्यूटी पर एक लोक सेवक की हत्या के दोषियों के लिए जेल की सजा को कम करने पर रोक लगाने वाले खंड को हटा दिया था। अधिसूचना जारी होने के बाद आनंद मोहन सिंह की रिहाई का रास्ता साफ़ हो गया, लेकिन इस पर विवाद भी खड़े हो रहे हैं।

कई राजनेता नीतीश सरकार के इस फैसले पर सवाल उठा रहे हैं और इसे राजनैतिक मकसद से लिया गया फ़ैसला बता रहे हैं। बसपा सांसद मायावती ने आनंद मोहन की रिहाई को दलित विरोधी फ़ैसला बताया है, क्योंकि जी.कृष्णैया दलित समुदाय से आते थे। उनका कहना है कि देश भर के दलित समाज में इस फ़ैसले से काफी रोष है। चाहे कुछ मजबूरी हो किन्तु बिहार सरकार इस पर ज़रूर पुनर्विचार करे। मायावती की राजनीति का आधार दलित वोटबैंक है और इसलिए उन्होंने जी.कृष्णैया के हत्यारे की रिहाई पर आवाज उठाई है, ताकि दलित समुदाय के बीच इसका सही संदेश जाए। लेकिन जदयू ने मायावती के इस विरोध पर पलटवार करते हुए उन्हें भाजपा की बी टीम कहा है।

मायावती पर यह आरोप अकारण नहीं लगे हैं, क्योंकि बिल्किस बानो के दोषियों की रिहाई से लेकर कई मौकों पर उन्होंने भाजपा सरकार के कई विवादित फैसलों पर चुप्पी साध रखी है। हत्या जैसे जघन्य अपराध पर अपनी सुविधा के अनुसार विरोध नहीं किया जा सकता है। भाजपा की ओर से अमित मालवीय ने ट्वीट किया कि राजद की कुटिल चालों के सामने घुटने टेकने के लिए नीतीश कुमार को शर्म आनी चाहिए। इस से समझा जा सकता है कि नीतीश कुमार के इस फ़ैसले को श्री मालवीय राजद के दबाव में लिया फैसला बता रहे हैं, जो अब बिहार सरकार में नीतीश कुमार का गठबंधन सहयोगी है। लेकिन नीतीश कुमार अगर भाजपा के साथ सरकार में रहते हुए यही फैसला लेते तो क्या अमित मालवीय तब भी उन्हें शर्मिंदा होने कहते।

और क्या श्री मालवीय भाजपा के सांसद और केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह के लिए भी यही कहेंगे, क्योंकि आनंद मोहन की रिहाई पर राज्य सरकार के कदम का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा है कि ‘गरीब आनंद मोहन’ मामले में ‘बलि का बकरा’ बन गया और ‘लंबे समय तक जेल में रहा।’ गिरिराज सिंह को आनंद मोहन बलि का बकरा नजर आ गया, लेकिन देश की जेलों में न जाने कितने निर्दोष लोग कैद हैं, कितने ही विचाराधीन कैदी अपराध से अधिक की सजा काट लेते हैं और बाद में पता चलता है कि उन पर तो इल्जाम ही साबित नहीं हुआ। व्यवस्था की कमियों के शिकार ये लोग असल में बलि के बकरे कहे जा सकते हैं, क्या इनके लिए गिरिराज सिंह ने कोई चिंता कभी व्यक्तकी है?

आनंद मोहन की रिहाई पर भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों ने भी चिंता व्यक्त की है। सेंट्रल आईएएस एसोसिएशन ने कहा कि वह, कैदियों के वर्गीकरण नियमों में बदलाव करके गोपालगंज के पूर्व जिलाधिकारी स्वर्गीय जी. कृष्णैया की नृशंस हत्या के दोषियों को रिहा करने के बिहार सरकार के फैसले पर गहरी निराशा व्यक्त करता है। देश के नौकरशाहों के शीर्ष निकाय का मानना है कि बिहार में नियमों में बदलाव गैंगस्टर से नेता बने आनंद मोहन सिंह की रिहाई की सुविधा प्रदान करेगा, जो एक दलित आईएएस अधिकारी की हत्या के लिए आजीवन कारावास की सजा काट रहा था। इस तरह के कदम से लोक सेवकों (आईएएस अफसरों) का मनोबल टूटता है, सार्वजनिक व्यवस्था कमज़ोर होती है और न्याय प्रशासन का मजाक बनता है।

आईएएस अधिकारियों के मनोबल और न्याय व्यवस्था को लेकर एसोसिएशन की चिंता बिल्कुल वाजिब होते हुए भी सुविधाजनक विरोध का उदाहरण है। हत्या के दोषियों की रिहाई से समाज में सही संदेश नहीं जाएगा, इन दोषियों पर कार्रवाई करने वालों की हिम्मत पस्त होगी और पीड़ितों को नाइंसाफ़ी का अहसास होगा।

यह बात केवल एक आईएएस अधिकारी के हत्यारों पर नहीं, बिल्किस बानो के बलात्कारियों और उनके रिश्तेदारों के हत्यारों पर भी लागू होती है। लेकिन जब पिछले साल अगस्त में गुजरात सरकार ने बिल्किस बानो के दोषियों को रिहा किया, तब एसोसिएशन ने इस तरह की निराशा शायद व्यक्त नहीं की। बल्कि तब तेलंगाना की वरिष्ठ आईएएस अधिकारी स्मिता सभरवाल ने इस फैसले पर हैरानी और दुख जताते हुए ट्वीट किया था, तो आईएएस अधिकारियों में इस पर विमर्श छिड़ गया था कि लोकसेवकों को सोशल मीडिया पर इस तरह के फ़ैसलों पर टिप्पणी करना चाहिए या नहीं।


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