विलुप्त होती भारत की अद्भुत बहरूपिया कला

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बहुसंस्कृति वाले देश में एक कला है बहरूपिया, जो धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है लेकिन कुछ लोग हैं जो विभिन्न व्यवसायों से जुड़े होने के बावजूद इस कला को इतिहास बनने से रोकने का प्रयास कर रहे हैं। इन लोगों का मानना है कि समाज में इन दिनों ‘बहरूपियों’ की संख्या बढ़ गई है, जिसके चलते असली बहरूपियों की कद्र कम हो गई है। इनकी सरकार से मांग है कि सभी राज्यों की संस्कृति के आदान-प्रदान को बढ़ावा दिया जाए।

संस्कृति को बचाने की सेवा

दिल्ली के इंदिरा गांधी नेशलन सेंटर फॉर आर्ट्स में आयोजित राष्ट्रीय बहरूपिया पर्व में हिस्सा लेने आए उज्जैन के सरकारी बालिका विद्यालय में प्रधानाचार्य शैलेन्द्र व्यास का कहना है कि वे पिछले 32 साल से बहरूपिया बन कर लोगों का मनोरंजन कर रहे हैं। व्यास के मुताबिक यह कला मजहब से भी ऊपर है। मिजाज से बेहद मजाकिया व्यास ने अपना नाम बदल कर स्वामी मुस्कुराके रख लिया है। उनके पास शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप, सिंधिया, अकबर और पेशवा बाजीराव समेत हर काल के राजाओं की वेशभूषाओं का संग्रह है। उन्होंने बताया कि उनके लिए यह कोई व्यवसाय नहीं है, बल्कि संस्कृति को बचाने की सेवा है।

बिना संस्कृति जीवित नहीं देश

मध्यप्रदेश राज्य बॉडी बिल्डिंग एसोसिएशन के महासचिव और राष्ट्रपति से बेस्ट टीचर का अवार्ड पा चुके व्यास ने बताया कि बाबा महाकाल की नगरी में हर श्रावण और भादो मास में सवारी निकलती है, जिसे वे बचपन से देखते आए हैं। वे कहते हैं कि आज की पीढ़ी ने परंपरा की टोपी को नीचे रख दिया है और पाश्चात्य की टोपी धारण कर ली है। उनका कहना है कि अगर हमारी संस्कृति नहीं बचेगी तो देश जीवित नहीं रहेगा। वे अपने तीन साथियों के साथ मिलकर देश की संस्कृति और कला को बचाने का अभियान चला रहे हैं।

बिना लाभ करते हैं सेवा

उज्जैन में पेशे से कपड़े के शोरूम के मालिक मनोहर गुप्ता स्वामी खिलखिलाके के नाम से प्रसिद्ध हैं। बड़े जोर से ठहाके लगाने वाले गुप्ता कहते हैं कि यह उनका जुनून है और कैसे भी इसके लिए वक्त निकाल लेते हैं। उन्होंने बताया कि अपने शौक के लिए वे खुद किरदार के कपड़े वगैरह खरीदते हैं और सारे किरदार बिना किसी मेकअप के करते हैं। उन्होंने बताया कि बिना किसी लाभार्जन के देश की बहुरूपिया संस्कृति की सेवा में जुटे हुए हैं।

समाज-परिवार की बंदिशें

इस पर्व में हिस्सा लेने आए पंजाब नेशनल बैंक में मैनेजर दिनेश रावल अपने इस जुनून को पूरा करने के लिए छुट्टियां लेकर आते हैं। स्वामी दिलमिलाके के नाम से मशहूर रावल बताते हैं कि महाकाल की सवारी में बहुरूप धारण करने की परंपरा सौ साल से भी पुरानी है। राजाओं-महाराजाओं के समय बहुरूपिया कलाकारों को सरकारों का सहारा मिलता था। लेकिन समाज-परिवार की बंदिशों के चलते कलाकार और कला दोनों मुश्किल में है। वह बताते हैं कि जब मुस्कुराहट बढ़ती है, तो खिलखिलाहट होती है और दोनों लोग मिल कर हंसते हैं, तो उनके दिल मिल जाते हैं।

देवों की कला है ‘बहरूपिया’

इस पर्व में महात्मा गांधी का रूप धारण करने वाले गुजरात के बंसीलाल मोहनलाल पूरे जी जान से बहरूपिया कला की सेवा करने में जुटे हुए हैं। वह बताते हैं कि पांच सौ साल पुरानी इस विलक्षण कला को बहुरूपिये आज भी जिंदा रखने में जुटे हुए हैं। वह बताते हैं कि बहरूपिया ही हिंदुस्तान का पहला कलाकार, जासूस और मेकअपमैन है। 1857 की क्रांति को देशभर में फैलाने वाले बहरूपिया ही थे। वे इसे देवों की कला बताते हुए कहते हैं कि महाभारत में भगवान कृष्ण के कई रूप धारण करने की बात है और उन्हें छलिया भी कहा गया।

आज हर कोई बदल रहा भेस

बंसीलाल के मुताबिक हालात अब बदतर होते जा रहे हैं। वह कहते हैं कि आज हर कोई भेस बदल रहा है, बदनाम हम होते हैं, लोग अब ताने कसते हैं कि कोई काम क्यों नहीं करते। राजाओं के दरबार का मनोरंजन करने वाले बहुरूपिया दर-दर की ठोकर खा रहे हैं। वह इस कला के खत्म होने का दोष सिनेमा और टीवी सीरियल्स को देते हैं। उनकी सरकार से मांग है कि वह इस कला को इतिहास बनाने से रोकना है तो तरस खा कर हर सीरियल और सिनेमा में एक बहरुपिए को काम देना अनिवार्य करे।

पुलिस वाले को बहरूपिया का शौक

पर्व में बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का वेश धारण करके घूम रहे गोवा पुलिस में हवलदार विजय देसाई बताते हैं कि उन्हें बहरूपिया गेटअप बदलने में महारत हासिल है। वे 2015 में 41 मिनट में 21 बार गेटअप बदलकर लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में नाम दर्ज करा चुके हैं। वहीं राज्य सरकार भी उन्हें इसके लिए एक माह की विशेष छुट्टी भी प्रदान करती है।

-एजेंसियां