उत्तराखंड वन विभाग की ओर से हाल ही में कराए सर्वेक्षण से खुलासा हुआ है कि हिमालय के ऊंचाई वाले क्षेत्र में मिलने वाली दुर्लभ जड़ी-बूटी कीड़ा जाड़ा या यार्सागुम्बा (हिमालयन वियाग्रा) को अत्यधिक मात्रा में निकाले जाने और उससे संबंधित गतिविधियों को अंजाम देने से इस क्षेत्र की पारिस्थितिकीय संवेदनशीलता को गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है।
वन शोध शाखा के शोधपत्र में कहा गया है कि हिमालयन वियाग्रा को ‘अवैज्ञानिक तरीके’ से निकाले जाने से वनस्पतियों पर बहुत बुरा असर पड़ा है। इसके अलावा इतनी ऊंचाई पर मानवीय गतिविधियों जैसे लकड़ियों को जलाने से क्षेत्र में कार्बन बढ़ रहा है। पिथौरागढ़ जिले के धारचूला ब्लॉक में कराए गए अध्ययन से खुलासा हुआ है कि 11 गांवों में मई और जून 2019 के दौरान ही 7.1 करोड़ रुपये की आय हुई है।
शोध के मुताबिक दोनों जिलों में पैदा हुई हिमालय वियाग्रा की वैश्विक बाजार में कीमत 5 से 11 अरब डॉलर के बीच है। हिमालय वियाग्रा को बड़े पैमाने पर निकाले जाने और संवेदनशील जगहों पर लकड़ियों को जलाने से क्षेत्र की पारिस्थितिकीय, स्थानीय मौसम, ग्लेशियर पर गंभीर असर पड़ सकता है। शोधपत्र में कहा गया है, ‘इस तरह की गतिविधियां ऊपरी हिमालय के तापमान को बढ़ाएंगी और इसका ग्लेशियर पर बुरा असर पड़ेगा। इससे वियाग्रा की पैदावार को नुकसान पहुंचेगा।
खुदाई से मिट्टी की परतों को नुकसान
शोध शाखा का नेतृत्व करने वाले वरिष्ठ आईएफएस अधिकारी संजीव चतुर्वेदी ने कहा, ‘वियाग्रा को निकालने के लिए की जाने वाली खुदाई से मिट्टी की परतों को नुकसान पहुंचा सकता है। इसके अलावा वियाग्रा के फिर से पैदा होने में समस्या आ सकती है। यह लंबे समय में वियाग्रा की पैदावार को नुकसान पहुंचाएगी।’ शोध में खुलासा हुआ है कि छह हजार वर्गफुट इलाके में खुदाई के लिए करीब एक हजार टेंट लगाए गए। इसमें रहने वाले लोगों ने खुद को गरम रखने के लिए 72 हजार किलो लकड़ी जलाई।
बता दें कि हर साल गर्मियों में हिमालय के आसपास रहने वाले लोग इस बहुमूल्य जड़ी-बूटी की खोज में बहुत ऊंचाई तक जाते हैं। पूरे एशिया और अमेरिका में 100 अमरीकी डॉलर (लगभग 7,000 रुपये) प्रति ग्राम से भी अधिक में यह जड़ी-बूटी बिकती है। यार्सागुम्बा 10,000 फुट से अधिक ऊंचे हिमालय के पहाड़ों में ही पाया जाता है।
-एजेंसियां