आजकल जब चाहें तब गोत्र (GOTRA) को लेकर तरह-तरह की बहस चलने लगती है। टीवी चैनल पर तो इन बहसों में तर्क के साथ-साथ अनेक कुतर्क भी सुनाई देते हैं। कुछ लोग इसके नितांत पोंगापंथी सोच बताते हैं।
बहरहाल, हमारे सनातन धर्म में गोत्र का बहुत महत्व है। ‘गोत्र’ का शाब्दिक अर्थ तो बहुत व्यापक है। विद्वानों ने समय-समय पर इसकी यथोचित व्याख्या भी की है। ‘गो’ अर्थात् इन्द्रियां, वहीं ‘त्र’ से आशय है ‘रक्षा करना’, अत: गोत्र का एक अर्थ ‘इन्द्रिय आघात से रक्षा करने वाले’ भी होता है जिसका स्पष्ट संकेत ‘ऋषि’ की ओर है।
व्याकरण के प्रयोजनों के लिये पाणिनि में गोत्र की परिभाषा है ‘अपात्यम पौत्रप्रभ्रति गोत्रम्’ (४.१.१६२), अर्थात ‘गोत्र शब्द का अर्थ है बेटे के बेटे के साथ शुरू होने वाली (एक साधु की) संतान्। गोत्र, कुल या वंश की संज्ञा है जो उसके किसी मूल पुरुष के अनुसार होती है
संक्षेप में कहे तो मनुस्मृति के अनुसार सात पीढ़ी बाद सगापन खत्म हो जाता है अर्थात सात पीढ़ी बाद गोत्र का मान बदल जाता है और आठवी पीढ़ी के पुरुष के नाम से नया गोत्र आरम्भ होता है।
लेकिन गोत्र की सही गणना का पता न होने के कारण हिन्दू लोग लाखो हजारो वर्ष पहले पैदा हुए पूर्वजो के नाम से ही अज्ञानतावश अपना गोत्र चला रहे है जिससे वैवाहिक जटिलताएं उतपन्न हो रही हैं।
सामान्यत: ‘गोत्र’ को ऋषि परम्परा से संबंधित माना गया है। ब्राह्मणों के लिए तो ‘गोत्र’ विशेषरूप से महत्त्वपूर्ण है क्योंकि ब्राह्मण ऋषियों की संतान माने जाते हैं। अत: प्रत्येक ब्राह्मण का संबंध एक ऋषिकुल से होता है। प्राचीनकाल में चार ऋषियों के नाम से गोत्र परंपरा प्रारंभ हुई। ये ऋषि हैं-अंगिरा,कश्यप,वशिष्ठ और भगु हैं। कुछ समय उपरान्त जमदग्नि, अत्रि, विश्वामित्र और अगस्त्य भी इसमें जुड़ गए। व्यावहारिक रूप में ‘गोत्र’ से आशय पहचान से है। जो ब्राह्मणों के लिए उनके ऋषिकुल से होती है।
कालान्तर में जब वर्ण व्यवस्था ने जाति-व्यवस्था का रूप ले लिया तब यह पहचान स्थान व कर्म के साथ भी संबंधित हो गई। यही कारण है कि ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य वर्गों के गोत्र अधिकांश उनके उद्गम स्थान या कर्मक्षेत्र से संबंधित होते हैं। ‘गोत्र’ के पीछे मुख्य भाव एकत्रीकरण का है किन्तु वर्तमान समय में आपसी प्रेम व सौहार्द की कमी के कारण गोत्र का महत्त्व भी धीरे-धीरे कम होकर केवल कर्मकाण्डी औपचारिकता तक ही सीमित रह गया है।
जब गोत्र पता न हो तो …
ब्राह्मणों में जब किसी को अपने ‘गोत्र’ का ज्ञान नहीं होता तब वह ‘कश्यप’ गोत्र का उच्चारण करता है। ऐसा इसलिए होता क्योंकि कश्यप ऋषि के एक से अधिक विवाह हुए थे और उनके अनेक पुत्र थे। अनेक पुत्र होने के कारण ही ऐसे ब्राह्मणों को जिन्हें अपने ‘गोत्र’ का पता नहीं है ‘कश्यप’ ऋषि के ऋषिकुल से संबंधित मान लिया जाता है।
जिनके गोत्र ज्ञात न हों उन्हें काश्यपगोत्रीय माना जाता है।
गोत्रस्य त्वपरिज्ञाने काश्यपं गोत्रमुच्यते।
यस्मादाह श्रुतिस्सर्वाः प्रजाः कश्यपसंभवाः।। (हेमाद्रि चन्द्रिका)
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