भारत से मात मिली तो पुंछ और राजौरी में आतंकवाद को जिंदा करने के ‘नापाक प्रयास’ को मिला चीन का साथ

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राष्ट्रीय राइफल्स को स्पेशल काउंटर इंटरजेंसी फोर्स के रूप में जाना जाता है। वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) के साथ लगे विवादित क्षेत्रों में चीन ने हजारों सैनिक भेज दिए तो जवाब में राष्ट्रीय राइफल्स को भेजा गया। रक्षा सूत्रों का कहना है कि चीन अब इस गेम प्लान पर काम कर रहा है कि पुंछ-राजौरी सेक्टर में आतंकवाद को जिंदा कर दिया जाए ताकि भारतीय सेना पर लद्दाख से सैनिकों को हटाने और उन्हें आतंकवाद प्रभावित इलाकों में फिर से तैनात करने का दबाव डाला जा सके।

गत दिनों सेना के दो वाहनों पर आतंकी हमलों में हमारे चार सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गए तो सेना ने अभियान छेड़ दिया है, लेकिन हम यहां बात करेंगे कि चीन ने अगर भारत के खिलाफ आतंकवाद का सहारा लेने की सोची है तो क्या वह भी पाकिस्‍तान की तरह मान चुका है कि भारत के साथ सीधी लड़ाई में वह जीत नहीं सकता।

भारत से मात खा रहे चीन का बदल गया मिजाज?

दरअसल, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने सीमा पर तनाव को अपने राजनीतिक और कूटनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है। उनके शासन में बड़े-बड़े सीमा विवाद बने रहते हैं। कई सारी बातचीतों के बावजूद, उन्होंने इन तनावों को कम करने की कोशिश नहीं की। चूंकि भारत की सुरक्षा और विदेश नीतियों पर दूसरे तरीकों से दबाव बनाने की उनकी ताकत सीमित है इसलिए सीमा विवाद उनके लिए भारत का ध्यान खींचने का एक अहम तरीका बन गया। हालांकि अब यह तरीका धीरे-धीरे कम असरदार होता जा रहा है।

भारत जितना ज्यादा अपने सीमावर्ती इलाकों को मजबूत करेगा और अपनी सेना को तैयार करेगा, उतना ही चीन के लिए भारत के खिलाफ सैन्य बढ़त बनाना मुश्किल होगा। गलवान संघर्ष इसका बड़ा उदाहरण है। चीन को अंदाजा भी नहीं होगा कि भारतीय सेना अपने एक के बदले उसके तीन सैनिकों को मार गिराएगी। भारत ने गलवान हिंसा में अपने 20 सैनिक खो दिए, लेकिन आज तक चीन की हिम्मत नहीं हो सकी कि वो अपने मारे गए सैनिकों की संख्या बताए। पिछले वर्ष फरवरी में ऑस्ट्रेलियाई अखबार क्लैक्सॉन (Klaxon) में छपी एक खोजी रिपोर्ट में दावा किया गया है कि गलवान में चीन ने भारत के मुकाबले नौ गुना सैनिक खोए थे।

शी को मोदी का मतलब समझ में आ गया?

शी को शायद समझ चुके हैं कि भारत में सत्ता की बागडोर जिन नरेंद्र मोदी के हाथों में है, वो किस मिट्टी के बने हुए हैं। अगर शी का चीन की सत्ता पर जबरन जोर है तो मोदी भारत ही नहीं, दुनिया में सबसे लोकप्रिय नेता हैं। शी और मोदी सीमा विवाद को अलग-अलग नजरों से देखते हैं। शी जिनपिंग के सत्ता में आने से पहले चीन और भारत के बीच सीमा पर तनाव कम हुआ करते थे और उन्हें सुलझाने के लिए बड़े नेताओं की जरूरत नहीं पड़ती थी लेकिन जब शी ने रौब दिखाने की ठानी तो मोदी ने उन्हें मुंह की खिला दी। एलएसी पर संघर्ष के बाद भारत ने भी सीमा पर अपनी सैन्य ताकत बढ़ाई है।

सीमा पर चीन को मुहंतोड़ जवाब

भारत सरकार ने 2021 में लगभग 50 हजार सैनिकों को एलएसी पर तैनात किया। भारतीय वायु सेना भी सीमा के पास तैनात है। इस सैन्य वृद्धि को इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रॉजेक्ट्स से बूस्ट मिल रहा है। एलएसी के साथ 73 रणनीतिक सड़कों के निर्माण की योजना पर तेजी से काम चल रहा है, जिसमें अरुणाचल प्रदेश राज्य में लगभग 1,430 मील की सड़क शामिल है, जहां दिसंबर 2022 में झड़प हुई थी और जिसे बीजिंग ‘दक्षिणी तिब्बत’ के रूप में दावा करता है। साथ ही सीमा क्षेत्रों तक तेजी से परिवहन की सुविधा के लिए कई सुरंगें भी बनाई जा रही हैं। भारतीय सरकार ने इस साल सीमा के अपने हिस्से के गांवों में महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचा बनाने के लिए ‘वाइब्रेंट विलेजेज‘ अभियान भी शुरू किया।

शी ने दोस्ती की भाषा नहीं समझी तो अब भुगत रहे

पीएम मोदी ने सत्ता में आने के बाद शी जिनपिंग को काफी अहमियत दी क्योंकि वो चीन के साथ संबंधों में किसी तरह का तनाव के पक्षधर नहीं थे। लेकिन शी ने अन्य देशों की तरह चिकोटी काटकर भारत को भी भांपने की हिमाकत की, अब नतीजे सबके सामने हैं। भारत ने चीन को हर मोर्चे पर झटके पर झटका देना शुरू किया। भारत का चीन के साथ आर्थिक संबंधों में बदलाव आया और पश्चिमी लोकतंत्रों के साथ गहन रणनीतिक संबंध मजबूत होने लगे। अमेरिका-भारत रक्षा व्यापार वर्ष 2008 में लगभग शून्य था जो 2020 में 20 अरब अमेरिकी डॉलर को पार कर गया। वॉशिंगटन और नई दिल्ली के बीच स्ट्रैटिजिटक टेक्नॉलजी की साझेदारी और इंडस्ट्रियल डिफेंस को-ऑपरेशन का विस्तार करने के लिए क्रिटिकल एंड इमर्जिंग टेक्नोलॉजीज की पहल की। दोनों सेनाओं ने कई सैन्य अभ्यासों को भी नियमित कर दिया है, जिनमें टाइगर ट्रायंफ, युद्ध अभ्यास और अब क्वाड का अभ्यास मालाबार शामिल है, जो अब ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका की नौसेनाओं को एक प्लैटफॉर्म पर लाता है।

भारत से अब कभी युद्ध नहीं जीत सकता चीन

इसी वर्ष जुलाई में द ग्लोब एंड मेल डॉट कॉम पर प्रकाशित एक लेख में रक्षा विशेषज्ञ ब्रह्म चेलानी कहते हैं, ‘भारत और चीन के बीच सीमा पर तनाव बहुत बढ़ गया है। दोनों देश बड़ी ताकत के साथ एक-दूसरे का मुकाबला कर रहे हैं। कुछ लोग सोचते हैं कि यहां तक कि बड़े युद्ध का खतरा होने के बावजूद भारत इस तरह से चीन की ताकत को खुलेआम चुनौती दे रहा है जैसा इस सदी में किसी दूसरे देश ने नहीं किया।’

वहीं, अमेरिकी नौसेना के प्रमुख माइकल गिल्डाय ने कहा था कि भारत ने चीन को ‘दो मोर्चों’ की समस्या खड़ी कर दी है। इसका मतलब है कि चीन को न सिर्फ पूर्व की ओर दक्षिण चीन सागर और ताइवान जलडमरूमध्य की तरफ ध्यान देना पड़ता है, बल्कि अब उसे भारत की तरफ भी देखना पड़ता है। इसके अलावा, कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि सीमा विवाद में चीन अपनी शर्तों पर जीत नहीं पा सकता। जहां चीन की सेना ज्यादातर भर्ती के सैनिकों पर निर्भर करती है, वहीं भारत के स्वयंसेवी सैनिक पहाड़ी इलाकों में युद्ध करने का दुनिया का सबसे ज्यादा अनुभव रखते हैं।

एक आशंका यह है कि भारत-चीन, दोनों परमाणु शक्तियों के बीच युद्ध शायद खूनी गतिरोध में खत्म होगा, जिसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन की हार के रूप में देखा जाएगा। इससे शी जिनपिंग की छवि को भी नुकसान पहुंचेगा। इसलिए, अगर भारत के साथ टकराव बढ़ता है, तो शी जिनपिंग अपनी ही बनाई समस्याओं में फंस सकते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या शी जिनपिंग भारत के साथ इस सैन्य तनाव को कम करने के लिए कोई रास्ता निकालने को तैयार होंगे?

चीन पर अब कोई गलती नहीं करेगा भारत

दरअसल, 2006 में जब चीन के स्ट्रैटिजिक डोमेन में इस बात पर जोर दिया गया कि भारत के साथ लगने वाले सीमाई इलाकों में इन्फ्रास्ट्रक्चर को तेजी से विकसित किया जाए तो भारत के कान खड़े हो गए। भारत को दशकों से चीन-पाकिस्तान के बीच गठजोड़ के खतरे का अच्छे से अहसास है। पिछले वर्ष जनवरी में तत्कालीन भारतीय सेना प्रमुख जनरल एम एम नरवणे ने अपनी वार्षिक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि ‘पाकिस्तान और चीन के बीच सैन्य और गैर-सैन्य दोनों क्षेत्रों में सहयोग बढ़ रहा है। हमें दो तरफ से होने वाले हमले की स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए।’

एक अन्य शीर्ष भारतीय सैन्य कमांडरों ने भी इस दोतरफा खतरे को स्वीकार किया। देश के पहले चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत ने माना था कि ‘पाकिस्तान के कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर में चीन का पाकिस्तान के साथ आर्थिक सहयोग, लगातार सैन्य, आर्थिक और राजनयिक समर्थन हमें बहुत तैयार रहने के लिए मजबूर करता है। इससे उत्तरी और पश्चिमी सीमाओं पर एक साथ हमले का खतरा भी है, जिसे हमें अपनी रक्षा योजना में शामिल करना होगा।’

चीन से निपटने की तैयारियों को लगे पंख

नरेंद्र मोदी सरकार ने रक्षा विशेषज्ञों की चिंताओं के समझकर ने सैन्य सुधार और सशक्तीकरण की दिशा में बड़ा कदम उठाया। आज न केवल विदेशों से सारे जरूरी रक्षा साजो-सामान आयात किए जा रहे हैं बल्कि ‘मेक इन इंडिया’ में रक्षा उत्पादन को भरपूर बढ़ावा दिया जा रहा है। नतीजे में भारत आज उस स्थिति में पहुंच गया है कि 80 से ज्यादा देशों को हथियारों और रक्षा उपकरणों का निर्यात कर रहा है। चीन और शी को यह सब दिख रहा है। तो क्या पूर्व पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की तरह ही मान लिया कि भारत के साथ सीधी लड़ाई में जीत पाना अब मुश्किल ही नहीं, नाममुकिन हो गया है?

मजबूत भारत ने चीन को पाकिस्तान बना दिया?

ध्यान रहे कि वो भुट्टो ही थे जिन्होंने कहा था कि घास की रोटी खाएंगे, लेकिन भारत से हजार साल तक लड़ेंगे। उनके इसी आह्वान पर जनरल जिया उल हक ने पाकिस्तान को ‘ब्लीड इंडिया विद थाउजेंड कट्स‘ की थिअरी दी थी। उन्होंने भारत के साथ सीधी लड़ाई की जगह आतंकवादियों-जिहादियों के सहारे भारत की बर्बादी का सपना देखा था। जिया उल का सपना तो पूरा नहीं हो सका, जुल्फिकार अली भुट्टो का कहना जरूर पूरा होता दिख रहा है। आज पाकिस्तानियों को घास की रोटी खाने की ही नौबत आ गई है। कई पाकिस्तानी अब खुलकर बोलने लगे हैं कि भुट्टो प्लान से पाकिस्तान ही लहुलुहान है। अब तक नवाज शरीफ भी भारत की प्रगति के आईने में पाकिस्तान को परखकर खुलेआम शर्मिंदगी का इजहार करने की हिमाकत करने लगे हैं। हिमाकत इसलिए क्योंकि सेना और नॉन-स्टेट एक्टर्स के दबदबे वाले पाकिस्तानी इस्टेब्लिशमेंट में भारत की तुलना करके पाकिस्तान की फजीहत करना आज भी किसी गुनाह से कम नहीं। संभव है कि पेच-पेच ढीला हुआ पाकिस्तान फिलहाल मजबूरी में भारत को लेकर नवाज के पतंग की डोर थोड़ी ढीली छोड़ने कर माहौल भांपने का फैसला किया हो।

भुट्टो की राह अपनाने को मजबूर हुए शी?

बहरहाल, लगता तो यही है कि शी भी भुट्टो का जामा पहनने को तैयार दिख रहे हैं। लद्दाख अब केंद्रशासित प्रदेश बन चुका है। शी को पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) और अक्साई चिन की चिंता भी सता रही होगी। रूस भी भारत के लिए तेल पाइपलाइन बिछाने पर आमादा है। स्वाभाविक है कि यह हिमालय से होकर ही संभव होगा। यह बहुत कठिन काम है, लेकिन रूस हर हाल में इसे पूरा करने को उत्सुक है। ऐसा हुआ तो रूस का पाइपलाइन पीओके से होकर ही आएगा। यह कैसे संभव है? पीओके तो भारत के पास नहीं है।

रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह हों या गृह मंत्री अमित शाह, भारत की तरफ से बार-बार कहा जा रहा है कि पीओके हमारा है। अभी हाल ही में भारतीय संसद ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा में पीओके के लिए 24 सीटें निर्धारित कर दी हैं। भारत के इस बदले मिजाज से शी सकपकाए तो होंगे।

-एजेंसी