आज़ादी के 75 साल-बेमिसाल…

अन्तर्द्वन्द

सन 1946 में जब पंडित नेहरू ने डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया लिखा तो भारत के राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और उभर चुके भारत राष्ट्र की पहचान, संसार के सामने उजागर हो गई । किन्तु गाँधी जब अर्ध नग्न हुए तो भारत की आर्थिक दुर्दशा, विश्व के सामने नग्न हो कर सामने आ गई । संसार शर्मशार हुआ हमारी विवशता देख कर। विश्व ने देखा था कि एक तरफ जब ब्रिटिश शासन का सूर्य उदित हो रहा था भारत में, तभी से हिन्दोस्तान की अर्थव्यवस्था का सूर्य भी अस्त होने लगा था । लेकिन सन 1947 में काल के प्रवाह ने सब कुछ बदल दिया । उसने बदल दिया हमारी आशा, आकांक्षा और पहचान को और आज हम आज़ाद हैं दुनिया के चमन में । हमारी उड़ान को पंख लगे और अर्थव्यवस्था भी अँधेरे युग से सधे पाँव आगे बढ़ निकली ।

गाँधी और नेहरू के रूप में हमारे पास निश्चय ही दो अप्रतिम प्रकाश पुंज थे जो मानव इतिहास के न केवल सबसे बड़े योद्धा वरन रहबर बन कर भी उभरे थे और उनकी रहनुमाई में देश बढ़ चला था प्रकाश की ओर, किन्तु कुछ-कुछ अँधेरे में टटोलते हुए । तब से 75 वर्ष बीत गए और हम अमृत काल मनाने खड़े हुए हैं और अब समय है कि हम अपनी आर्थिक सफलता-असफलता का विश्लेषण करें। किन्तु सकारात्मक सोच होगी कि हम अमृत महोत्सव काल में अपनी सफलताओँ के अमृत का ही रस पान करें तो श्रेठ होगा ।

सन 1947 में अस्त होते हुए ब्रिटिश शासन में भारतीय अर्थव्यवस्था भी अंतिम सांसें लेती हुई दिखाई देती है ।लगभग दो सौ साल के ब्रिटिश शासन में भारत ने पूर्व के एक स्वर्ण युग को खोया और एक विपन्नता भरे युग को पाया भी । ब्रिटिश काल के पूर्व की स्वावलम्बी ग्रामीण अर्थव्यवस्था, कुटीर और लघु उद्योग आदि ब्रिटिश शासन में छिन्न भिन्न तथा मरण तुल्य होती दिखाई देती हैं और दिखाई देती है कृषि क्षेत्र में जमींदारी प्रथा का उदय होना एवम भारत के घरेलू संसाधनों के ब्रिटेन को बहिर्गमन से ब्रिटिश अर्थव्यवस्था और साम्राज्य का मजबूत होना । किन्तु भारत दुर्दशा ग्रस्त हिन्दोस्तान में परिवर्तित हो जाता है । आइये अधोगति को, आकड़ों की जुबानी समझें। देखें की सभी आर्थिक-सामाजिक संकेतक हमारे पूर्वजों के विपत्ति भरे जीवन की गाथा कहते दिखाई देते हैं।

ब्रिटिश शासन में भारतीयों की साँस अटकी रहती थी क्योंकि पैदा होने और काल के गाल में समा जाने के बीच फ़ासला बहुत कम था । 1947 में जीवन प्रत्याशा लगभग 36.6 वर्ष मात्र थी । भूख, कुपोषण, बीमारी के शिकार हमारे पूर्वज जो थे क्योंकि हमारी औसत आय बहुत कम थी और जीडीपी निचले स्तर पर स्थिर बनी हुई थी । सन 1950-51 में हमारी औसत आय 265 रु. थी। सन 1914 से सन 1946 के बीच जीडीपी में ग्रोथ अनेक अर्थशास्रीयों के अनुसार लगभग शून्य थी और सन 1960 में जीडीपी मात्र 0.04 ट्रिलियन डॉलर की थी । अर्थव्यवस्था के व्यावसाइक ढांचे में प्राथमिक क्षेत्र (कृषि) का ही प्रमुख स्थान था । स्पष्ट है कि कृषि ही प्रमुख व्यवसाय थी और वह भी पिछड़ी हुई स्थिति में थी । उत्पादन और उत्पादकता निम्न थी । एक बड़ी जनसँख्या भूख से ग्रसित थी । भारत ने अनेक दुर्भिक्ष देखे । क्या हम सन 1905 और 1943 के बंगाल के दुर्भिक्ष को भूल गए हैं? सन 1951 में मृत्यु दर और शिशु मृत्यु दर, दोनों ही ऊँची थी जिसके परिणाम स्वरूप ज्यादा बच्चे पैदा करना भी मजबूरी थी । केवल 18.4 प्रतिशत जनसँख्या ही साक्षर थी। न सड़कें थी, न बिजली, न स्वक्ष पानी,न स्वास्थ का उचित प्रबंध ।तो था क्या ? आँकड़े हैं कि भूख और गरीबी थी, पगडंडिया थी, ढिबरी की रौशनी थी, हैजा, चेचक और प्लेग था और थे उनसे अल्पायु में मरने के लिए अभिशप्त लोग। तो इस काल में विकास शब्द का विलोम अविकास ही राज्य करता दिखाई देता है । ऐसे ही अँधेरे युग से जिसमे कि घोर पिछड़ी हुई सामाजिक-आर्थिक दशा थी, भारत का जन्म होता है जिसमे स्वाधीन भारत के शासकों के साथ आम जन को भी इन चुनौतिओं का सामना करना था ।अब देखना है कि क्या हम 75 वर्षों में इनका सफलता पूर्वक सामना कर पाए अथवा नहीं । विकास के मार्ग में चुनौतियाँ अपरिमित थी, कठिन डगर पर चलना था और घोर मेहनत करनी थी ।नवस्तुतः अंधेरे में ही टटोलना था । दैवयोग से देश को उत्साही, कर्मठ जनता के साथ सैद्यान्तिक सोच से परिपूर्ण रहबर भी मिल गए थे । 75 वर्षो में सोच की मुख्यतः तीन धाराएँ और दशाएं तथा तीन तरह के रहनुमा भी मिले किन्तु सबका सपना ही देश को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाना था ।क्या थी सोचें ? आइये देखें ।

कालजयी सोच के स्वामी और स्वप्नद्रष्टा पंडित नेहरू ने एक नई सोच, मिश्रित अर्थव्यवस्था की नींव भारत में रखी।सोच थी कि भारत के विकास में सार्वजानिक और निजी क्षेत्र दोनों की भागीदारी आवश्यक है । हम उन्ही की सोच पर वर्षो चले और भारत के निर्माण की आधारशिला रख पाने में सफल रहे । उनकी सफलता के कीर्ति स्तम्भ आज भी रेल, सड़क, वायु और जल परिवहन, बिजली घर, बांध, बंदरगाह, पुल, नहर, अंतरिक्ष, टेक्नोलॉजी आदि के रूप में हमारी अर्थव्यवस्था को संचालित कर रहे है ।

क्या यह सच नहीं की उनके सम्मुख कोई विशेष मॉडल नहीं था ? कालांतर में श्रीमती इंदिरा गाँधी ने समाजवादी अर्थव्यवस्था की नींव रखी । सोच थी कि गरीब, किसान, नौजवान और समाज में हाशिये पर रह रहे लोगों को भी विकास का लाभ मिलना चाहिए और सार्वजनिक क्षेत्र के माध्यम से सरकार की भूमिका अर्थव्यवस्था की प्रगति में आवश्यक बन जाती है । इस सोच को अमली जामा पहुंचाने का भगीरथ प्रयास भी हुआ और उसके सकारात्मक परिणाम भी प्राप्त हुए ।

तीसरी सोच, निजी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देती दिखाई देती है जिसके रहनुमा श्री नरसिम्हा राव और श्री मनमोहन सिंह रहे। बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में संस्थाओ के महत्व को बढ़ावा देकर श्री नरेंद्र मोदी भी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के ही पोषक हैं । तो इन्ही सैद्धांतिक सोचों के माध्यम से देश के विकास की नींव न केवल रखी गई वरन आज हम बहुत कुछ एक मजबूत अर्थव्यवस्था बन चुकें हैं जो हमे आत्ममुग्ध करती है । आइये सम्मोहित करने वाली सफलता का आनंद लें ।

बटवारे में हमारे अनेक संसाधन पाकिस्तान चले गए। साधन विहीन अर्थव्यवस्था में केवल अपनी गरीब किन्तु सजग जनसँख्या का ही सहारा रहा। आज भारत माता की संतानों की संख्या 142 करोड़ है किन्तु सन 1947 में हम लगभग 36 करोड़ ही थे। लेकिन नेहरू हों की लाल बहादुर शास्त्री या की मैडम गाँधी, जनता चल पड़ी थी उनके इशारों पर, मन में तमन्ना लिए कि भारत की तक़दीर और तस्वीर बदल देनी है । सुराज्य स्थापित करना है स्वराज्य में । आगे आने वाले अपने रहबरों को भी यही सम्मान मिला और परिणाम स्वप्नं सरीखे रहे।

सन 1947 के बाद से स्वराज्य की सबसे बड़ी सफलता है कि जीवन प्रत्याशा बढ़ी है और हम दीर्घ जीवन जीने की राह पर हैं । स्वतंत्रता के समय हम, मध्य गृहस्थ आश्रम (36.6 वर्ष) में ही काल के गाल में समा जाते थे किन्तु आज हम लगभग वानप्रस्थ आश्रम को पूरा कर रहे हैं (70 वर्ष ) ।

क्या यह छोटी सफलता है ? यह सफलता इसलिए हाशिल हुई है की स्वास्थ सुविधाएं बढ़ी हैं । लगभग सभी बच्चों का टीकाकरण हो रहा है। हम पर्याप्त और पौष्टिक भोजन कर पा रहे हैं । भूख जैसे कल की बात हो कर रह गई है । ऐसा क्यों है ? क्योंकि खाद्यान उत्पादन रिकॉर्ड पर है । सन 2021-22 में कुल खाद्यान उत्पादन 31.45 करोड़ टन हुआ जबकि सन 1950-51 में यह लगभग 5 करोड़ टन ही था । क्या यह विषमयकारी वृद्धि नहीं है क्योंकि बटवारे के बाद से भारत का आकार घट नहीं गया ? चावल, और गेहू, दोनों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता कई गुना ज्यादा बढ़ी है यद्यपि कि इसी दौरान भारत, जनसँख्या विस्फोट से भी गुजर रहा है ।नसन 1951 में जहाँ हम खाद्यान का आयात करते थे (4.8 मिलियन टन ), वहीं सन 2020 में 5.9 मिलियन टन का निर्यात करने लगे । सन 1950-51 में 17 मिलियन टन दूध का उत्पादन हो रहा था तो सन 2020-21 में इसका उत्पादन 209.96 मिलियन टन हो गया । तो क्या दूध की गंगा नहीं बह रही है? फल, सब्जियों और मछली के उत्पादन में विश्व में आज हम दूसरे नंबर पर हैं । अंडे और मांस के उत्पादन में विश्व में हमारा स्थान क्रमसः तीसरा और आठवाँ है । तो क्रांति ही क्रांति है । गरीबी में भी तेजी से घटाव है । सन 1950-51 में लगभग 45 प्रतिशत जनसँख्या गरीबी की रेखा से नीचे थी ।अब एक अनुमान के अनुसार इसमें आधा से ज्यादा की कमी हो गई है

सन 2021-22 में प्रति व्यक्ति आय 150326 रु रही जबकि यह सन 1950-51 यह 265 रु मात्र थी ।जनसँख्या के तेजी से बढ़ने के बावजूद भी गरीबी में कमी हो या की प्रति व्यक्ति आय अथवा उपभोग में वृद्धि, हम सब को इतराने के लिए पर्याप्त कारण देता है । सभी सकारात्मक परिवर्तनों की जननी, साक्षरता भी तेजी से बढ़ी है । सन 1951 में केवल 18.3 प्रतिशत जनता ही साक्षर थी और अब लगभग 78 प्रतिशत हैं । तो क्या कम है ? स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी का जाल बिछा । लोगों को समझ आ गई है की शिक्षा ही रोशनी है और इसमें नहाने का सकारात्मक प्रभाव चहुँ ओर होता है । इसीलिए अब लोग बढ़ती जनसँख्या के खतरों से भी ज्यादा सावधान हैं और अपने बच्चों की संख्या को सीमित करने का प्रयास करने लगे हैं । परिणाम है कि कुल प्रजनन दर तेजी से घटी है (5.9 की जगह मात्र 2) और अब जनसँख्या स्थिर होने के कगार पर है ।अर्थव्यवस्था का आकार भी तेजी से विस्तृत हुआ है। सन 1960 की 0.04 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था अब 3.0 ट्रिलियन डॉलर की हो गई है । क्या यह हैरत अंगेज़ वृद्धि नहीं ? तो अर्थव्यवस्था में पिछले 75 वर्षों में हुए इन बदलाओं की जय गाथा से क्या हम मंत्र मुग्ध और संतुष्ठ न होंगे ? अर्थव्यवस्था में एक ज्वार सा आ चुका है और अर्थव्यवस्था का कोई भी क्षेत्र इससे अछूता नहीं रहा । विभिन्न सामाजिक-आर्थिक संरचना का निर्माण हो या कि प्रौद्योगिकी का उन्नयन या वैज्ञानिक परिवर्तन अथवा चाँद और मंगल पर पहुंचने की दौड़, हम सभी जगह उपस्थित हैं ।

तो विकास की गंगा उफनती हुई नदी की तरह बह निकली है । एक विकसित हो रहे और आबादी बाहुल्य देश के लिए यह अत्यंत गौरव के क्षण हैं । हम सब ने और हमारे पूर्वजों ने असह्य कष्ट सहे हैं किन्तु अथक परिश्रम नहीं छोड़ा और 75 वर्षों में बदल डाला भारत की दशा और दिशा को । यह भी याद रखने की आवश्यकता है कि 75 वर्षों की अर्थव्यवस्था के इस सफ़ऱ में वे 70 साल भी शामिल हैं जिनका प्रायः आज कल हिसाब मांगा जाता है, यद्यपि कि उसी ने भारत की अर्थव्यवस्था को आधारशिला दी । वस्तुतः हिसाब मांग कर के हम अपने पूर्वजों के साथ साथ मजदूर, किसान, नौजवान एवं पूरे आवाम के कठोर श्रम और समर्पण का अपमान ही करते हैं।

(लेखक का आभार उन लेखकों, प्रकाशकों एवं संस्थाओ को है जिनकी रिपोर्टो एवं लेखन सामग्री का उपयोग इस आलेख को तैयार करने में किया गया है)

(लेखक- विमल शंकर सिंह, डी.ए.वी.पी.जी. कॉलेज, वाराणसी के अर्थशास्त्र विभाग में प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष रहे हैं)