ये है दुनिया के सबसे बदनाम शहरों में से एक, जहां लूट से लेकर बलात्कार तक की घटनाएं आम हैं…

Cover Story

कल जहां बसती थीं ख़ुशियां, आज है मातम वहां
वक़्त लाया था बहारें, वक़्त लाया है ख़िजां.

साहिर की लिखी ये लाइनें हमें वक़्त की ताक़त का एहसास कराती हैं और जो इन लफ़्ज़ों से समय की शक्ति को महसूस न कर पाएं तो आपको ले चलते हैं, दक्षिण अफ्रीका के शहर जोहानिसबर्ग.

ये दुनिया के सबसे बदनाम शहरों में से एक है. जहां लूट से लेकर बलात्कार तक की घटनाएं आम हैं.
पर जोहानिसबर्ग पर हमेशा ही बदनामी का ये दाग़ नहीं था. एक दौर ऐसा भी था, जब जोहानिसबर्ग की शोहरत से दुनिया की आंखें चुंधियाती थीं.

दुनिया का सबसे अमीर शहर

आज से क़रीब डेढ़ सौ साल पहले जोहानिसबर्ग दुनिया का सबसे अमीर शहर था. इसे ‘सिटी ऑफ़ गोल्ड’ कहा जाता था क्योंकि उस वक़्त यहां की खदानों से दुनिया का 80 फ़ीसद सोना निकाला जाता था लेकिन कई दशक तक जुर्म और आर्थिक पतन की वजह से इसे दुनिया के सबसे ख़तरनाक शहरों में शुमार किया जाने लगा.

जोहानिसबर्ग के उत्थान और पतन की कहानी का सबसे बड़ा सबूत यहां का केंद्रीय कारोबारी इलाक़ा है.
जोहानिसबर्ग को जानना है, इसके इतिहास को देखना है और इसके भविष्य का आकलन करना है तो आप को इस कारोबारी इलाक़े में आना होगा.

यहां आने पर आप को मिलेंगी बंद हो चुके बैंकों के ख़ाली लॉकर, बर्बाद हो चुके शेयर बाज़ार की खंडहर होती इमारत. साथ ही आप को यहां नए-नए रेस्टोरेंट, दुकानें और नई इमारतें भी देखने को मिलेंगी. यूं लगेगा जैसे खंडहरों के बीच से नया शहर उग रहा है.

जोहानिसबर्ग शहर ज़्यादा पुराना नहीं है. बात 1886 की है जब एक अंग्रेज़ ने यहां सोने की खदानों की खोज की थी. उस वक़्त ये डच भाषा बोलने वाले बोअर किसानों के ट्रांसवाल रिपब्लिक का हिस्सा हुआ करता था. हॉलैंड के ये मूल निवासी केपटाउन शहर पर अंग्रेज़ों का राज क़ायम होने के बाद भागकर यहां आ गए थे लेकिन जब यहां सोने का अकूत ख़ज़ाना मिला तो दुनिया भर से लोग यहां अपनी क़िस्मत को सुनहरे हर्फ़ों में लिखने के लिए आकर बसने लगे.

धन-दौलत की बारिश आई, तो देश की तरक़्क़ी का पहिया भी तेज़ी से घूमा. आर्थिक तरक़्क़ी का एक बुरा नतीजा ये भी हुआ कि यहां बाहर से आकर बसने वालों और डच मूल के लोगों के बीच जंग छिड़ गए. इसे दुनिया बोअर युद्ध के नाम से जानती है. आख़िर में 1902 में अंग्रेज़ जीत गए.

रियासतों को एकजुट करके बना दक्षिण अफ़्रीका

जोहानिसबर्ग के शानदार इतिहास की सबसे बड़ी मिसाल है, फॉक्सकास बैंक का कांच का बना गुंबद. अब इस बैंक को एबीएएसए के नाम से जाना जाता है. बैंक की ये इमारत ख़ाली पड़ी हुई है. लोग ऐतिहासिक टूर पर निकलते हैं, तो इस कांच के गुम्बद का दीदार करने का मौक़ा मिलता है.

बोअर युद्ध में जीत के बाद अंग्रेज़ों ने 1910 में दक्षिणी अफ्रीका के छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटी रियासतों को एकजुट करके यूनियन ऑफ़ साउथ अफ्ऱीका के नाम से नया मुल्क बनाया.

अमन क़ायम हुआ तो जोहानिसबर्ग फिर से पैसे बनाने में जुट गया. पूरे शहर में बैंक खुल गए. लोगों की क़ीमती चीज़ें रखने के लिए तहख़ाने खुल गए.

मसलन यूनाइटेड सेफ़्टी डिपॉज़िट नाम का एक तहख़ाना. ये 1976 तक चल रहा था. लेकिन एक बैंक डकैती की वजह से दिवालिया होने के बाद इसे बंद करना पड़ा. अब यहां पर एक बार चलता है. लोग यहां पर बैठकर डिनर का भी लुत्फ़ ले सकते हैं. आज भी इस तहख़ाने में 1000 से ज़्यादा बक्से बंद हैं. इनके भीतर क्या है किसी को नहीं पता.

जोहानिसबर्ग ने ख़ूब दौलत कमाई. मगर ये गिने-चुने लोगों की मुट्ठी में क़ैद होकर ही रह गए. दक्षिण अफ्रीका की ज़्यादातर आबादी इस दौलत से महरूम ही रही.

अमरीकी डॉलर के बराबर थी रैंड करेंसी

1948 के चुनाव में नेशनल पार्टी केवल 38 फ़ीसद वोट पाकर सत्ता में आ गई. उसके बाद इसने देशभर में रंगभेद की नीति लागू कर दी.

काले लोगों को शहरों से दूर अलग बस्तियों में बसने को मजबूर कर दिया गया. गोरे कारोबारी, अपने यहां 6 से ज़्यादा अश्वेतों को नौकरी पर नहीं रख सकते थे. अश्वेतों को देश की नागरिकता और उनकी अपनी ज़मीन पर अधिकार तक से वंचित कर दिया गया.

कई बरस तक दुनिया ने दक्षिण अफ्ऱीका के घोर रंगभेद की तरफ़ से आंखें मूंद रखी थीं. 1960 में वहां अश्वेतों के शार्पविल नरसंहार कांड के बाद आख़िरकार कनाडा और भारत के दबाव में दक्षिण अफ्ऱीका को ब्रिटिश कॉमनवेल्थ से बाहर किया गया. वो ब्रिटेन की महारानी के निज़ाम के दायरे से भी बाहर हो गया.

ब्रिटेन से आज़ाद होने के बाद दक्षिण अफ्रीका की तरक़्क़ी को और रफ़्तार मिल गई. इसने रैंड के नाम से अपनी नई करेंसी शुरू कर दी, जो अमरीकी डॉलर के बराबर क़ीमत की थी.

दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों के ख़िलाफ़ रंगभेद के ज़ुल्म जारी रहे. कई बरस के आंदोलन के बाद जाकर दुनिया की निगाहें इस ज़ुल्म की तरफ़ गईं.

1980 के दशक में हिंसक संघर्ष, सामाजिक उठा-पटक और अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते दक्षिण अफ्ऱीका की सरकार को रंगभेद की नीति पर पुनर्विचार को मजबूर कर दिया. 1985 में दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति लुई बोथा ने एलान किया कि अब बदलाव का वक़्त आ गया है. उनका देश अब रंगभेद के ख़ात्मे के लिए तैयार है.

इमारतों में खुल गए वेश्यालय

लोगों को लगा कि दक्षिण अफ्ऱीका के अश्वेतों को आख़िर बराबरी का हक़ मिलने वाला है. पर आख़िरी मौक़े पर बोथा का इरादा बदल गया. रंगभेद की नीति जारी रही लेकिन इस बार दुनिया ने दक्षिण अफ्रीका को सबक़ सिखाने की ठानी. कई देशों ने दक्षिण अफ्ऱीका पर सख़्त आर्थिक पाबंदियां लगा दीं. बहुत सी कंपनियां वहां से भाग खड़ी हुईं.

तरक़्क़ी की चकाचौंध से जगमग जोहानिसबर्ग शहर वीरान होने लगा. शहर के हिलब्रो जैसे कारोबारी इलाक़े सुनसान हो गए. जो थोड़े-बहुत कारोबार बचे भी थे, वो आपराधिक गिरोहों को शिकार बनने लगे. ख़ाली इमारतों में ऐसे लोगों ने डेरा जमा लिए. जिन इमारतों में कारोबार की चकाचौंध थी, वहां वेश्यालय और ड्रग के काले धंधे का अंधेरा छा गया था. शहर को बदनामी का ग्रहण लग गया था.

आख़िरकार 1990 के दशक में राष्ट्रपति एफ. डब्ल्यू डे क्लर्क की अगुवाई में दक्षिण अफ्ऱीका ने अपने अश्वेत नागरिकों से सुलह-समझौते की बातचीत शुरू की. रंगभेद को ख़त्म करने की दिशा में क़दम उठाए जाने लगे.

अश्वेतों के दिग्गज नेता नेल्सन मंडेला को रॉबेन आइलैंड की जेल से रिहा किया गया. 1994 में दक्षिण अफ्ऱीका में पहले लोकतांत्रिक चुनाव हुए, जिसमें अश्वेत लोगों ने भी हिस्सा लिया.

लेकिन इसके साथ ही दक्षिण अफ्ऱीका में एक बार फिर अनिश्चितता का दौर शुरू हो गया. रंगभेद की दीवारें गिरीं तो जोहानिसबर्ग शहर में आबादी की बाढ़ सी आ गई.
जोहानिसबर्ग के बीचों-बीच का जो कारोबारी इलाक़ा कभी धन-दौलत की चमक से रौशन था, वो धरने-प्रदर्शनों का ठिकाना बन गया. विरोधी दलों के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक भिड़ंत होने लगी.

रंगभेद की दीवारों के भीतर बंद दक्षिण अफ्रीका की सामाजिक समस्याओं के नासूर फूट-फूटकर बहने लगे. घबराए कारोबारियों में फिर से भगदड़ मच गई. कई बैंक तो अपना साज-ओ-सामान तक समेट नहीं पाए. उनकी वीरान इमारतों में बिखरे सामान उस दौर की दास्तान बयां करते हैं.

तहख़ानों के साथ यहां आप को फ्लॉपी डिस्क, दस्तावेज़ और फ़ाइलें बिखरी हुई दिखेंगी.
एबीएसए बैंक के ख़ाली गुम्बद के तले आप को क़तार में लगी नीली फ़ाइलें मिलेंगी. इनमें एबीएसए बैंक के ग्राहकों का हर लेन-देन और ख़तो-किताबत का हिसाब सहेजकर रखा हुआ है.

लौट रही हैं रौनकें

जोहानिसबर्ग शहर के पुराने हिस्से में 17 डायगोनल स्ट्रीट पर एक विशाल इमारत है. ये बिल्डिंग कभी जोहानिसबर्ग स्टॉक एक्सचेंज थी. पर आज ख़ाली पड़ी इस इमारत को ये सोचकर तामीर किया गया था कि यहां 75 साल तक शेयर बाज़ार चलेगा. लेकिन 20 साल के भीतर ही पूरा इलाक़ा वीरान हो गया. शेयर बाज़ार भी सैंडटन नाम के नए कारोबारी इलाक़े में चला गया.
अब स्टॉक एक्सचेंज की ये इमारत वीरान है. कभी-कभार कुछ पार्टियां होती हैं. महफ़िलें सजती हैं. यहां लगे फ़ोन शांत पड़े हैं. शेयरों की क़ीमतें दिखाने वाले बोर्ड ख़ाली.

ऐसी ही एक बिल्डिंग है समरसेट हाउस. कई बरस तक यहां बेघर लोगों ने ठिकाना बनाया हुआ था. एक दौर की ये मशहूर इमारत अब फिर से लोगों के रहने लायक़ बनायी जा रही है.

पिछले एक दशक से जोहानिसबर्ग में रौनक़ें फिर से लौट रही हैं. अश्वेत मध्यम वर्ग की तरक़्क़ी की वजह से किराए बढ़ रहे हैं. मांग बढ़ रही है. अब लोग दूर स्थित क़स्बों से लंबा सफ़र करके जोहानिसबर्ग आने के बजाय यहीं रहने को तरज़ीह दे रहे हैं.

नतीजा ये कि नई दुकानें खुल रही हैं. नए कारोबार शुरू हो रहे हैं. सैलानियों की आवक में तेज़ी आई है. होटल, हॉस्टल, महफ़िलों के अड्डे रौशन हो रहे हैं. माबोनेंग जैसी स्लम बस्तियों का रंग-रूप भी दल रहा है.

स्टॉक एक्सचेंज की पुरानी इमारत में कभी-कभी कला प्रदर्शनियां लगने लगी हैं.

आपराधिक घटनाओं के बावजूद 2018 में जोहानिसबर्ग अफ्ऱीका का सबसे ज़्यादा सैलानी आकर्षित करने वाला शहर था. इसने ये मुकाम केपटाउन और मोरक्को के मराकेश शहर को पछाड़कर हासिल किया.

शहर का ट्रांसपोर्ट सिस्टम बेहतर हो रहा है. ऐप से चलने वाली टैक्सियां भी आसानी से मिल जाती हैं.
जोहानिसबर्ग एक बार फिर से सिटी ऑफ़ गोल्ड कहलाने की उम्मीद से जगमग है.

आख़िर, साहिर ने ये भी तो लिखा है…

वक़्त की पाबंद हैं, आती-जाती रौनक़ें…कौन जाने किस घड़ी वक़्त का बदले मिज़ाज.

-BBC