न्यूयॉर्क में अपने ऊपर हुए घातक हमले के दो सप्ताह बाद भी सलमान रुश्दी अस्पताल में ही हैं. विवादित किताब सैटेनिक वर्सेज़ के लेखक सलमान रुश्दी को ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह ख़मेनेई द्वारा ‘जान से मारने का फ़तवा’ देने के बाद से बीते तीन दशकों से जान से मारने की धमकियां मिलती रहीं थी.
फ़रवरी 1989 में दिए गए इस आदेश से पहले तक ईरान ने कम से कम सार्वजनिक तौर पर इस विवादित किताब को नज़रअंदाज़ ही किया था लेकिन फिर फ़तवा जारी होने से कुछ घंटे पहले ही तेहरान के मुख्य हवाई अड्डे पर ईरान सरकार के एक मंत्री और दो ब्रितानी इमामों के बीच एक बैठक हुई.
कलीम सिद्दीक़ी और ग़यासउद्दीन सिद्दीक़ी जब मेहराबाद एयरपोर्ट पहुंचे तो मौसम ख़राब था. दोनों ही लोग ईरान में इस्लामी क्रांति के दस वर्ष पूरे होने पर हो रहे एक सम्मेलन में हिस्सा लेने आए थे. अब वो ब्रिटेन वापस लौट रहे थे.
एयरपोर्ट के भीतर अचानक ही उनकी मुलाक़ात ईरानी सरकार में मंत्री मोहम्मद खतामी से हुई, जिन्होंने कलीम से अकेले में बात करने की गुज़ारिश की.
2009 में आई बीबीसी डॉक्यूमेंट्री द सैटेनिक वर्सेज़ अफ़ेयर में बात करते हुए ग़यासुद्दीन ने बताया, “वो एक कोने में गए और बात की.”
जब कलीम लौटे तो उन्होंने बताया किस बारे में बात हुई. ग़यासुद्दीन याद करते हुए बताते हैं, “वो सलमान रुश्दी के बारे में मेरी राय जान रहे थे और मैंने उनसे कहा कि कुछ ना कुछ बड़ा किया जाना चाहिए.”
अपने साथ वापस लौट रहे ग़यासुद्दीन को कलीम ने बताया कि मंत्री ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह ख़मेनेई से मुलाक़ात करने जा रहे थे. अयातुल्लाह रोहुल्लाह ख़मेनई शिया मुसलमानों और ईरान के सर्वोच्च नेता थे.
इसके कुछ घंटे बाद ही अयातुल्लाह ने फ़तवा जारी कर दिया था.
इस फ़तवे में कहा गया था कि “मैं दुनिया के सभी बहादुर मुसलमानों से आह्वान करता हूं कि वो दुनिया में जहां भी हैं, बिना किसी देरी के उनकी हत्या कर दी जाए ताकि इसके बाद कभी किसी की मुसलमानों की पवित्र आस्था का अपमान करने की हिम्मत ना हो.”
2007 में सर सलमान रुश्दी को ब्रिटेन ने नाइट की उपाधि दी थी. उन्होंने साल 1988 में सैटेनिक वर्सेज़ का प्रकाशन किया था. ये उनका चौथा उपन्यास था. इस किताब के शीर्षक में इस्लामी धर्मशास्त्र में एक विवादित विवरण को दर्शाता है.
पैग़ंबर मोहम्मद क़ुरान की दो आयतों का बयान कर रहे थे जिन्हें बाद में हटा लिया गया क्योंकि ये माना गया था कि शैतान ने गुमराह करके ये बुलवाई हैं.
कई मुसलमानों ने ये तर्क दिया कि सलमान रुश्दी का उपन्यास इस्लामी धर्मशास्त्र के इसी विवाद के संदर्भ में है और ये उनकी आस्था का अपमान है. किताब की कई अन्य बातों का विरोध करने के अलावा इसमें दो किरदारों के नाम को लेकर भी विरोध हुआ था. रुश्दी ने अपनी दो वेश्या किरदारों का नाम पैगंबर मोहम्मद की पत्नियों के नाम पर रखा था.
फ़तवा जारी होने से पहले छह महीनों तक इस किताब के ख़िलाफ़ दुनियाभर में प्रदर्शन हो रहे थे. भारत समेत कई देशों ने इस किताब पर प्रतिबंध लगा दिया था. पाकिस्तान में हुए विरोध प्रदर्शनों में कई लोगों की मौत हो चुकी थी. ब्रिटेन में भी बोल्टन और ब्रैडफ़र्ड में किताब की प्रतियों को जलाया गया था लेकिन तब तक ईरान के नेताओं ने इस किताब के ख़िलाफ़ कोई बड़ा बयान नहीं दिया था या विरोध दर्ज नहीं कराया था.
सवाल उठता है कि क्या इस फ़तवे के पीछे अचानक हुई वो मुलाक़ात थी जिसके बारे में क़लीम और ग़यासुद्दीन ने दावा किया था.
क़लीम सिद्दीक़ी और ग़यासुद्दीन सिद्दीक़ी रिश्तेदार नहीं थे, बस उनका सरनेम एक जैसा था. सलमान रुश्दी की ही तरह दोनों का ही जन्म आज़ादी के पहले के भारत में हुआ था. दोनों ही ब्रिटेन में जाकर बस गए थे. 1980 के दशक में दोनों ही इमामों ने ईरान की अयातुल्लाह सरकार के क़रीब आने के प्रयास किए थे.
सुन्नी मुसलमान होने की वजह से कलीम 1979 की ईरान की इस्लामी क्रांति के प्रसंशक थे. ईरान एक शिया बहुल देश है. उनका मानना था कि इस क्रांति ने इस्लाम को पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव से बचा लिया है. इस क्रांति से पहले ईरान में पश्चिमी देशों के समर्थक शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी का शासन था.
कलीम ने बाद में दावा किया था कि ऐसा हो सकता है कि वो फ़तवे के लिए कुछ हद तक ज़िम्मेदार हों.
1992 में जब बीबीसी रेडियो 4 की सीरीज़ बियॉण्ड बिलीफ़ के लिए बीबीसी संवाददाता लुडोविक केनेडी ने उनका साक्षात्कार में कलीम से पूछा था कि क्या आपको इस पर गर्व है तो उन्होंने कहा था, “हां बिलकुल है.”
“मैं एक मंत्री से मिला, एक कैबिनेट मंत्री से एयरपोर्ट पर, एयरपोर्ट के वीआईपी लाउन्ज में, उन्होंने मुझसे सलमान रुश्दी और सैटेनिक वर्सेज़ के बारे में पूछा. मैंने उन्हें वही बताया जो मैं इस बारे में जानता था और इसके बाद वो इमाम (अयातुल्लाह ख़मेनेई) के पास गए, और मुझे लगता है, ऐसा मैं मानता हूं, कि इसके बाद अगली सुबह फ़तवा जारी कर दिया गया.
पत्रकार यासमनी अलीभाई कहती हैं कि कलीम ने उनसे बातचीत में भी ऐसा ही दावा किया था. वो बताती हैं, “कुछ अयातुल्लाह ने तो किताब को पढ़ा तक नहीं था.”
ग़यासुद्दीन के क़रीबी मित्र रहे और इस्लामी कट्टरपंथ पर लिखने वाले लेखक एड हुसैन ने भी एयरपोर्ट पर हुई उस मुलाक़ात के महत्व का ज़िक्र किया है.
2019 में बीबीसी की पोडकास्ट सीरीज़ फ़तवा में उन्होंने बताया था कि अयातुल्लाह को सलाह दी गई थी कि वो सलमान रुश्दी के बारे में कुछ ना करें क्योंकि वो एक विदेशी लेखक हैं जो किसी दूसरे देश में रहते हैं.
हुसैन कहते हैं कि ये एक ब्रितानी इमाम ही थे जिन्होंने ईरान के तानाशाही धार्मिक और राजनीतिक नेता अयातुल्लाह ख़मेनई से कहा था कि उन्हों “मुसलमानों के लिए कुछ करना चाहिए.”
हुसैन कहते हैं कि इसका मतलब ये है कि “एक ब्रितानी मुसलमान ने एक फ़ासीवादी सरकार के धार्मिक नेता से कहा कि वो फ़तवा जारी करके उस व्यक्ति की हत्या का आह्वान करें जो उसके अपने स्वतंत्र देश का नागरिक है.”
जब हुसैन से पूछा गया कि क्या इसका मतलब ये है कि एक ब्रितानी व्यक्ति ने फ़तवा का आग्रह किया तो उन्होंने कहा था ‘हां.’
हालांकि ऐसे भी विवरण हैं जो कलीम के प्रभाव को कम करके आंकते हैं.
कलीम के साथ यात्रा कर रहे ग़यासुद्दीन ने अपनी जीवनी में लिखा है कि ‘आम धारणा यही है कि क़लीम ही फ़तवे के ग्रांड मास्टर थे लेकिन असल में बात ये नहीं है.’
सी स्कॉट जार्डन की लिखी इस किताब- ‘ए वैरी ब्रिटिश मुस्लिम एक्टिविस्ट’ में कहा गया है कि सप्ताह के गर्म मुद्दों पर चर्चा के लिए अचानक हुई अनिर्धारित मुलाक़ाते कलीम की ईरान यात्रा का हिस्सा थीं.
“इस सप्ताह, जैसा की चर्चा थी, ऐसा लगता है कि सलमान रुश्दी की किताब अयातुल्लाह ख़मेनई की डेस्क तक पहुंच गई थी और एक इस्लामी राष्ट्र का नेता होने के नाते उन्हें कुछ ना कुछ तो करना ही था.”
इस जीवनी में कहा गया है कि एयरपोर्ट पर मिले मंत्री मोहम्मद खतामी, जो बाद में ईरान के राष्ट्रपति भी बने, ने कलीम की राय ज़रूर मांगी थी लेकिन ये स्पष्ट नहीं है कि उन्होंने ये अयातुल्लाह तक पहुंचाई थी या नहीं या इससे कोई फ़र्क पड़ा था या नहीं.
किताब में ग़यासुद्दीन कहते हैं, “ये मानना कि एक धार्मिक आदेश जिस पर धार्मिक विद्वानों ने सावदानी से बहर की हो उस पर किसी विदेशी चीयरलीडर का कोई प्रभाव था, वो भी जारी किए जाने के कुछ घंटे पहले, अपने आप में एक मज़ाक ही है.”
कलीम की साल 1996 में मौत हो गई थी. हाल ही में सलमान रुश्दी के हमले के बाद टिप्पणी करते हुए उनके बेटे इक़बाल ने कहते हैं कि ये एक महज़ संयोग ही है कि जब ईरान में फ़तवा जारी किया गया था उस समय उनके पिता वहां थे.
इक़बाल कहते हैं कि जब ईरानी मंत्री उनके पास आए और और रुश्दी की पृष्ठभूमि के बारे में पूछा तो ये पहली बार था जब मेरे पिता को फ़तवा के बारे में पता चला था.
“फ़तवा जारी होने के लिए उन्होंने कभी ये महसूस नहीं किया कि वो उसके लिए ज़िम्मेदार थे.”
हालांकि इक़बाल ये भी कहते हैं कि उनके पिता ने कभी भी फ़तवे का समर्थन करने पर अफ़सोस ज़ाहिर नहीं किया.
ग़यासुद्दीन अभी भी ज़िंदा हैं लेकिन मीडिया से बात करने की हालत में नहीं हैं. उनके बेटे आसिम भी यही मानते हैं कि तेहरान एयरपोर्ट पर हुई मुलाक़ात महज़ संयोग थीं और इस बात का कोई सबूत नहीं है कि कलीम की राय को अयातुल्लाह तक पहुंचाया गया था.
आसिम कहते हैं कि उनके पिता ने अपने आप को दशकों पहले ही फ़तवे से अलग कर लिया था.
-Compiled by -up18News
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